मनुष्य का आदिम ज्ञान और भाषा-35
गतांक से आगे……
ऋग्वेद में है कि-
संवत्सरं शशयाना ब्राह्मण व्रतचारिण:।
वाचं पर्जन्यजिन्वितां प्र मण्डूका अवादिषु:।।
ब्राह्मणासो अतिरात्रे न सोमे सरो न पूर्णमभितो वदन्त:।
संवतत्सरस्य तदह: परिष्ठ यन्मण्डूका: प्रावृषीण्र बभूव।।
(ऋ 7/103/7)
यहां स्पष्ट कहा गया है कि संवत्सर भर सोये हुए मण्डूक पर्जन्य पड़ते ही बोलने लगे, क्योंकि संवत्सरस्य तदह: अर्थात संवत्सर का वही दिन है। कहने का मतलब यह है कि जिस प्रकार संवत्सर के आदि में वर्षा को मण्डूक जगाते हैं, उसी तरह संवत के अंत में वर्षा ऋतु के समाप्त हो जाने पर ऋतुओं को कुत्ते जगाते हैं। एक वर्ष वर्षा के आरंभ से शुरू होता है और दूसरा वर्ष के अंत से शुरू होता है। इस तरह से इन दो आर्तव वर्षा की पहचान मण्डूकों और कुत्तों से बतलाई गयी है।
शहरों में तो नही जिनको देहात में रहने का मौका मिला है, वे जानते हैं कि चतुर्मास समाप्त होते ही आश्विन कार्तिक का आरंभ होते ही कुत्तों के ऋतुदान का समय होता है। वे गर्भाधान करते हैं और रात के समय चिल्लाते हैं। उनकी वह चिल्लाहट विचित्र प्रकार की होती है। यही ऋतुदान ऋतुओं का जगाना है और वर्षाकाल का अंत है। इस वर्णन में न कहीं मृगशीर्ष के संपात का नाम है और न कहीं आकाश मंडल का। यहां वेद के दोनों स्थलों को मिलाने से यह सिद्घांत बनता है, कि वर्षा का आरंभ मेंढकों से ज्ञात होता है और वर्षा का अंत कुत्तों से। ये दोनों घटनाएं वर्षा के आदि और अंत में होती है।
चौथा प्रमाण है ‘वृषाकपि’ का। ऋग्वेद मण्डल 10 सूक्त 86 में इस वृषाकपि का वर्णन आया है। तिलक महोदय लिखते हैं कि सूर्य संपात का एक दूसरा प्रमाण और भी है पर वह जिस सूक्त में आया है, उसका मतलब आज तक किसी की समझ में नही आया। इसके आगे आप उस सूक्त का प्रकार वर्णन करते हैं कि-
वृषाकपि मृगरूप से इंद्र का मित्र है। जहां वह उन्मत्त होता है, वहां यज्ञ बंद हो जाते हैं। एक बार इस मृग ने इंद्राणी की बहुत सी चीजें नष्ट कर दीं। इंद्र इसका बड़ा दुलार करते थे, इसलिए इंद्राणी इंद्र पर बहुत नाराज हुई, पर इंद्र तो उसको कुछ सजा दिये बिना ही उसके पीछे पीछे दौडऩे लगे। इस से और अधिकनाराज होकर वे उस मृग का मस्तक छेदन करने के लिए उठीं और उसके पीछे एक कुत्ता लगा दिया। इतने में इंद्र ने बीच में पड़कर उनका समाधान कर दिया। इसलिए उस मृग का शिरच्छेदन तो न हुआ, पर एक दूसरे ही मृग का सिर कट गया। इसके बाद वृषाकपि नीचे अपने घर जाने लगा। यज्ञ पुन: जारी हों, इसलिए इंद्र ने उसे आज्ञा देकर अपने घर बुलाया और जब वह इंद्र के घर ऊपर आया तब उसके साथ वह प्रमादी मृग न था। अत: इंद्र, इंद्राणी और वृषाकपि परस्पर मिले भेटे।
इस अलंकार को आप शरत सम्पात की घटना बतलाते हैं। आज कहते हैं कि यह मृग मृगशीर्ष ही है। श्वान का वर्णन उस मौके को और भी पुष्ट करता है। दक्षिणायन में यज्ञ बंद हो ही जाते हैं और जब सूर्य वसंत संपात में अर्थात देवयान में ऊपर आता है, तब फिर यज्ञयाग होने लगते हैं। इस तरह से यह शरत संपात का ही वर्णन है।
हम कई बार कह चुके हैं कि उस मौके के दो श्वान है, एक नही। उनका वर्णन जहां कहीं आता है, द्विवचन में ही आता है। इस सूक्त का भी श्वान कोई दूसरा ही पदार्थ है। इसी तरह मृग भी मृगशिर नही, किंतु बादल ही है और इंद्र भी सूर्य ही है। अब वृषाकपि का अर्थ खुलने से ही सारा भेद खुल जाएगा। वृषाकपि ऋग्वेद और अथर्ववेद मेें सिर्फ एक ही सूक्त में इसी रूप में से आता है। इसलिए वृषा और कपि दोनों शब्दों को अलग अलग देखना पड़ेगा। वृषा इंद्र को कहते हैं कि इसमें जरा भी संदेह नही। अमरकोश में सुत्रामा गोत्रभिद्वज्री वासवो वृत्रहो वृषा कहा गया है। इन सब इंद्र के नामों में वृषा शब्द स्पष्ट रूप से आया है। और इंद्र शब्द सदैव सूर्य या विद्युत के लिए आता है। इसलिए यहां वृषा का अर्थ या तो सूर्य है या विद्युत। अब कपि का अर्थ देखना है। कपि शब्द ऋग्वेद भर में अन्यत्र कहीं नही यहां वृषा का अर्थ या तो सूर्य है या विद्युत। अब कपि का अर्थ देखना है। कपि शब्द ऋग्वेद भर में अन्यत्र कहीं नही आता। वह इसी सूक्त में वृषा के साथ आता है और एक बार इसी सूक्त में अकेला भी आया है। क्रमश:
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।