पत्रकार और प्रधानमंत्री: परस्पर डरें क्यों?
प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली बार नरेंद्र मोदी ने पत्रकारों पर मेहरबानी की। उन्हें भाजपा मुख्यालय में बुलाया। मेहमानों का स्वागत करने की हमारी परंपरा है लेकिन मेहमान पत्रकारों ने घंटे-डेढ घंटे प्रतीक्षा की और वहां बैठ कर मेजबान प्रधानमंत्री का स्वागत किया! प्रधानमंत्री ने पत्रकारों को बताया कि कभी भाजपा कार्यालय में वे कैसे पत्रकारों के लिए कुर्सी जमवाया करते थे और उनका इंतजार किया करते थे। अब पत्रकारों से अपना इंतजार कराकर उन्होंने अपना पुराना हिसाब चुकता कर लिया!
उन्होंने पत्रकारों से क्या बातचीत की, कुछ पता नही चला। हां, यह जरूर पता चला कि वे पत्रकारों के साथ, खास तौर से रिपोर्टरों के साथ बातचीत करने की इच्छा रखते है ताकि उन्हें सीधा लाभ हो सके। उन्होंने कहा कि इस प्रक्रिया के द्वारा उन्हें गुजरात मे काफी लाभ मिला था। उन्होंने पत्रकारों के सामने संक्षिप्त सा भाषण दिया और फिर वे सबसे मिलने जुलने लगे। न कोई सवाल-जवाब हुए न कोई विचार-विमर्श हुआ। यदि इसी तरह का पत्रकार मिलन भविष्य मे भी होता रहा तो वह निरर्थक ही होगा। उससे न तो पत्रकारों का कोई लाभ होगा न प्रधानमंत्री का। ऐसा एकतरफा भाषण तो टीवी चैनल दिखा ही देते हैं। उसके लिए प्रधानमंत्री-निवास या भाजपा कार्यालय जाकर पत्रकार कई घंटे क्यों खराब करेंगे? नौसिखिए रिपोर्टर शायद ऐसे मिलन में चले भी जाएं लेकिन मंजे हुए पत्रकार इसे फिजूल की कसरत ही मानेंगे।
नरेंद्र मोदी पत्रकारों का सामना करने से इसलिए भी बचते रहे हैं कि पहले पत्रकारों ने उनके साथ घनघोर अन्याय किया है। लेकिन यह भी सत्य है कि उनके प्रधानमंत्री बनते ही वे ‘सेकुलर’ पत्रकार अब घुटनों के बल रेंग रहे हैं। अब उनसे डरने का कोई कारण नही है। वे खुद डरे हुए है। इसीलिए अब हर माह मोदी को खुले पत्रकार-सम्मेलन करना चाहिए। सवालों के डटकर जवाब देने चाहिए। उनकी सरकार के पास छिपाने के लिए कुछ नही है। यदि वे पत्रकारों से वैसी ही दूरी बनाकर रखेंगे, जैसी कि अभी तक बनाए हुए थे, तो वे अपना नुकसान तो करेंगे ही, भारतीय लोकतंत्र की भी अवहेलना करेंगे।
कुछ पत्रकारों ने कहा कि मोदी किसी के साथ लिहाजदारी नहीं करते। मैं समझता हूं कि वे बिल्कुल ठीक करते हैं। पत्रकारों को भी किसी प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति की लिहाजदारी नहीं करनी चाहिए। उन्हें सच बोलना और लिखना चाहिए। किसी भी भय या लालच के सामने डगना नही चाहिए। यदि कार्यपालिका को बड़े दमखम के साथ चला रहे हैं तो पत्रकारों को चाहिए कि वे खबरपालिका को और भी ज्यादा दमखम के साथ चलाएं। यदि विधानपालिका(संसद) और न्यायपालिका (अदालतें) कमजोर पड़ जाएं तो कुछ फर्क जरूर पड़ता है लेकिन यदि खबरपालिका कमजोर हो गई तो लोकतंत्र को धाराशायी होने से कोई नहीं रोक सकता।