पुस्तक समीक्षा : अधूरा खत
‘अधूरा खत’ पुस्तक की कवयित्री डॉ (श्रीमती) कंचना सक्सेना हैं। इस पुस्तक के माध्यम से कवयित्री ने विभिन्न विषयों को लेकर अपनी सजीव भावाभिव्यक्ति को देने का सराहनीय प्रयास किया है। कोरोना से इस समय सारा संसार जूझ रहा है। स्वाभाविक है कि किसी साहित्यकार को भी कोरोना पर लिखने की बार-बार प्रेरणा होगी ही। डॉ कंचना सक्सेना जी भी इससे अछूती नहीं रही हैं । उन्होंने कोरोना पर भी इस पुस्तक में कई कविताओं के माध्यम से बहुत ही शानदार ढंग से लिखा है।
बहुत ही भावपूर्ण ढंग से वे लिखती हैं :-
अविराम बेलगाम दौड़ती
जिंदगी
कहां रुक गई ?
क्यों थक गई ?
मुंह बाए खड़ा यक्ष प्रश्न
बचाना है मानव को ,
अपनाना है सुरक्षा चक्र।
समाज में गिरते नैतिक मूल्य इस समय बहुत ही चिंता का विषय है डॉक्टर सक्सेना भी इस पर अपनी चिंता प्रकट करती हैं। उन्हें इस बात का बहुत ही मलाल है कि भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा की ओर ध्यान न देकर समाज अधोपतन की प्रक्रिया को अपना रहा है। अपनी कविता ‘कहां आ गए हम’ में वह कहती हैं :-
विश्व में मिसाल थी भारतीय संस्कृति
प्रेम ,करुणा, ममता, दया, सहानुभूति
सहनशीलता और सत्य आधारित
वचन की दृढ़ता विलुप्त प्राय है,
स्थान इनका ले लिया स्वार्थ और ईर्ष्या विद्वेष ने।
इसी प्रकार के भाव वह अपनी ‘पर्यावरण’ नामक कविता में व्यक्त करते हुए लिखती हैं –
हो गया दूषित
अब बहुत
ही देश का पर्यावरण
सभ्यता और संस्कृति
के नाम पर कहां आ गए हम?
हमारे सामाजिक ताने-बाने में हमारे निजी संबंध बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं। यद्यपि उनके विषय में यह भी सच है कि इन संबंधों में सदा ही कोई ना कोई शिकायत बनी रहती है। कई लोग बहुत समझदारी के साथ रिश्तों को निभाते हुए झुककर चलते हैं, परंतु इसके उपरांत भी शिकायतें हैं कि कम होने का नाम नहीं लेतीं। डॉ सक्सेना अपनी कविता ‘रिश्ते’ में इस पर लिखती हैं :–
रिश्तो के लिए झुकना
या कहें अपनों के लिए झुकना
झुक झुककर कमर टेढ़ी हो गई
किंतु विडंबना…
शिकायतों को नहीं आया झुकना..
परनिंदा में बहुत से लोगों को बड़ा आनंद आता है। जब भी समय मिलता है तो वे कोई काम की बात ना करके अनर्थक और अनर्गल वार्तालाप में समय व्यतीत करना अच्छा मानते हैं। जिससे अपना चित्त तो दूषित होता ही है, समय भी व्यर्थ में नष्ट हो जाता है। ऐसे लोग जीवन के कितने मूल्यवान क्षणों को व्यर्थ में ही व्यतीत कर देते हैं ? – इसका अनुमान शायद उन्हें भी नहीं होता। श्रीमती कंचना सक्सेना इस पर अपनी कविता ‘परनिंदा’ में बहुत सटीक लिखती हैं :—
खाली दिमाग शैतान का घर,
आओ गुफ्तगू कर लें
इसमें यह नहीं किया
उसने यह नहीं किया,
इसे यह काम में ऐसे करना चाहिए
तो उसे ऐसे।
जैसे दुनिया भर की अकल
का ठेका है हमारे पास…
गुजार दिए इसी उधेड़बुन में
न जाने कितने क्षण,माह, वर्ष।
इस पुस्तक की कुल पृष्ठ संख्या 151 है । जबकि पुस्तक का मूल्य ₹250 है। पुस्तक के प्रकाशक साहित्यागार , धामाणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता जयपुर है। पुस्तक प्राप्ति के लिए 0141-2310785, 4022382 पर संपर्क किया जा सकता है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत