सूखे पेड़ पर बैठा पक्षी भी बुरा लगता है। यहां तक कि यात्री भी सूखे पेड़ की अपेक्षा हरे-भरे पेड़ को तलाशता है, और अपनी थकान मिटाता है। इस घटना को समझने के दो पहलू हो सकते हैं, एक तो यह कि संसार स्वार्थी होता है, जहां तक आपके पास कुछ है, तब तक लोग आपको नमस्कार करते हैं, और जैसे ही आपसे उनका स्वार्थ पूर्ण होता है तो वे खिसक जाते हैं। दूसरे-यह है कि इस संसार में सदा समय एक जैसा नही रहता, समय परिवर्तन शील है और परिवर्तन शील संसार भी परिवर्तन का साधक है। संभवत: एक जैसी अवस्था से संसार ऊब जाता है, इसलिए वह नवीन की अपेक्षा करता है, काल के गाल में समाते ‘आज’ को जब सूर्यास्त के समय मनुष्य देखता है तो उसे बोध होता है कि यहां एक दिन सभी का ‘सूर्यास्त’ होना है, इसलिए संभलकर चलो। अत: सूखे पेड़ पर समय नष्ट करने के लिए बैठा पक्षी बुरा लगता है और यात्री भी नवीन की खोज में कुछ हरा भरा खोजता है।
कांग्रेस का पेड़ सूख रहा है। समय की नियति देखिए कि सूखे पेड़ को पानी वो लोग दे रहे हैं जो स्वयं वैचारिक धरातल पर सूख चुके हैं, या जिनका वैचारिक दीवालिया निकल चुका है। हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावों ने पुन: हमारी इस मान्यता की पुष्टि की है। स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़ चढ़कर भाग लेने वाली कांग्रेस के विषय में लोगों की मान्यता है किइसने जितने पुण्य किये थे उनसे अधिक फल ले लिये। अब समय ने परिवर्तन की घंटी बजाई है और चमत्कार देखिए कि कांग्रेस के महापुरूषों को ‘एकलव्य’ (मोदी) अपनी धनुर्विद्या के सफल प्रयोग से कांग्रेस की झोली से छीन छीनकर अपनी झोली में डालता जा रहा है। ‘एकलव्य’ इतनी सावधानी से धनुर्विद्या का चमत्कार दिखा रहा है कि कुत्ते का मुंह बाणों से तो भर गया है पर इसके उपरांत भी उसके मुंह से रक्त नही आ रहा है। कहने का अभिप्राय है कि कांग्रेस के मुख बने मां बेटे-सोनिया गांधी और राहुल गांधी कुछ कहना तो चाहते हैं पर कह नही पा रहे हैं। समय ने उन्हें बांध लिया है और उनके हाथ पैर निश्चेष्ट हो चुके हैं। पैरालायसिस से पीडि़त कांग्रेस आलाकमान अपने हाथ पैर उठाना चाहती है, पर उठा नही पाती है। इसे कहते हैं सफल राजनीति और इसे ही कहते हैं विफल राजनीति का पापबोध। देश आज सफल राजनीति और विफल राजनीति के अदभुत संयोग को देख रहा है। करवट लेते इतिहास के हम साक्षी बन रहे हैं।
इसी समय काल की अंतिम परिणति को अपने अनुकूल बनाने के लिए दूर गुफा में एक और एकलव्य भी साधना कर रहा है। उसका कोई गुरू नही है, उसे भी भाजपा के एकलव्य (मोदी) की भांति लोगों ने अपनी शागिर्दी देने में अपनी विवशताओं का बार-बार प्रदर्शन किया है। क्योंकि लोग उसे शागिर्दों का शागिर्द मानते हैं। यह ‘एकलव्य’ एकलय होकर साधना कर रहा है और भाजपा के ‘एकलव्य’ के शिकार (कांग्रेस) को उसके मुंह से छुड़ाकर लगता है उसे ही अपने उत्थान का आधार बनाना चाहता है।
निस्संदेह यह एकलव्य वरूण गांधी है। वरूण दूर गुफा से आज के मोदी और कांग्रेस के द्वंद्व युद्घ को देख रहे हैं। उनके अंदर नेहरू और इंदिरा के लिए स्वाभाविक आदर का भाव है, इसलिए वह जितना ही कांग्रेस नाम के प्राणी का शिकार करते मोदी को और मोदी के बाणों से पैरालायसिस मारी कांग्रेस को देखते हैं, उतनी ही उनकी आत्मा चीत्कार कर उठती होगी। वह कांग्रेस को छंटपटाती नही देखना चाहते। पर कुछ कर भी नही सकते। मैं और आप भविष्य वक्ता नही हैं पर आज जो दृश्य बन रहा है वह संभवत: हम जैसे लोगों को भी भविष्यवक्ता बनने के लिए विवश कर रहा है।
इस स्थिति परिस्थिति में फंसी कांग्रेस और उसके प्रति वरूण के स्वाभाविक लगाव को मोदी अच्छी प्रकार से जानते हैं। इसलिए उन्होंने लोगों की मांग के विपरीत जाकर उत्तर प्रदेश के लिए वरूण गांधी को नही, अपितु योगी आदित्य नाथ को तैयार करना आरंभ कर दिया। यही कारण रहा कि पिछले दिनों यूपी में हुए उपचुनावों में उन्होंने ‘योगी कार्ड’ को खुलकर खेलने दिया। यह अलग बात है कि योगी अपनी सीमाओं से आगे बढ़कर बोले और अब उन्हें भी ‘पंखविहीन’ सा कर दिया गया है। यह सत्य है कि वर्तमान का खेल और उसके बनते बिगड़ते नियम ही कल के खेल का आधार भूत सत्य बनकर सामने आया करते हैं। वर्तमान को आप जितना निखारेंगे कल उतना ही उजला होगा। मोदी यह भली भांति जानते हैं कि वरूण गांधी की पहचान किसी की मोहताज नही है। वह चाहे जिस मंच पर हों, चमकेंगे ही। भाजपा के मंच से अलग भी वह अपने चमकने की प्रतिभा और आभा से संपन्न हैं। पर वह इस समय चुप हैं, तो इसके कई कारण हैं। एक तो ये कि वह मर्यादित पुत्र बने रहकर मां मेनका गांधी के लिए कोई असहज स्थिति उत्पन्न करना नही चाहते, दूसरे-यह कि वे अपनी मां की भांति कोई नया मंच या राजनीतिक पार्टी बनाने की भूल भी नही करेंगे। वह चाहेंगे कि देर सबेर कांग्रेस को ही अपने लिए प्रयोग किया जाए। पर यह कांग्रेस राहुल सोनिया की कांग्रेस नही होगी। यह वह कांग्रेस होगी जो राहुल सोनिया से मुक्ति पाने के लिए तड़प रही होगी और उसके लिए संघर्ष कर रही होगी। इस तड़प और संघर्ष के प्रारंभिक संकेत आने लगे हैं। कांग्रेस विहीन भारत का शुभारंभ श्री मोदी ने किया है तो ‘राहुल गांधी-सोनिया विहीन’ कांग्रेस का शुभारंभ स्वयं कांग्रेस को करना है। वरूण की ‘एकलव्य साधना’ भी इसी क्षण के लिए जारी है।
आज भी कांग्रेसियों में एक ऐसा वर्ग है जो वरूण के लिए सहानुभूति रखता है, या उनके लिए कार्य करता है। इतना ही नही कांग्रेस सदा ही राष्ट्रवादी और छदम धर्मनिरपेक्षी नेताओं के मध्य बंटी रही है। इसके मंच पर सुभाष चंद्र बोस और पटेल जैसे लोग भी रहे हैं- हमें यह नही भूलना चाहिए। इसलिए आपातकाल के दौरान वरूण के पिता स्व. संजय गांधी को कांग्रेस में लोग यूं ही पसंद नही करते थे। संजय कांग्रेस की एक विचारधारा के प्रतिनिधि थे। आज भी उस विचारधारा के लोग कांग्रेस में हैं। जिनकी मान्यता है कि कांग्रेस को यदि ‘मोदी भय’ से मुक्त करना है तो उसके पास ‘अपना मोदी’ होना चाहिए। इस मोदी को वह राहुल गांधी के रूप में तो कतई नही देख रहे हैं। कांग्रेस के अन्य युवा चेहरों में भी मोदी बनने का जज्बा नही दिखायी दे रहा है। जबकि यह सत्य है कि’कांग्रेस विहीन’ भारत का नारा देकर उसमें सफलता की कहानी लिखने वाले मोदी को हराने के लिए मोदी का जवाब तो ढूंढऩा ही पड़ेगा। कांग्रेसियों में इस बात को लेकर भारी व्याकुलता है कि मोदी अपने कार्यों से बहुत देर की पारी खेलने का माहौल बना चुके हैं। इस माहौल को अपने अनुकूल करने में राहुल की प्रतिभा बुझी-बुझी सी दिखाई दे रही है।
वरूण गांधी यह जानते हैं कि कांग्रेस में उनकी स्वीकार्यता ताई सोनिया गांधी के रहने तक तो संभव है नही। इसलिए वह अभी शीघ्रता न ही दिखा रहे हैं। सोनिया गांधी थक चुकी हैं और वह अपने से अधिक थके हुए अपने बेटे राहुल गांधी की पराजित मानसिकता को देखकर ही मैदान में टिकी हुई हैं, वरना वह आराम करना चाहती हैं। इसलिए कांग्रेसी भी कुछ देर तक चुप हैं। वरूण जब तक सोनिया हैं तब तक कांग्रेस में जाकर अपने पारिवारिक कलह को भी जग हंसाई का कारण नही बनने देना चाहते हैं। ऐसे मर्यादित संकेत वह पूर्व में भी दे चुके हैं। वह अपने परिवार की विरासत के योग्य वारिस हैं, पर इसका प्रदर्शन नही करना चाहते हैं। राहुल गांधी अपनी पारिवारिक विरासत के अयोग्य वारिस सिद्घ हो चुके हैं। पर वह अपनी अयोग्यता को प्रदर्शित करना नही चाहते हैं। इसी द्वंद्व में कांग्रेस अपना योग्य स्वामी खोज रही है। वैसे देश को भी मुख्य विपक्षी दल में मोदी के राष्टï्रवादी चिंतन जैसा नेता चाहिए। जिसे राहुल पूरा नही कर पाएंगे, तब कांग्रेस को राहुल का स्थानापन्न खोजने की आवश्यकता पड़ेगी ही, और वह वरूण ही हो सकते हैं।
इधर भाजपा के नरेन्द्र मोदी ने अमित शाह को राजनाथ से भी अधिक शक्तिशाली अध्यक्ष बनाकर स्पष्ट कर दिया है कि वहां यदि सब कुछ सामान्य रहा तो अगला मोदी अमित शाह होंगे। राजनाथ सिंह के लिए यह स्थिति कोई गौरवपूर्ण नही कही जा सकती कि उन्हें अपने बेटे के ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के पश्चात यह स्पष्टीकरण देना पड़ा कि यदि वह या उनके परिवार का व्यक्ति भ्रष्टाचार में लिप्त पाये जाते हैं तो वो सार्वजनिक जीवन से संन्यास ले लेंगे। इससे श्री सिंह कमजोर हुए और उस कमजोरी की आहट में ही लोग उनके बेटे के लिए नोएडा की विधानसभा सीट से मिलने जा रहे टिकट को ले उड़े। एक आयी हुई सीट श्री सिंह से ऊपर ही ऊपर हाथ से निकल गयी। कहीं यह उनके सार्वजनिक जीवन से संन्यास लेने की आहट तो नही है?
हमें लगता है कि अभी मोदी अपने कार्यों से देश को देर तक प्रभावी नेतृत्व देते रहेंगे। पर एक दिन आएगा जब आज के भाजपायी वरूण गांधी के भीतर छिपे मोदी से ही मोदी की भाजपा टक्कर लेगी। कुछ लोग जल्दी की राजनीति के साज सजाया करते हैं, पर कुछ दूर की कौड़ी को सावधानी से बैठाने के लिए देर तक प्रतीक्षा करते हैं, क्योंकि उनके पास समय होता है। ज्यों-ज्यों मोदी के हाथ से समय की गेंद खिसकेगी त्यों-त्यों उसे लपकने वाले हमें दिखते जाएंगे। वरूण गांधी गेंद पर ध्यान लगाये बैठे हैं। देखते हैं कि वह गेंद को कब और कैसे लपकते हैं? इतना तो सच है कि देश में नयी राजनीति की चौसर सज चुकी है और वरूण गांधी उस चौसर के एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी बनने जा रहे हैं।