✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’
इसके दो ही प्रकार हो सकते हैं, कि या तो जगदीश्वर ने आदि मनुष्यों वा ऋषियों को आजकल की भाँति बैठकर पढ़ाया वा लिखकर दे दिया या लिखा दिया हो, यह सब एक ही प्रकार कहा जा सकता है और ईश्वर के शरीरधारी होने पर ही हो सकता है, और तो किसी प्रकार हो नहीं सकता। ईश्वर के देहधारी होने में उसकी नित्यता और सर्वव्यापकादि गुण रह नहीं सकते, और आगे सृष्टिकतत्व, सर्वशक्तिमत्त्व आदि गुण भी टिक नहीं सकते, ईश्वर का ईश्वरत्व ही नहीं रह सकता, अत: उस का देहधारी होना तो मानने योग्य नहीं हो सकता।
दूसरा प्रकार यह है कि जैसे अनन्तविद्य परमेश्वर ने प्रकृति से इस दृश्यमान सम्पूर्ण कार्य जगत् की रचना की, इस में उसे बाह्य साधनों की कुछ भी आवश्यकता नहीं, इसी प्रकार वेदज्ञान का प्रकाश भी ईश्वर ने ऋषियों के हृदयों में एक दम कर दिया। उसी ज्ञान में जीवसम्बन्धी सभी आवश्यक ज्ञान था और उसी में व्यवहार की भाषा अर्थात् देववाणी के सभी नित्य शब्दार्थ सम्बन्धों को भी पुनः प्रकाशित कर दिया। सब ऋषि-मुनियों का यही सिद्धान्त है –
🔥पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् (योग सू० १।२६)।
योगदर्शन के इस सूत्र का यही अभिप्राय है कि परमात्मा सबका आदिगुरु है, आदि उपदेष्टा है। उसी ने वेदज्ञान का प्रकाश वा उपदेश
किया।
कई महानुभावों का मत है कि सृष्टि की उत्पत्ति में वेद का स्थान मनुष्य की उत्पत्ति से पहले है, पुरुषसूक्त में वेद की उत्पत्ति का वर्णन मनुष्योत्पत्ति से पहिले मिलता है। वे यह भी कहते हैं कि प्रकृति में वर्तमान वेपनों (कम्पनों) के द्वारा उत्पन्न परिणामों की क्रमिक अवस्था का अनुभव वेद है । वेपन (कम्पन)ही शब्द का स्वरूप है । अव्यक्त शब्दों का ऋमिक प्रतिबोध आदि-मनुष्यों के अन्तःकरण में हुआ और वे अन्दर नादरूप में आये, फिर स्थान-प्रयत्न द्वारा प्रकाशित हुये।
यह पक्ष ठीक नहीं । सृष्टि की उत्पत्ति में वेद मनुष्यों से पहले हुये (ईश्वर के ज्ञान में तो थे ही, उनका प्रकाश तो तभी कहा जायगा जब जीवों तक पहुंचे), ऐसा नहीं । पुरुषसूक्त में केवल पदार्थों की उत्पत्ति का वर्णन हम पाते हैं। वहाँ क्रम से यह तात्पर्य नहीं कि घोड़ों के पश्चात् भेड़, बकरियाँ पैदा हुईं, अपितु ये सब उस अनन्त-सामर्थ्य जगदीश्वर से ही उत्पन्न होते हैं, इतना ही अभिप्राय है ।
यदि शब्द अनित्य हो तो वेपन घट सकता है। शब्द के नित्यत्व में ऋषि-मुनि एकमत हैं । हाँ नित्य शब्द में प्रकाश होना घट सकता है।
नाद होकर प्रकाशित होना भी इसलिये ठीक नहीं कि शब्द की उत्पत्ति के विज्ञान को बतानेवाले ऋषियों ने कहा है कि
🔥”प्राकाशवायुप्रभवः शरीरात समुच्चरन् वक्त्रमुपैति नादः।
स्थानान्तरेषु प्रविभज्यमानो वर्णत्वमागच्छति यः स शब्दः॥”
(पाणिनीयशिक्षा)
अर्थात् आकाश और वायु का संयोग होता है, फिर वह वायु शरीर से ऊर्ध्वभाग में ऊपर को उठता हुआ मुख में पहुंचता है, उसे ‘नाद’ कहते हैं, और वह नाद भिन्न-भिन्न स्थानों में विभक्त होकर वर्णभाव को प्राप्त होता है, अर्थात् शब्द का रूप धारण करता है। यदि केवल यही उपयुक्त वाक्य होता, तब तो वेपनों द्वारा नाद की उत्पत्ति होकर शब्द उत्पन्न हो जाने का सिद्धान्त माना जा सकता था, परन्तु उपर्युक्त सूत्र के साथ ही दूसरा सूत्र है, जो शब्दोत्पति के इससे भी पूर्व अर्थात् वेपन से भी पूर्व के सिद्धान्त को बहुत उत्तम रीति से बतलाता है । वह कहता है
🔥’आत्मा बुद्धया समेत्यार्थान् मनो युङ्क्ते विवक्षया।
मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम्॥……”
(पा०शि०’)[१]
⚠️- – ध्यान दें❗️- -⚠️
💎१. यह पाठ शिक्षा के नाम से चिरकाल से व्यवहृत है। तद्यथा-नागेश लघुमञ्जूषा पृ० ११८
🔥आत्मा बुद्धया समेत्यार्थाम् मनो युक्त विवक्षया।
मन: कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम् इति शिक्षायामपि।”
⚠️- – – – – – – -⚠️
आत्मा बुद्धि से अर्थों को सञ्चित (संगहीत, इकट्ठा) करके मन को कहने की इच्छा से प्रेरित करता है। मन शरीराग्नि को उत्तेजना देता है। वह आगे फिर वायु को प्रेरित करता है। वह आगे शब्द का जनक होता है।
कहने का अभिप्राय यह है कि वेपन से पूर्ववर्ती क्रियायें क्या-क्या होनी अनिवार्य हैं, यह विचारना होगा। ऐसी अवस्था में विचारने से पता लगता है कि जब तक पहले बुद्धि (ज्ञान) न हो, वेपन अर्थात् लहरें ही उत्पन्न नहीं हो सकतीं, क्योंकि 🔥”आत्मा बुद्धया समेत्यार्थान्” के अनुसार आत्मा का बुद्धि द्वारा अर्थों को पहले इकट्ठा करना अनिवार्य है, अर्थात् उनके विना वेपन का प्रादुर्भाव ही असम्भव है। होंगे भी तो उन का समन्वय किस से होगा? अर्थात् यदि उस समय आदि सृष्टि में परमात्मगत बुद्धि (ज्ञान) मात्र ही होगा और केवल उसी की प्रेरणा रहेगी तो फिर जीवों में स्वाभाविक ज्ञान का तो प्रभाव ही रहेगा। आगे की ज्ञानवद्धि की प्रक्रिया जीवों में कैसे चलेगी? क्योंकि सब जीवों को एक जैसा ज्ञान वेपन द्वारा प्राप्त होने पर भी, उस ज्ञान का ग्रहण अर्थात् धारण तो एक जैसा कभी नहीं हो सकता।[२] कहने का भाव यह है कि ज्ञानवृद्धि की प्रक्रिया प्रारम्भ से ही माननी पड़ेगी। पदार्थों का और बुद्धि (ज्ञान) का होना प्रारम्भ में ही आवश्यक है। तभी 🔥“आत्मा बुद्धया समेत्यार्थान्” की प्रक्रिया बन सकती है। भाषा की उत्पत्ति भी इसी प्रक्रिया से ही हो सकती है। विना निमित्तज्ञान के यह व्यवस्था नहीं चल सकती, यह हम पूर्व कह पाये हैं । इसलिये यह वेपनों वाली प्रक्रिया ठीक नहीं। ठीक प्रक्रिया यही हो सकती है, कि आदि सृष्टि में जीवों का जो स्वाभाविक ज्ञान था, उसी में जगदीश्वर द्वारा नैमित्तिक ज्ञान का पुट दिया गया। “पूर्वेषामपि गुरुः०” शास्त्र के इस पूर्वोक्त वचन के अनुसार परमात्मा ने ही ज्ञान तथा भाषा का प्रकाश आदि ऋषियों के हृदयों में किया और आगे उन्होंने ही सब जीवों को ज्ञान तथा भाषा का उपदेश किया, जैसा कि पूर्व कह पाये हैं ।
⚠️- – ध्यान दें❗️- -⚠️
💎२. क्योंकि वेपन तो जड़ है। वेपनपक्ष में जीवों में तो स्वाभाविक ज्ञान है नहीं, वह तो वेपन से ही उत्पन्न होगा। सो नैमित्तिक जान सब जीवों का समान होगा । पर नैमित्तिक ज्ञान तो वर्तमान में असमान है, जो प्रत्यक्ष है। सृष्टि के प्रारम्भ में भी हमारे पक्ष में जीवों के पूर्वसंचित कर्मों का फल बुद्धि आदि होने से वह नैमित्तिकज्ञान भिन्न-भिन्न रहता है।
⚠️- – – – – – – -⚠️
इसलिये वेपन (कंपन) द्वारा नाद की उत्पत्ति होकर वेद का ज्ञान उत्पन्न हुआ, यह विचार युक्तिसङ्गत नहीं ठहरता, न ही ऋषि-मुनियों की प्रक्रिया के अनुकूल बैठता है।
हाँ! एक बात विचारने योग्य शेष रह जाती है, वह यह कि जब सर्गारम्भ में वेदज्ञान का प्रकाश एक जैसा हुआ, तो सब मनुष्यों को ही ज्ञान क्यों न हो गया, और चार ही ऋषियों को वह ज्ञान क्यों हुआ? क्यों न मान लिया जावे कि जो-जो भी उस ज्ञान के धारण करने योग्य बुद्धि रखते थे, उन सबको ही (जो चार ही नहीं थे, अपितु अनेक थे) यह सब ज्ञान हुआ ? । यह शङ्का स्वभावत: प्रत्येक विचारशील के हृदय में उत्पन्न होनी अनिवार्य है। हमारे सामने इतना ही है कि शतपथ ब्राह्मण के 🔥”अग्ने. ऋग्वेदः, वायोर्यजुर्वेदः, सूर्यात सामवेदः” (शत० ११।५।८।३) तथा मानव धर्मशास्त्र के 🔥”अग्निवायुरविभ्यस्तु वयं ब्रह्म सनातनम् । दुदोह यज्ञसिद्धयर्थमृग्यजुःसामलक्षणम् ॥” मनु. १।२३॥ इन वचनों से अग्नि वायु-आदित्य अङ्गिरा से वेदों का प्रकाश हुआ। इस विषय में हमें यह शब्दप्रमाण ही मिलता है। सृष्टि के आदि का विस्तृत इतिहास तो है नहीं, जिसे कोई उपस्थित कर सके । शब्दप्रमाण जिसे ऋषि-मुनि सदा से मानते चले आये, हम भी उसी के आश्रय से ही कह सकते हैं कि हमारा इन चार ऋषियों को वेद का आविर्भावक कहना हमारी अपनी कपोल कल्पना नहीं, अपितु शास्त्र के आधार पर है। यदि हम किञ्चित् बुद्धि से भी विचार करें तो यही प्रतीत होता है कि परमात्मा के द्वारा वेद का ज्ञान, चाहे उसका रूप कुछ भी हो, सर्गारम्भ में जीवों को नैमित्तिक ज्ञान के रूप में अवश्य मिलना चाहिये। यदि सबको ही प्रकाश दिया, जैसा कि सूर्य का प्रकाश, और फिर उन आदि जीवों ने अपने में जिन चार को सर्वोत्कृष्ट समझा, उनको प्रमाणीभूत मानकर उनके आगे सिर झुका दिया और सर्वोच्च चार आत्माओं के ज्ञान से ही अपने ज्ञान को परीक्षित करने लगे। जैसे एक श्रेणी में अनेक छात्र एक साथ पाठ पढ़न पर अपने में योग्यतम छात्र को मुख्य मानकर अर्थात प्रमाण वा कसौटी मानकर अपने पढ़े हुये वा जाने हुये विषय के ज्ञान की परीक्षा या मान्यता स्वीकार करते हैं। यद्यपि इसमें कुछ आपत्ति नहीं, परन्तु जब शेष सबमें ग्रहण वा धारण करने की शक्ति ही नहीं थी, तो उन्हें वह ज्ञान प्रारम्भ में स्वयं मिले, इसकी आवश्यकता ही क्या है ? अतः इस विषय की सर्वोत्तम प्रक्रिया यही है कि सर्गारम्भ में प्रभु ने एक साथ ज्ञान का प्रकाश चारों ऋषियों के हृदयों में दे दिया, जो मुक्ति की अवधि समाप्त कर पूर्व से ही इस ज्ञान के पात्र होकर इस सृष्टि में आये थे। क्योंकि उनमें ही ग्रहण और धारण करने की शक्ति सबसे उत्कृष्ट थी। उन्हें इसीलिये यह ज्ञान दिया ताकि किसी भी अवस्था में उसमें किसी न्यूनता की सम्भावना ही न रह जावे । ज्ञान का प्रकाश हो जाने पर आगे उन्होंने ही सब ज्ञान जीवों को दिया, और तत्सम्बन्धी सब कुछ बतला दिया। यही प्रक्रिया सर्वोत्कृष्ट और सुसङ्गत है, क्योंकि वेद ने भी तो 🔥”अन्वविन्दन् ऋषिषु प्रविष्टाम्” (ऋ० १०।७१।३) कहा है, जिसका अर्थ यही है कि वेदवाणी पहले ऋषियों के हृदय में प्रकाशित होती है, मनुष्य लोग उसको पीछे प्राप्त करते वा कर सकते हैं, क्योंकि उससे पूर्व उनमें उसके ग्रहण वा धारण की शक्ति ही नहीं होती।
प्रकृतविषय में एक विचार और उपस्थित करना भी अराङ्गत न होगा। कोई-कोई महानुभाव यह कहते हैं कि सृष्टि के आदि में केवल एक विद्वान् को सम्पूर्ण वेद का ज्ञान मिला, और वह अग्नि था। वे अपने पक्ष की सिद्धि में ऋग्वेद का यह मन्त्र उपस्थित करते हैं
🔥अग्निजीगार तमृचः कामयन्ते अग्निजीगार तमु सामानि यन्ति।
अग्निजीगार तमचं सोम प्राह तवाहमस्मि सख्ये न्यौकाः॥
ऋ० ५।४४।१५॥
उनके कथन का सार इतना ही है कि अग्नि जागता है, उसे ही ऋचायें प्राप्त होती हैं, सामगानादि उसी की कामना करते हैं।
उन महानुभावों की सेवा में हम विनम्र निवेदन करेंगे कि यह भूल “अग्नि” शब्द के अर्थ पर गम्भीर विचार न करने से हो रही है। हम समझते हैं कि ‘अग्नि’ शब्द का अर्थ केवल ‘भौतिक अग्नि’ या ‘अग्नि’ नाम का कोई व्यक्ति विशेष (Proper Name) ही हो, यह बात नहीं। यह धारणा इस युग के प्रवर्तक ऋषि दयानन्द के पुण्य प्रताप से हट चुकी है । अनेक प्रौढ़ विद्वान् समझे जानेवाले व्यक्तियों ने अग्नि से परमात्मा-विद्वान्-राजा-वैद्य-नेता आदि अनेक अर्थों को स्वीकार किया है (देखो यही यजुर्वेदभाष्य वि. पृ० ४७ टि० १) जिसके विषय में हम आगे चल कर अधिक विचार कर सकेंगे। यहाँ हमको इतना ही कहना है कि ‘अग्नि’ का अर्थ “नेता’ विद्वान् भी होता है। निरुक्तकार यास्कमुनि कहते हैं
🔥”अग्निः कस्मादग्रणीभवति……….विभ्य प्राख्यातेभ्यो जायत इति शाकपूणिरितादक्ताद् दग्धाद्वा नीतात्” । निरु० ७।१४॥
जब हमने समझ लिया कि ‘अग्नि’ का अर्थ विद्वान् भी है, तो देखें ऊपर वाले वेदमन्त्र की सङ्गति कैसी सुन्दर और बुद्धिग्राह्य बैठती है! अग्नि अर्थात् विद्वान् जागता है। ऋचार्य उसी की कामना करती हैं, उसी को साम प्राप्त होते हैं इत्यादि । विद्वान् ही जागता है, वह वेद के तत्त्व को यथावत् जान सकता है, विद्वानों के हृदय में ही वेद का ठीक-ठीक प्रकाश होता है। वेदमन्त्रों के गान का विज्ञान भी उन्हें ही ठीक-ठीक प्राप्त होता है। 🔥”जागत्ति को वा सदसद्विवेकी” जागता कौन है, जो सत् असत् को विवेकबुद्धि के द्वारा परीक्षण कर सकता है। ऐसा विद्वान ही ऋचाओं के यथावत् अभिप्राय को समझ सकता है। वेद के इस मन्त्र में कसा सुन्दर हृदयग्राह्य भावपूर्ण वर्णन है !! यह कहाँ से पा गया कि ‘अग्नि’ किसी व्यक्ति-विशेष का नाम है ? वेद में आये अनेकों विशेषण ही इस बात के विरुद्ध प्रबल प्रमाण हैं।
अतः सर्गारम्भ में वेदों का प्रकाश चार ऋषियों द्वारा हुआ, यही बात सर्वोत्तम, शास्त्रसम्मत और बुद्धिग्राह्य है। इसमें सन्देह करने का कोई स्थान नहीं रह जाता।
✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
(जन्म- १४ अक्तूबर १८९२, मृत्यु- २२ दिसम्बर १९६४)
प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’