गतांक से आगे….
संसार में हमारे मनीषियों ने बलों को निम्न पांच श्रेणियों में रखा है:-
1. कुल-बल अर्थात पिता, पितामह संबंधी स्वाभाविक बल
2. अमात्य-बल अर्थात हितकारी मंत्री अथवा मित्र का होना।
3. धन बल अर्थात धन दौलत की प्रचुरता
4. शारीरिक बल अर्थात बाहुबल
5. बुद्घि बल अर्थात प्रज्ञाबल
उपरोक्त पांचों प्रकार के बलों में सर्वश्रेष्ठ बल-बुद्घि का बल कहा जाता है। इसे महर्षि सांख्य ने ‘सांख्य दर्शन’ में महत कहा है जबकि महर्षि पतंजलि ने ‘योग दर्शन’ में इसे चित्त कहा है। ध्यान रहे, सृष्टि के आरम्भ में सबसे पहले उत्पत्ति महत की ही हुई थी।
आयु राजा स्त्री,
सर्प शत्रु और भोग।
इनसे सदा चौकस रहो,
कहते विद्वत्त लोग ।। 777।।
भाव यह है कि ये सभी अति चंचल स्वभाव के होते हैं, इसलिए इनसे सर्वदा सावधान रहो।
काष्ठ की अग्नि काष्ठ को,
कोयला देय बनाय।
क्रोधाग्नि भी मनुष्य को,
भीतर-भीतर खाय ।। 778।।
चिन्ता चित्त को चाटती,
ज्यों दीमक खाय पेड़।
उमर जवानी की लगै,
पर चेहरा करै अधेड़ ।। 779।।
आश्रितों का हित करै,
और हृदय में सदभाव।
मधुरवाक और अनीर्षु,
है कोई संत स्वभाव ।। 780।।
मधुरवाक-मीठा बोलने वाला
अनीर्षु – ईष्र्या न करने वाला
गृह लक्ष्मी हों स्त्रियां,
दो रक्षण और सम्मान।
बिन गृहिणी के घर लगै,
जैसे कोई शमशान ।। 781।।
बाल वृद्घ रोगी जहां,
विधवा और मेहमान।
तिरस्कृत जो इनको करै,
टिकै न ‘श्री’ सम्मान ।। 782।।
रसोई व्यवस्था मां करै,
पिता देखे घर-बार।
स्वयं संभालै खेती को,
भृत्यों से व्यापार ।। 783।।
भृत्यों-सेवकों
अग्नि का जल मूल है,
लोहे का पाषाण।
निज मूल में शांत हों,
ऐसा विधि-विधान ।। 784।।
भाव यह है कि जल से अग्नि और पाषाण से लौह की उत्पत्ति होती है। जिस प्रकार अग्नि अपने मूल स्रोत जल में जाकर शांत हो जाती है, ठीक इसी प्रकार हे मनुष्य! तेरी आत्मा आनंद लोक से आयी है। इसे भी शांति आनंदलोक (भगवद्धाम) में पहुंचकर ही प्राप्त होगी क्योंकि इसका मूल स्रोत – आनंद लोक ही है।
हृदय में यदि प्रेम हो,
तो नेत्र प्रकट कर देय।
नेत्र में आया प्रेम तो,
हृदय उत्कट कर देय ।। 785।।
क्रमश: