अनुराग भारद्वाज
मैं: ‘अच्छा बताओ. हम क्या बोलते हैं? अशोक महान था या अशोक महान थे?’
वह: ‘एक ही बात है.’
मैं: फिर भी…अक्सर क्या बोला जाता है?’
वह: ‘अशोक महान था.’
मैं: ‘अकबर महान था? या अकबर महान थे?’
वह: ‘फिर वही बात? अकबर भी महान ही था, भाई! हर एक के लिए ऐसे ही बोला जाता है।’
मैं: ‘शिवा भोंसले वीर था या शिवा भोंसले वीर थे?’
वह: लगभग खीजते हुए… ‘कौन शिवा भौंसले…?’
मैं: ‘शिवाजी के लिए पूछ रहा हूं.’
वह: ‘ज़ाहिर सी बात है, शिवाजी वीर थे।’
हम दोनों सोचने लग गए।
ऐसा क्या है कि अशोक और अकबर के साथ हम ‘था’ लगाते हैं और शिवाजी के साथ ‘थे’।दूसरी तरफ़ कुछ इतिहासकार शिवाजी को ‘हिंदुस्तान का मंगोल’, ‘लुटेरा’ और ‘हत्यारा’ तक कह देते हैं। कुछ हद तक यह बात सही भी है क्योंकि उन्होंने लूटपाट तो काफी मचाई थी।फिर उनके प्रति इतने सम्मान की वजह?
दरअसल, शिवाजी हमारे जनमानस में पैठ कर गए हैं। यदुनाथ सरकार ने अपनी किताब, ‘शिवाजी एंड हिज टाइम्स’ में लिखा है, ‘शिवाजी ने अपने उदाहरण से साबित किया कि हिंदू जाति भी एक राष्ट्र का निर्माण कर सकती है।राज्य बना सकती है।दुश्मनों को हरा सकती है।ख़ुद अपनी रक्षा कर सकती है। वह कला और साहित्य की रक्षा ही नहीं वरन संवर्धन भी कर सकती है।वह जल सेना भी बना सकती है और पूरी ताक़त से समुद्र में बराबरी की लड़ाई लड़ सकती है।शिवाजी ने आधुनिक हिंदुओं को आगे बढ़ना सिखाया है।’
आज जो ‘मराठा’ शब्द एक गर्व का प्रतीक बन गया है, पहले ऐसा नहीं था।उन्नीसवीं शताब्दी के पहले तक ब्राह्मण समुदाय अपने आपको ‘मराठा’ कहलाने में अपमान समझता था।यह गर्व शिवाजी भोंसले की ही देन है। आइये, उनकी जिंदगी से जुड़े कुछ अहम् पड़ाव आज फिर पीछे जाकर देखते हैं कि यह सब कैसे हुआ?
मराठों का चरित्र और कठिन भौगोलिक परिस्थितियां
दक्खन का पठार नदियों और जंगलों का जाल है।आज से कोई 500 साल पहले उत्तर में ताप्ती, पूर्व में सीना और दक्षिण में कृष्णा नदियों के बीच का वह इलाका जो सतारा, पूना, नासिक, औरंगाबाद के कुछ हिस्से, अहमदनगर और शोलापुर को मिलाकर बनता है, उसे महाराष्ट्र कहा जाता था।उस समय यहां पर दो जातियां ‘तथाकथित’ तौर पर नीची मानी जाती थीं – मराठा और कुनबी।मराठा स्वभाव से ही स्वछंद रहने वाले थे और देश की भोगौलिक परिस्थितयों का फ़ायदा उठाना भी बखूबी जानते थे।कुनबी आमतौर पर किसान थे।ह्वेन त्सांग ने महाराष्ट्र प्रांत के लोगों के लिए लिखा है – ‘ये लोग गर्वीले, लड़ाके, अहसान मानने वाले, लोगों की मदद करने के लिए खुद को मिटा देने की ज़िद रखने वाले और दुश्मनों पर बोलकर हमला करने वाले लोग हैं.।इन लोगों में जीवट कमाल का है।’
बाद के आने वाले 1000 सालों में इनका चरित्र कुछ हद तक बदल गया।इनमें वीरता और बलिदान का ज़ज्बा तो वही रहा पर परिस्थितियों ने इन्हें कुटिल और चालाक भी बना दिया था। अब ये पहले बोलकर दुश्मन पर हमला नहीं करते थे।इसके पीछे शायद कारण यह रहा कि बाहर से आने वाली ताक़तों ने इन्हें कोंकण घाट तक ही समेट दिया था।जीवन के साधन पहले कम थे, अब और भी कम हो गए थे। लिहाज़ा मराठाओं को अपना वजूद बचाए रखने के लिए तेज और खूंखार बनना ही पड़ा। शिवाजी इसके अपवाद नही थे।वे 19 साल से कम उम्र में ही एक कुशल लड़ाके बन गए थे और मवाली, कुनबी लोगों के साथ मिलकर आसपास की जागीरें लूट लिया करते थे।
शिवाजी की खिचड़ी सेना और छापामार लड़ाई
शिवाजी से कुछ साल पहले मलिक अंबर नाम के एक जागीरदार ने मुग़लों से लोहा लेना शुरू कर दिया था।जहां मलिक ने अहमदनगर की सेना का सहारा लिया था, वहीँ शिवाजी के पास कोई प्रशिक्षित सेना नहीं थी. यह बात उन्हें देश के बाकी लड़ाकों-शासकों से और भी अलग कर देती थी।उन्होंने बस कुनबी, मवाली, मराठे, आदि जातियों के लोगों को इकठ्ठा कर उन्हें लड़ना सिखा दिया था. ये लोग अपने आसपास की भोगौलिक परिस्तिथियों को अच्छे से पहचानते थे, पहाड़ी जीवन ने इनमें जीवट भर दिया था।इन्हें शिवाजी ने एक नयी पहचान दी और बाद में यही लोग उनकी ताक़त बने।
उनकी छापामार लड़ाई मुगल सेना पर अक्सर भारी पड़ती थी। मुग़ल – जिनके पास अकूत धन-दौलत और साधन थे – महाराष्ट्र में आकर अक्सर बेकार और नाक़ाबिल साबित रहते। पहाड़ों में छुपे सैनिक, पेड़ों पर बैठे आदिवासी. कौन, कब कहां से वार कर दे, पता ही नहीं चलता था. यदि किसी जंग में शिवाजी के लड़ाके अपने को थोड़ा कमजोर महसूस करते तो पहाड़ों और जंगलों में गायब हो जाते थे। कुल मिलाकर इनका तो कम लेकिन दुश्मनों का नुकसान ज़्यादा होता था. नटवर सिंह ने अपनी किताब ‘महाराजा सूरजमल’ में लिखा है – ‘शिवाजी की सफलता का सबसे बड़ा कारण था कि उनकी सेना कम से कम सामान लेकर चलती थी और उन्होंने नियम बना दिया था कि अगर कोई युद्ध शिविर में किसी महिला को लेकर आया तो उसे मार दिया जाएगा.’
शिवाजी के अवसरवादी राजनैतिक समीकरण
जब आप हर तरफ से दुश्मनों से घिरे हुए हों और उनके मुक़ाबले कमज़ोर हों तब जाहिर है कि आप साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाते हैं।शिवाजी ने भी यही किया।उनके उत्तर में मुग़ल, दक्षिण में गोलकुंडा और बीजापुर समेत उत्तर-पश्चिम में ईस्ट इंडिया कंपनी थे।मतलब ‘बत्तीस दांतों के बीच में जीभ’ वाली हालत थी। अब ऐसे हालातों में लड़ाई के अलावा राजनैतिक और कूटनैतिक समीकरण काफी अहम हो जाते हैं।ऐसे में शिवाजी मौके की नज़ाकत को समझते हुए कभी अपने पिता शाहजी भोंसले को आदिल शाह से बचाने के लिए मुग़लों से मिल जाते हैं तो कभी बीजापुर के लिए मुग़लों से लड़ भी लेते हैं। जरूरत पड़ने पर वे उसी औरंगजेब को चिट्ठी लिखकर संधि की बात करते हैं और पांच हजारी जागीरदार बनने पर राज़ी हो जाते हैं, जिसके साथ उन्होंने तकरीबन 18 छोटी-बड़ी लड़ाईयां लड़ी थीं।
शिवाजी के नेतृत्व में मराठा युद्ध में जान देने की बेवकूफी से बचते थे। जीत गए तो लूटपाट और अगर हारने लगे तो भाग खड़े हुए और कभी-कभी उन्ही से संधि कर ली, जिनके साथ लडते थे! उन्होंने सूरत में अग्रेजों की फैक्ट्री लूट ली थी और संधि के नाम पर उन्हें मात्र 20000 रुपये देने को राज़ी हुए, जबकि नुकसान लाखों का किया था।जंग हो या संधि फायदा शिवाजी का ही होता था। कुल मिलाकर कहा जाए तो वे कूटनीतिक समझ से काम लेते थे।
अफ़ज़ल खान की हत्या, शाइस्ता खान को मात और सूरत की लूट
बीजापुर के शासक आदिल शाह के सेनापति अफ़ज़ल खान की हत्या को शिवाजी का सबसे बड़ा साहसिक कदम माना जाता है। उस वक्त शिवाजी ने बीजापुर में आतंक मचा रखा था।जब आदिल शाह ने अफज़ल खान को उनसे संधि करने के लिए भेजा तब जगह, दिन और व्यवस्था सब शिवाजी ने तय की। तयशुदा दिन दोनों मिले और जैसे ही गले लगे शिवाजी ने अपनी ‘बघ-नख’ से उसका पेट फाड़ डाला और उनके छुपे हुए सैनिकों ने अफ़ज़ल की सेना को ख़त्म कर दिया. ग्रांट डफ़ इसे शिवाजी का षड्यंत्र मानकर लिखते हैं कि अफ़ज़ल उस वक़्त निहत्था था।पर यदुनाथ का मानना है कि अफ़ज़ल खान भी शिवाजी को मारना ही चाहता था. उन्होंने लिखा हैं कि अफ़ज़ल कद काठी में शिवाजी पर भारी पड़ता था। गले मिलते वक़्त उसने शिवाजी को तलवार से मारने की कोशिश की पर कपड़ों के अंदर पहने बख्तरबंद ने अफज़ल के प्रयास को विफल कर दिया और शिवाजी ने उसे मार डाला. हालांकि ऐसा सोचना मुश्किल नहीं है कि अगर अफजल शिवाजी को मारने का प्रयास न भी करता तब भी वह मारा ही जाता। शिवाजी के लिए जंग में सब जायज़ था।
ठीक इसी प्रकार उन्होंने रमजान के महीने में सिर्फ 200 सैनिकों के साथ औरंगजेब के मामा शाइस्ता खान के हरम में चुपके से घुसकर उसे मारने का प्रयास किया था।रमजान होने के कारण दिन भर के भूखे-प्यासे सैनिक निढाल हो जाते थे।इस हमले में शाइस्ता खान बच तो गया पर उसके हाथ का अंगूठा कट गया था और उसके दो बेटे और कई सैनिक मारे गए।ये मुग़लों के गाल पर एक बहुत बड़ा तमाचा था। इन दोनों घटनाओं ने हिंदुस्तान के जनमानस पर गहरा असर डाला और लोग शिवाजी को हिंदू धर्म का रक्षक मानने लगे थे।बहुत संभव कि उनके ज़ेहन में आदिल शाह के हिंदुओं के प्रति दोयम दर्ज़े के व्यवहार ने गहरा असर डाला था। हालांकि शिवाजी ने भी इस समय तक ख़ुद को हिंदुओं के संरक्षक तौर पर देखना शुरू कर दिया था, यह कहना मुश्किल है.
जनवरी 1664 के पहले महीने में उन्होंने सूरत शहर को लूटा। इनायत खान एक कमज़ोर गवर्नर था। शिवाजी के आने की खबर सुनकर वह भाग खड़ा हुआ।वहां अंग्रेज़ और डच लोगों के कारखाने थे (याद दिला दूं कि सर थॉमस रो ने जहांगीर से इजाज़त लेने के बाद 1608 में पहली फैक्ट्री सूरत में लगायी थी)। जब उन्हें इनायत खान से कोई मदद नहीं मिली तब अपनी संपत्ति की रक्षा के लिए वे मराठों के सामने आ खड़े हुए. मराठों ने सूरत में जी भर के लूटपाट की और ग्रांट डफ़ लिखते हैं कि शिवाजी वहां से क़रीब एक करोड़ रुपये लेकर गए थे।
अब तक शिवाजी किवदंती बन चुके थे. कहा जाने लगा था कि उनके पास ऐसी शक्ति है जिससे वे एक साथ कई जगहों पर हो सकते हैं। हिंदुस्तान में शिवाजी का उत्कर्ष हो चुका था…
दो शेरों का सामना
1665 में औरंगज़ेब ने शाइस्ता खान और जोधपुर के राजा जसवंत सिंह को हटाकर आमेर (जयपुर) के राजा जय सिंह प्रथम को शिवाजी के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए भेज दिया. 60 साल के जय सिंह का युद्ध में शानदार इतिहास था। नौ जनवरी को जय सिंह ने अपना अभियान शुरू किया और एक महीने में वह पूना जा पंहुचा. जय सिंह कूटनीति में भी माहिर था. वह जानता था कि दक्कन में मराठों के ख़िलाफ़ लड़ना मुश्किल है. वहां कई धुरंधरों की इज्ज़त मिट्टी में मिल चुकी थी।लिहाज़ा उसने शिवाजी के सारे दुश्मनों को अपनी तरफ़ मिलाकर शिवाजी पर दवाब बना दिया और औरंगजेब को समुद्र के रास्ते शिवाजी पर हमला करने की रणनीति भी समझाई।जय सिंह ने युद्ध की कमान अपने हाथों में रखी और शिवाजी के विश्वासपात्रों को घूस देकर तोड़ लिया. तीन महीने की लड़ाई के बाद शिवाजी ने जय सिंह के सामने समर्पण कर दिया।मिर्ज़ा राजा जय सिंह ने उन्हें वीरोचित सम्मान दिया और दोनों के बीच पोरबंदर की संधि हो गयी. संधि के तहत शिवाजी को अपने 23 किले छोड़ने पड़े और अपने बेटे को औरंगजेब के दरबार में भेजना पड़ा।
पहली बार औरंगजेब-शिवाजी आमने सामने
जय सिंह ने शिवाजी को यह कहकर आगरा चलने के लिए राज़ी किया कि वह उन्हें मुग़लों की तरफ से दक्कन का गवर्नर बनवाने में मदद करेगा।इसके बाद वे औरंगज़ेब के पचासवें जन्मदिन के समारोह में शामिल होने आगरा गए।अपनी तरफ से उन्होंने बादशाह को 1500 सोने की मोहरें नज़र कीं और 6000 रुपये निसार (वारे) किए और जब औरंगज़ेब ने हेकड़ी से उन्हें आवाज़ दी – ‘आओ शिवाजी राजा!’. शिवाजी ने तीन सलाम किये और पीछे हट गए। अालमगीर यानी स्वघोषित विश्व विजेता के दरबार में उनको अन्य जागीरदारों के साथ जब खड़ा किया गया तो वे नाराज़ हो गए और उन्होंने औरंगजेब को भला-बुरा कह दिया। इससे नाराज होकर औरंगजेब ने शिवाजी और उनके बेटे को नज़रबंद कर दिया। ब्रिटिश इतिहासकर ग्रांट डफ़ लिखते हैं कि औरंगजेब शिवाजी को सम्मान स्वरुप हाथी और उपहार देना चाहता था लेकिन इससे पहले ही शिवाजी उखड़ गए थे।
तीन महीने नज़रबंद रहने के बाद एक दिन शिवाजी धोखे से फ़रार हो गए और आगरा से सीधे रायगढ़ मालवा न जाते हुए वे मथुरा, गया और गोलकुंडा के रास्ते वहां पहुंचे।यहां एक बात समझने की है कि जो औरंगज़ेब सत्ता के लिए अपने भाइयों को मार सकता था, उसने शिवाजी के हाथों इतनी बार बेइज्ज़त होने पर भी उनका क़त्ल क्यों नहीं करवाया! क्या इसके पीछे जय सिंह का शिवाजी को दिया हुआ वचन था? या फिर वह उन्हें मारकर हिंदुओं को अपने ख़िलाफ़ नहीं करना चाहता था? जय सिंह ने बादशाह को यह भी समझाया था कि शिवाजी को साथ रखकर गोलकुंडा और बीजापुर को कब्ज़े में लिया जा सकता है. शिवाजी का इस तरह यों बचकर निकल जाना लोगों के ऊपर एक और छाप छोड़ जाता है।
शिवाजी का राज्याभिषेक
शिवाजी रायगढ़ पहुंचकर कुछ दिन खामोश बैठे और इस बीच उन्होंने अपने पुराने किलों की मरम्मत करवाई।उन्होंने कुछ समय के लिए मुग़लों से दुबारा संधि कर ली।यह हैरतअंगेज़ नहीं है क्योंकि औरंगजेब भी जानता था कि शिवाजी से बार-बार की जंग उसे थका रही थी और वह दक्कन के अलावा कहीं और अपना ध्यान नहीं लगा पा रहा था। संधि के तहत उन्हें राजा की पदवी दी गयी। लेकिन एक बात जो अब उन्हें खटक रही थी वह यह कि पदवी मिलने के बाद भी उनके पास कोई ख़ास अधिकार नहीं थे: न तो वे किसी राज्य से संधि कर सकते थे, न किसी को जागीर दे सकते थे।उधर रियाया भी पशोपेश में थी कि अगर कभी औरंगजेब ने जंग में शिवाजी को हरा दिया तो क्या मुग़लिया सेना उन्हें(जनता) तंग नहीं करेगी? इधर शिवाजी भी अन्य जातियों पर अपना वर्चस्व दिखाना चाहते थे।और एक बात, महाराष्ट्र के तथाकथित उच्चकुल के लोग अब किसी हिंदू राजा का उदय देखना चाहते थे जो हिंदुओं को उनका खोया हुआ सम्मान दिला सके। उन्हें कोई हिंदू छत्रपति चाहिए था।
लेकिन शिवाजी के राज्याभिषेक में एक समस्या थी – शिवाजी क्षत्रिय नहीं थे और भारतीय शास्त्रों के अनुसार कोई क्षत्रिय ही राजा बन सकता था।इसका हल भी ढूंढ़ा गया। बनारस से गाग भट्ट नाम के ब्राह्मण को बुलावा भेजा गया और उसे खुश किया गया। गाग भट्ट ने शिवाजी की वंशावली को मेवाड के राजपूतों से जोड़कर उन्हें एक ऐसे उच्च कुल का क्षत्रिय घोषित कर दिया जो ख़ुद को भगवान रामचंद्र के वंशज मानता था. 6 जून, 1674 को वो हिंदू सम्राट छत्रपति शिवाजी बन गए।
इस लेख को विराम देने से पहले हम उसी प्रश्न पर आते हैं जो इस लेख के पिछले हिस्से में उठाया गया था. शिवाजी वीर थे या एक लुटेरे? बंबर गस्कोइग्ने ने अपनी क़िताब – ‘द ग्रेट मुग़ल्स’ – में लिखा है कि शिवाजी में एक चुंबकीय आकर्षण था जिसकी वजह से लोगों में 900 सालों से चले आ रहे विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने की इच्छा प्रबल हो गयी थी.’ हिंदुस्तान में उस वक़्त शिवाजी के अलावा और कोई मज़बूत विकल्प नहीं था। दूसरी बात आसपास के राज्यों को लूटना उनकी मजबूरी थी। मराठवाडा गंगा के मैदानों जैसा उर्वरक नहीं था।वहां आय के साधन कम थे और अगर बचे रहना था तो फिर आठ महीने लडाई करनी ही होती थी और बाकी के चार महीने खेती। आप अंत में इतिहास उठाकर देख लीजिये जब भी किसी व्यक्ति ने पहली बार राज्य की स्थापना की है तो लड़ाइयों और लूटपाट का ही सहारा लिया है।सिकंदर, चंद्रगुप्त मौर्य, बाबर, चंगेज़ खान, भरतपुर के जाट, पंजाब के सिख सबने यही किया है। अगर शिवाजी लुटेरे थे तो फिर बाकी सब भी उसी श्रेणी में आते हैं।
जो बात लेख के इस भाग में रह गयी वह यह कि कुछ बड़े इतिहासकारों और पुरानी मान्यता के मुताबिक उनका जन्म छह अप्रैल को हुआ था। हालांकि महाराष्ट्र सरकार इसे 19 फरवरी को मनाती है और वहां के कुछ लोग – हिंदी कलेंडर के हिसाब से – फाल्गुन की तृतीया को। शिवाजी की मृत्यु पांच अप्रैल को हुई थी।
(साभार)
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