“नेहरू के नेतृत्व में 1946 में बनने वाली अन्तरिम सरकार के मन्त्रियों की सुरक्षा”
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : एक प्रेरक प्रसंग____ (1)
_1946 में अन्तरिम सरकार बनाने के लिए कांग्रेस और मुस्लिम लीग में कोई समझौता नहीं हो सका, अतः मुस्लिम लीग ने अन्तरिम सरकार में शामिल होने से इंकार कर दिया। इस पर वाइसराय देवल ने बिना मुस्लिम लीग के ही जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनाने की घोषणा कर दी।
2सितम्बर 1946 को अन्तरिम सरकार के मन्त्रियों ने शपथ लेनी थी। उस दिन पं. नेहरू और उनकी सरकार के अन्य मनोनीत सदस्य शपथ-ग्रहण के लिए वाइसराय लॉज (अब राष्ट्रपति भवन) जा रहे थे। रास्ते में राजपथ पर दोनों तरफ खड़े मुस्लिम लीगी उनके विरुद्ध काले झण्डों से प्रदर्शन कर रहे थे और उग्र नारे लगा रहे थे।
_कुछ मुस्लिम लीगियों ने उनकी कारों पर सड़े अण्डों की बौछार कर दी। कुछ मनचलों ने तो नेहरू की कार के अन्दर जलती सिगरेट के टुकड़े भी फेंक दिए। शाम को एक कांग्रेसी मन्त्री सर शफात अहमद खों के ऊपर जान लेवा हमला भी हुआ।
_यह स्थिति अत्यन्त ही अपमानास्पद एवं भयावह थी और ऐसा रोज होने वाला था। इस पर विचार करने के लिए कुछ कांग्रेस नेता सरदार पटेल के निवास पर इकट्ठे हुए। पटेल बहुत क्षुब्ध थे। वे चाहते थे कि दिल्ली की कांग्रेस के लोग ही इसका कुछ इलाज करें। लेकिन उनमें साहस नहीं था। क्या किया जाए, यह किसी को कुछ सूझ नहीं रहा था।
वहाँ उपस्थित लोगों में एक कृष्णन नायर भी थे। वे उस समय गान्धीजी के साथ भंगी कालोनी में ही रह रहे थे। भंगी कालोनी के वाल्मीकि मन्दिर परिसर के जिन तीन कमरों में गान्धीजी उन दिनों रह रहे थे, वे तीनो कमरे वास्तव में संघ कार्यालय थे। गान्धीजी ने जब भंगी कालोनी (अब हरिजन बस्ती) में कुछ दिन के लिए रहने की इच्छा प्रकट की, तोवहीं रहने वाले संघ कार्यकर्ताओं ने वे कमरे उनके लिए खाली कर दिए थे। बिरलाजी ने उन संघ कार्यकर्ताओं के लिए उन्हीं तीन कमरों के पीछे तीन टैण्ट लगवा दिए और वे यहीं रहने लगे। वाल्मीकि मन्दिर परिसर में ही नित्य प्रातःकाल संघ शाखा भी लगती थी, जिसे कृष्णन् नायर रोज देखते थे।
कृष्णन नायर ने सरदार से कहा- “मुझे लगता है, इन लीगियों का इलाज संघ वाले कर सकते हैं, अगर उनसे कहा जाए तो” उनका समर्थन कुछ अन्य कांग्रेसियों ने भी किया। फलतः सरदार ने वहीं बैठे दिल्ली के प्रमुख नेता देशबन्धु गुप्ता को संघ अधिकारियों से सम्पर्क करने का निर्देश दिया।
देशबन्धु गुप्ता दिल्ली प्रान्त प्रचारक वसन्तराव ओक से मिले, उन्हें सारी स्थिति बतायी और इस स्थिति से पार होने का कोई उपाय करने लिए निवेदन किया। वसन्तरावजी ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि- “हम पूरी कोशिश करेंगे कि कल ऐसा न हो पाए, लेकिन इसके लिए आप से भी मुझे एक आश्वासन चाहिए।”
देशबन्धु-“क्या?”_
वसन्तराव- “आप यह अच्छी तरह जानते कि गुण्डागर्दी न तो उपदेशों से रोकी जा सकती है, न हाथ जोड़ने से उसके लिए कुछ करना पड़ता है। कल संघ के स्वयंसेवकों को वहाँ परिस्थिति के अनुसार जो भी कुछ करना पड़ेगा, वे करेंगे। लेकिन इसमें आपका ‘अहिंसा सिद्धान्त’ आड़े आ गया तो…?”_*
देशबन्धु — “बिल्कुल आड़े नहीं आएगा, आप विश्वास रखिए। इस बारे में वरिष्ठ नेताओं में चर्चा हो चुकी है, और उन्होंने ही तो मुझे आपके पास भेजा है।”
वसन्तराव—”तो ठीक है, आप निश्चित हो जाइए।”
अगले दिन 3 सितम्बर को पुनः मुस्लिम लीगी सुबह राजपथ पर विरोध प्रदर्शन के लिए इकट्ठे हुए।
लेकिन यह क्या?
प्रत्येक के दाएँ व बाएँ दो-दो संघ स्वयंसेवक खड़े थे। लीगियों को समझ आ गया कि जरा सी भी हरकत करने पर हमारी खैर नहीं।
उनकी हिम्मत ऐसी पस्त हुई कि मन्त्रियों के गुजरने पर कोई हिंसक वारदात करना तो दूर, उनके मुखों से ‘कांग्रेस मुर्दाबाद’ अथवा ‘नेहरू मुर्दाबाद’ की आवाज तक न निकल पायी और उनके प्रदर्शन बन्द हो गए।
साभार:पुस्तक:”विभाजनकालीन भारत के साक्षी”
(खण्ड 1:पृष्ठ संख्या 79-80)
लेखक _श्री कृष्णानन्द सागर जी
(संकलनकर्ता : विनोद कुमार सर्वोदय)