प्रधानमंत्री जी ! आर्थिक नीतियों पर पुनर्विचार आवश्यक है
1947 में जब देश आजाद हुआ था तो उस समय भारत की प्राचीन अर्थव्यवस्था को वर्तमान संदर्भ में प्रस्तुत करने के लिए विशेषज्ञों की एक समिति का गठन किया जाना अपेक्षित था। क्योंकि प्राचीन काल से ही भारत की अर्थव्यवस्था ग्राम केंद्रित रही है। इसके साथ ही गांवों को भारत में प्राचीन काल से ही एक स्वायत्तशासी संस्था के रूप में विकसित किया गया था। इसके अंतर्गत गांव का पानी गांव में रोककर उसी से सिंचाई करने की व्यवस्था होती थी। गांव में एक वैद्य होता था जो नि:स्वार्थ भाव से पूरे गांव की सेवा करता था ।एक अध्यापक होता था जो गुरुकुल चलाकर बच्चों को सुयोग्य और सुसंस्कारित बनाता था । गौ माता हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ होती थी। इसी को भारत की कृषि और ऋषि की अर्थव्यवस्था कहा जाता है।
इस प्रकार गांव को गुलाम ना बनाकर उसकी अपनी सरकार देने का भारत के राजनीतिक मनीषियों ने प्राचीन काल से ही महत्वपूर्ण और अनुकरणीय कार्य किया। इस्लामिक और ब्रिटिश काल में भारत की इस प्राचीन अर्थव्यवस्था को उजाड़ने का कार्य आरंभ हुआ। अंग्रेजों ने कलेक्टर और राजस्व विभाग के कर्मचारियों को गांव का खून चूसने के लिए नियुक्त किया और ग्राम की स्वतंत्रता को समाप्त कर दिया।
गमों के खून चूसने के इसी अमले को लेकर स्वतंत्र भारत की सरकारों ने भारत के लोगों की आजादी को छीनकर अपने हाथों में ले लिया। बहुत कम लोग इस ओर देख रहे हैं कि हम पूरी तरह सरकारी तंत्र पर निर्भर हो कर जी रहे हैं। नौकरीपेशा वर्ग तो निश्चित रूप से इस नई गुलामी की जकड़न में आ चुका है। यद्यपि वह पूरे जीवन यही सोचता रहता है कि उससे अधिक समृद्ध , संपन्न और प्रसन्न कोई नहीं है । पर वास्तविकता यह है कि वही सबसे अधिक अप्रसन्न और असंतुष्ट है। वह गांव के साधारण किसान की अपेक्षा भी पैसा नहीं जोड़ पाता।
इसका कारण यह है कि नौकरीपेशा वर्ग के पास दाल ,रोटी, कपड़ा, मकान में से कुछ भी अपना नहीं है। यहां तक कि उसे पानी, हवा और प्रकाश के लिए भी सरकार पर निर्भर होकर रहना पड़ता है। पिछले कोरोना काल के लॉकडाउन में मैं सोच रहा था कि यदि किसी कारण से हमारा पाकिस्तान से युद्ध हो जाए या किसी प्राकृतिक कारण से हमारी बिजली व्यवस्था पूरी तरह ठप्प हो जाए तो हमें पता चल जाएगा कि पानी, बिजली, हवा, प्रकाश ,दाल, रोटी, दूध आदि के लिए हम किस प्रकार किसी दूसरे पर अर्थात सरकारी तंत्र पर निर्भर होकर रह गए हैं ?
इसके विपरीत गांव का एक किसान आज भी अपने खेत में अपने लिए दाल, सब्जी, अन्न आदि उपजाता है। घर में दूध पैदा करता है। बिजली नहीं आए तो दिन में पेड़ों के नीचे आराम से सोता है और रात को खुले में सोता है। यह है – आजादी का जीवन। प्रकृति की विषमताओं से भी जिसमें जूझने की क्षमता है और व्यक्ति के द्वारा उत्पन्न की गई विषमताओं से भी जो जमकर संघर्ष कर सकती है। विषमताओं से संघर्ष करने वाली जीवनशैली ही इतिहास बनाती है। जिस जीवन शैली में संघर्ष करने का यह उत्साह ठंडा पड़ जाता है, वह समाप्त हो जाती है।
नौकरीपेशा वर्ग के लोगों को इस जीवनशैली ने न केवल उत्साह हीन बना दिया है बल्कि विलासी भी बना दिया है। यह स्थिति किसी भी देश और समाज के लिए भी उपयुक्त नहीं कही जा सकती। क्योंकि जिस देश का बहुत बड़ा वर्ग विलासी और उत्साह हीन हो गया हो, वह समाज या देश किसी अंधेरे भविष्य की ओर जा रहा होता है ।
नौकरी पेशा लोगों की जीवन शैली इस प्रकार की बना दी गई है कि वह इन दोनों ही विषमताओं से लड़ नहीं सकता। देश का यह वर्ग मानसिक रूप से गुलाम होकर रह गया है। उसके पास इतना समय नहीं कि वह प्रकृति की विषमताओं से जूझने के लिए अपने आपको प्रस्तुत कर सके। सारे दिन ऑफिस के कार्य से टूटकर जब वह घर आता है तो वह केवल आराम चाहता है। इस प्रकार की जीवन शैली ने उसे संघर्षों से पलायन करने वाला बना दिया है। जबकि एक किसान सारा दिन खेतों में मेहनत करके रात को भी खेत के काम से जंगल में जाकर काम करने की क्षमता रखता है और रात को काम करके दिन में फिर अपने कामों में जुट जाने का माद्दा रखता है। इसका कारण केवल एक है कि वह अपने काम को अपना समझता है। जिससे लड़ते रहना वह अपने लिए बहुत आवश्यक और महत्वपूर्ण मानता है। आजादी के बाद हम अपने नौकरीपेशा वर्ग के लोगों के भीतर हम इसी भाव को पैदा नहीं कर पाए कि वह जो कुछ कर रहा है उसे अपना मान सके।
यह बहुत ही सुखद संयोग है कि भारतवर्ष में आज भी ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले लोग गरीबी में रहकर भी आत्मिक संतोष और प्रसन्नता की अनुभूति करते हैं । उनके पास पैसा हो या ना हो पर प्रसन्नता अवश्य मिलती है। भारत में इस बात पर सर्वेक्षण होना चाहिए कि भारत का किसान मजदूर सुदूर गांवों में रहकर भी प्रसन्नता और आत्मिक संतोष की अनुभूति क्यों करता है? तथाकथित इंडिया में चमक दमक तो है परंतु प्रसन्नता नहीं है, जबकि देश में ही बसे वास्तविक भारत अर्थात ग्रामीण अंचल में संपन्नता समृद्धि चाहे ना हो परंतु प्रसन्नता अवश्य है।
इस ओर देश की सरकारों को अब तक देख लेना चाहिए था कि ऐसा क्यों हो रहा है ? और यदि ऐसा हो रहा है तो उसका लाभ उठाते हुए देश के नौकरीपेशा वर्ग के भीतर भी प्रसन्नता का भाव उत्पन्न करने की दिशा में ठोस कार्य नीति बनाई जाए।
देश का दुर्भाग्य रहा कि स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री बने पंडित जवाहरलाल नेहरू ने रूस की समाजवादी नीतियों का अनुकरण करते हुए भारत की अर्थव्यवस्था को कुछ उसी के अनुसार ढालने का प्रयास किया। अपनी इस प्रकार की नीतियों को लागू करते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भारत के अधिकांश उद्योगों को सरकारी नियंत्रण के अंतर्गत रखने के लिए कई प्रकार के नियम – उपनियम बनाए । इस प्रकार की नीतियों को कई अर्थशास्त्रियों ने लाइसेंस राज और इंस्पेक्टर राज कहकर उनका उपहास उड़ाया। इसके उपरांत भी पंडित जवाहरलाल नेहरू और उनके पश्चात उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने इस प्रकार के आलोचनात्मक दृष्टिकोण को कभी गंभीरता से नहीं लिया। नेहरू अपने आपको ‘बेताज का बादशाह’ मानते थे। यही कारण था कि वह तानाशाह होकर शासन चलाने के अभ्यासी थे। फलस्वरुप उन्होंने जो सोच लिया उसी को पत्थर की लकीर मान लिया। इस प्रकार के लाइसेंस राज के चलते बिजली, सड़कें, पानी, टेलीफोन, रेल यातायात, हवाई यातायात, होटल, इन सभी पर सरकारी नियंत्रण स्थापित किया गया। इस प्रकार की नीतियों पर काम करते हुए यह सुनिश्चित किया गया कि निजी क्षेत्र को इन उद्योगों में पूंजी निवेश करने की कोई अनुमति नहीं होगी और यदि अनुमति दी जाएगी तो वह नियंत्रित सीमा तक ही दी जाएगी। इस प्रकार की अर्थनीति ने देश में नई प्रकार की आर्थिक गुलामी का सूत्रपात किया। देश के लोग आजादी मिलने के उत्साह में यह आकलन करना तक भूल गए कि इन नीतियों का परिणाम क्या होगा ? और नौकरीपेशा वर्ग खड़ा करके सरकार किस प्रकार एक नई गुलामी के युग में देश को धकेलने की तैयारी कर रही है ? इतना ही नहीं, देश के लोग आज तक यह भी आकलन नहीं कर पाए कि केवल नौकरी के लिए बच्चों को पढ़ाने से हम गुलामों की फौज तैयार कर रहे हैं या फिर वास्तव में स्वतंत्र मस्तिष्क से स्वतंत्र निर्णय लेने वाले स्वतंत्र नागरिकों का निर्माण कर रहे हैं ?
विशेषज्ञों की यदि माने तो पता चलता है कि 1951 से 1979 तक भारतीय आर्थिक विकास दर 3.1 प्रतिशत थी। पर कैपिटा विकास दर 1.0 % थी। विश्व में इसे ‘हिन्दू ग्रोथ रेट’ के नाम से जाना जाता था। भारतीय उद्योगों का विकास दर 5.4 प्रतिशत था। कृषि विकास दर 3.0 प्रतिशत था। कई कारणों से भारत की आर्थिक विकास बहुत कम था। मुख्य कारण थे-
कृषि उद्योग मे संस्थागत कमियाँ, देश में कम तकनीकी विकास
,भारत की अर्थव्यवस्था का विश्व के दूसरे विकासशील देशों से एकीकृत न होना, चीन और पाकिस्तान से हुए चार युद्ध, बंग्लादेशी शरणार्थियों की देश में बाढ़, 1965, 1966, 1971 और 1972 पड़े हुए चार सूखे, देश के वित्तीय संस्थानो का पिछ्ड़ा हुआ होना, विदेशी पूंजी निवेश पर सरकारी रोक, शेयर बाज़ार में अनेक बड़े और छोटे घपले, कम साक्षरता दर, कम पढ़ी-लिखी भारी जनसंख्या।
इंदिरा गांधी के पश्चात उनके बेटे राजीव गांधी को तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह ने आनन-फानन में देश का प्रधानमंत्री बना दिया था। राजीव गांधी के पास अनुभव की कमी थी। उनके पास केवल एक ही ही विशेषता थी कि वह दिवंगत प्रधानमंत्री के बेटे थे और अपनी इसी विशेषता के कारण उन्हें उस समय देश का प्रधानमंत्री बना दिया गया था । प्रणब मुखर्जी जैसे मंझे हुए राजनीतिज्ञ और मंत्री यद्यपि उस समय कांग्रेस के पास थे परंतु उनके अनुभव और ज्ञान का लाभ नहीं उठाकर एक नौसिखिया लड़के के हाथ में देश की बागडोर दे दी गई। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत में सन 1985 से भुगतान संतुलन की समस्या आरम्भ हुई। 1991 मे चन्द्रशेखर सरकार के शासन के दौरान भारत में विदेशी मुद्रा का भंडार केवल तीन सप्ताह के आयात के बराबर रह गया। उस समय देश का सोना तक विदेशों में गिरवी रख दिया गया था सचमुच देश के लिए यह बहुत ही विकराल समस्या थी।
इसके पश्चात देश के प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव बने जिनके पास अनुभव और ज्ञान दोनों ही थे । बड़ी विषम परिस्थितियों में देश की सत्ता संभाली थी। उन्हें एक अच्छे अर्थशास्त्री के रूप में डॉ मनमोहन सिंह भी प्राप्त हो गए थे। इन दोनों ने मिलकर देश में अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में नई नीतियों का अवलंबन किया। नरसिम्हा राव ने अपने शासनकाल में अर्थव्यवस्था को सुधारने के दृष्टिकोण से आर्थिक सुधार का नया कार्यक्रम आरंभ किया। आर्थिक सुधारों के इन कार्यों को उस समय नरसिम्हा राव की आर्थिक नीतियों के उदारीकरण के रूप में देखा गया।
उस समय उदारीकरण , वैश्वीकरण , निजीकरण नामक तीन शब्द बहुत सुने जाते थे।1996 से 1998 तक पी चिदम्बरम भारत के वित्त मंत्री हुए तो उन्होंने भी अपने कार्यकाल में डॉक्टर मनमोहन सिंह की नीतियों को ही आगे बढ़ाने का कार्य किया।
1998 से 2004 तक देश में अटल बिहारी वाजपेई का शासनकाल रहा तो उन्होंने भी उदारीकरण और निजीकरण पर विशेष बल दिया।
इसके पश्चात 2004 से 2014 तक देश के प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह रहे। जिन्होंने अपनी पूर्व की नीतियों को आगे बढ़ाया । उनके वित्त मंत्री डॉ पी चिदंबरम ने भी अपने अर्थज्ञान का सदुपयोग इन्हीं नीतियों को लागू करने में किया।
2014 में भारत के शासन का कार्यभार नरेंद्र मोदी के हाथों में आया तब से वह आज तक निरंतर उदारीकरण और निजीकरण के आधार पर अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं। यह एक हास्यास्पद तथ्य है कि जिस निजीकरण की प्रक्रिया को कांग्रेस अपने शासनकाल में अपनाती रही , उसी का वह अब उपहास उड़ाती है। कांग्रेस के नेता बार-बार प्रधानमंत्री मोदी पर आरोप लगाते हैं कि वह देश को बेच रहे हैं। यद्यपि वर्तमान सरकार के बारे में प्राप्त आँकड़ों के अनुसार क्रयशक्ति समानता के आधार पर भारत विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है। 1 जुलाई 2017 से जीएसटी लागू होने से संपूर्ण भारत एकसमान बाजार में परिवर्तित हो गया। इन सभी वित्तीय वर्षों में भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में बेहतरीन उपलब्धि प्राप्त की। प्रधानमंत्री मोदी का लक्ष्य है कि 2025 तक भारत को विश्व की बेहतरीन अर्थव्यवस्था बनाया जाए। भारत की अर्थव्यवस्था को लेकर भारत के रिजर्व बैंक के एक पूर्व गवर्नर ने वर्तमान सरकार की आर्थिक नीतियों की प्रशंसा भी की है। जिससे उत्साहजनक संकेत प्राप्त होते हैं।
इसके उपरांत भी हम वह सफलता प्राप्त नहीं कर पाए जो संसार में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए बहुत आवश्यक होती है। निश्चय ही वह भोजन, वस्त्र और आवाज से अलग की मौलिक आवश्यकता होती है। हमने पश्चिमी जगत के तथाकथित विचारकों के दृष्टिकोण से यह मान लिया कि भोजन वस्त्र और आवास की उपलब्धता ही मानव मन की संतुष्टि का सबसे महत्वपूर्ण कारण है। जबकि हमारे ऋषियों ने इससे अलग जाकर शोध यह की थी कि मानव मन की प्रसन्नता ही सबसे बड़ी उपलब्धि है। यदि बहुत कुछ पाकर भी मानव का मन प्रसन्न नहीं है तो समझो कि कहीं ना कहीं तंत्र में भारी दोष है। इसका सबसे अच्छा प्रमाण यह है कि लगभग 150 करोड़ की आबादी के देश में सवा सौ करोड़ लोग इस समय अप्रसन्न और बीमार हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी जी से हमारा अनुरोध है कि वह अर्थव्यवस्था और अर्थनीतियों के भारी दोषों को दूर करने की दिशा में ठोस कदम उठाएं। देखें कि भारत का गरीब गरीब रहकर भी क्यों प्रसन्न है और देश के शहरी वर्ग के पढ़े लिखे लोग प्रसन्नता नाम की घुट्टी से दूर क्यों होते जा रहे हैं ?
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत