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दिल्ली की मस्जिद और उसके इमाम को लेकर उठा विवाद

जिस प्रकार मंदिर में पुजारी , गुरुद्वारे में ग्रन्थी और चर्च में पादरी होता है उसी प्रकार मस्जिद में इमाम होता है । इमाम,मोटे तौर पर जुम्मा यानि शुक्रवार के दिन मस्जिद में नमाज़ के लिये जो मुसलमान इक्कठे होते हैं , उनकी नमाज़ का मंच से संचालन करता है । नमाज़ के बाद वह श्रद्धालुओं को मज़हबी क्रिया कलापों पर प्रवचन भी देता है । वैसे तो जब गाँव या शहर के लोग मस्जिद का निर्माण करते हैं और उसके लिये प्रबन्ध समिति गठित करते हैं तो वह समिति इमाम की नियुक्ति करती है । यदि इमाम का आचरण तस्सलीबख्श न हो तो उसे हटा कर नया इमाम नियुक्त कर देती है । १९४७ में भारत विभाजन के बाद सरकार ने मस्जिदों , क़ब्रिस्तानों व मुसलमानों की अन्य सार्वजनिक सम्पत्तियाँ की प्रबन्ध व्यवस्था के लिये वक़्फ़ बोर्ड का गठन कर दिया था ताकि स्वार्थी लोग इन पर व्यक्तिगत क़ब्ज़ा न जमा लें । जिस गाँव या शहर में कई छोटी बड़ी मस्जिदें होती हैं वहाँ बड़ी मस्जिद को जामा मस्जिद भी कहा जाता है । यही कारण है कि बड़े शहरों में कोई एक मस्जिद आमतौर पर जामा मस्जिद के नाम से भी जानी जाती है । दिल्ली में ऐसी ही एक मस्जिद है जो अपने आकार के कारण जामा मस्जिद कहलाती है । वैसे तो देश के अलग अलग हिस्सों में जो मस्जिदें बनी हैं , उनमें से अधिकांश का निर्माण मुग़ल शासन काल में ही हुआ था ।

लेकिन दिल्ली की इस मस्जिद का निर्माण तो सत्रहवीं शताब्दी के मध्य में मुग़ल बादशाह शाहजहाँ ने स्वयं करवाया था । लेकिन जब मस्जिद का निर्माण पूरा हो गया तो प्रश्न पैदा हुआ कि इस के लिये इमाम किसको नियुक्त किया जाये ? वैसे भी इस जामा मस्जिद के इमाम का रुतबा कुछ अलग ही रहने वाला था । एक तो इसका निर्माण स्वयं बादशाह ने करवाया था , इसलिये यह प्रकारान्तर से शाही मस्जिद थी । इसलिये यह महत्वपूर्ण था कि इमाम किसी भारतीय मुसलमान को बनाया जाये या फिर मुग़ल बादशाहों की परम्परा के अनुसार किसी विदेशी को इमाम का उत्तरदायित्व निभाने के लिये बुलाया जाये । रिकार्ड के लिये बता दिया जाये कि मुग़ल मध्य एशिया से आये हमलावर थे जिन्होंने हिन्दोस्तान पर क़ब्ज़ा किया हुआ था । मुग़लों के इन आक्रमणों की शुरुआत बाबर ने 1526 में की थी । बाबर के वंशज शाहजहाँ के शासन काल सत्रहवीं शताब्दी तक आते आते हिन्दुस्तान में भी लाखों की संख्या में अनेक हिन्दू मतान्तरित होकर मुसलमान बन चुके थे । उनमें से अनेकों ने इस्लाम का अच्छी तरह अध्ययन भी कर लिया था और अच्छे दीनी होने की अंतिम शर्त के अनुसार अरब में जाकर हज भी कर आये थे । लेकिन दिल्ली में बनाई गई इस जामा मस्जिद के लिये जब इमाम नियुक्त करने की बात आई तब भी ये विदेशी हुक्मरान किसी हिन्दुस्तानी मुसलमान पर विश्वास नहीं कर सके । इस काम के लिये उन्होंने उज़बेकिस्तान से सैयद अब्दुल ग़फ़्फ़ूर शाह को बुला कर इमाम बनाया । अब्दुल शाह ग़फ़्फ़ूर उज़बेकिस्तान के बुखारा शहर के रहने वाले थे , इसलिये हिन्दुस्तान के लोगों ने उन्हें बुखारी कहना शुरु कर दिया । इस प्रकार उनका स्थायी पता भी उनके नाम के साथ ही चस्पाँ हो गया और मज़े की बात उनके वंशज आज तक भी उसे जीत में मिली ट्राफ़ी की तरह गले में लटकाये हुये हैं ।

मुग़ल काल तक तो दिल्ली की जामा मस्जिद में इमाम नियुक्त करने की यह परम्परा पैतृक सम्पत्ति की तरह चलती गई । अंग्रेज़ों के शासन काल में भी इसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ । लेकिन पाकिस्तान बन जाने के बाद कहीं कहीं यह माँग भी उठने लगी थी कि इमाम के पद को पैतृक सम्पत्ति की तरह इस्तेमाल न किया जाये और वक़्फ़ बोर्ड किसी भी कारण , मसलन मृत्यु , पागलपन, असाध्य बीमारी , बदइखलाकी या त्यागपत्र इत्यादि से इस पद के रिक्त हो जाने की स्थिति में योग्यता के आधार पर इस पद को भरा जाये । यह भी चर्चा होने लगी थी कि सत्रहवीं शताब्दी में बुखारा से बुलाये गये अब्दुल शाह गफ्फूर के ख़ानदान को ही इमाम क्यों बनाया जाये , इस पद के लिये किसी हिन्दुस्तानी मूल के मुसलमान को इमाम बनने का अधिकार क्यों नहीं है ? क्या हिन्दोस्तान के मुसलमान अभी भी बुखारा के मुस्लिम ख़ानदानों से कम हैं ? लेकिन ये सभी प्रश्न हिन्दोस्तान के मुसलमानों के अपने मज़हबी प्रश्न हैं जिन पर उनको फ़ैसला करना है । हिन्दुस्तानी मुसलमानों और विदेशी मूल के मुसलमानों में यह बहस चलती भी रहती है । लेकिन दिल्ली के वक़्फ़ बोर्ड से ताल्लुक़ रखने वाला प्रश्न केवल एक ही है कि जामा मस्जिद के इमाम के पद पर नियुक्ति का क़ानूनी अधिकार किसके पास है ? उज़बेकिस्तान के इस बुखारा परिवार के पास या फिर दिल्ली के वक़्फ़ बोर्ड के पास ? फ़िलहाल इस मस्जिद के इमाम उज़बेकिस्तान के उसी वंश के अहमद शाह बुखारी हैं ।

लेकिन इस वक़्त विवाद का मुद्दा दूसरा है । अहमद शाह अपने जीते जी ही अपने बच्चे बच्चियों में से एक , १९ वर्षीय बेटे को अपना उत्तराधिकारी घोषित करना चाहते हैं । शायद उनको डर हो कि उनके मरने के बाद इमाम पद के उत्तराधिकार को लेकर भी वंश के वारिसों में विवाद हो सकता है , इसलिये अपने जीते जी ही यह काम निपटा दिया जाये । इस रस्म को उन्होंने रस्म-ए-दस्तारबंदी का नाम दिया है । इस पारिवारिक मज़हबी रस्म में शामिल होने के लिये उन्होंने परिवार के सदस्यों और मजहबी मौलानाओं के अतिरिक्त उन्होंने सार्वजनिक जीवन के अन्य अनेक लोगों को भी चिट्ठियाँ लिखी हैं । ऐसी ही एक चिट्ठी उन्होंने पाकिस्तान के राष्ट्रपति नवाज़ शरीफ़ को भी लिखी है । अभी यह पता नहीं चल सका कि उन्होंने बेटे की दस्तारबंदी में आने का न्योता उज़बेकिस्तान के राष्ट्रपति को भेजा है या नहीं ? ख़ैर वे अपने परिवार के किसी फ़ंक्शन में किसको बुलाते हैं , किसको नहीं यह उनका निजी मामला है और बुलाये गये लोगों में से कौन आता है और कौन नहीं आता है , यह भी आने वाले का निजी मामला है । वैसे भी चिट्ठी डालने के लिये पाँच रुपये लगते हैं और यदि किसी के पास कोई अच्छी हू इज हू नाम की किताब है तो वह दुनिया के हर राष्ट्रपति को अपने घर आने की चिट्ठी लिख सकता है ।

लेकिन यहाँ मामला दूसरा है । किसी ने वैसे ही अहमद बुखारी से पूछ लिया कि भाई दुनिया भर में सभी को न्योता दे रहे हो ,पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को भी न्योता दे रहे हो , नरेन्द्र भाई मोदी को भी बुलाया या नहीं ? बस अहमद मियाँ फट पड़े । मुसलमान नरेन्द्र मोदी को अपना प्रधानमंत्री नहीं मानते । उन्होंने मुसलमानों के लिये क्या किया ? वैसे तो अहमद मियाँ का यह प्रलाप कोई मायने नहीं रखता क्योंकि भारत के मुसलमानों में उनकी कोई औक़ात है इसका कभी प्रमाण नहीं मिला । और भी , उनको भारत के मुसलमानों की ओर से बोलने का हक़ किसने दिया ? न तो इलम की दुनिया में , न दरवेशों की दुनिया में और न ही बुल्ले शाहों की दुनिया में उनका कहीं नाम-ओ-निशान है । इसलिये उनका यह प्रलाप काबिल-ए-ग़ौर नहीं था । परन्तु जिन चैनलों को चौबीस घंटे कुछ न कुछ दिखाते रहने की मजबूरी है उनके लिये एक मसालेदार कहानी तो थी ही । इसलिये उन्होंने बजा दिया घंटा और अहमद नाम का यह इमाम भी कुछ समय के लिये चौबीस घंटे का बादशाह हो गया । ख़बर कुछ इस ढंग से परोसी जा रही है कि मानों नरेन्द्र मोदी अहमद मियाँ के बेटे की दस्तारबंदी में आने के लिये सारी तैयारी करके बैठे थे , ऐन मौक़े पर जब पता चला कि उनको बुलाया नहीं गया तो वे बड़े मायूस हुये और क्योंकि अब मोदी देश के प्रधानमंत्री भी हैं , इसलिये अहमद मियाँ द्वारा उनको न बुलाये जाने से सारे देश का भी अपमान हुआ है । कौन अहमद मियाँ और कैसी उसके बेटे की दस्तारबंदी ? यदि वह इस फ़ंक्शन में मोदी को बुला भी लेता तो कौन सा मोदी को तक्मा मिल जीता । असली मुद्दे जिनको इस पूरी बहस में छिपा कर रखा गया है वे दो हैं । पहला तो यह कि दिल्ली की जामा मस्जिद में इमाम के पद पर किसी को भी नियुक्त करने का अधिकार किसके पास है ? दूसरा यह कि अहमद मियाँ ने यह कह कर कि मुसलमान मोदी को प्रधानमंत्री नहीं मानते, कह कर भारतीय संविधान का अपमान किया है या नहीं ? यदि किया है तो उस पर क्या वैधानिक कार्यवाही हो सकती है ?

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