वैदिक सम्पत्ति- तृतीय खण्ड : अध्याय – ब्रह्मसूत्रों की नवीनता
अध्याय – ब्रह्मसूत्रों की नवीनता
गतांक से आगे…
उसी तरह रावण की भगलिंगपूजा भी शंकराचार्य की शिवपार्वती होकर, रामानुजाचार्य की लक्ष्मीनारायण बनकर अन्त में बल्लभाचार्य के द्वारा राधाकृष्ण हो गई। राधाकृष्ण व्यभिचार के देवता बने और उसी वाममार्ग का प्रचार होने लगा जो रावण के समय में था। जिस प्रकार वाममार्गी कहते हैं कि, अहं भैरवस्तवं भैरवी’ उसी तरह वल्लभ कुलवाले भी कहते हैं कि, -कृष्णोऽहं भवती राधा आवयोरस्तु संगम:’ अर्थात् मैं कृष्ण हूं, तू राधा है…। इनकी समस्त लीला का रहस्य उस मुकदमे में खुलता है, जिसका नाम ‘महाराजा लाइबल केश’ है। यह प्रसिद्ध है कि बंबई में इनके अत्याचारों से घबराकर इनके शिष्यों ने ही इन पर मुकदमा चलाया था। उनमें इन लोगों के जो इजहार हुए थे और उस पर हाईकोर्ट जज ने जो फैसला सुनाया था, उस समस्त मिसिल को एक अंग्रेज ने पुस्तकाकार छपा दिया है। उसी का नाम ‘महाराज लाइबल केश’ है। यहाँ हम उसी का कुछ भाग लेकर थोड़ा सा वर्णन करते हैं और दिखलाते हैं कि वल्लभ सम्प्रदाय वाममार्ग का ही रूपांतर है। इस मुकदमे में हाईकोर्ट के जज कहते हैं कि, वल्लभ और उसका पिता लक्ष्मणभट्ट दोनों तेलगी ब्राह्मण हैं। वल्लभ एक नवीन सम्प्रदाय का संस्थापक हुआ। इन लोगों के ने पाशविक अत्याचार के लिए शास्त्र बना रक्खा है, उसको भी जजों ने इस प्रकार उद्धृत किया है –
तस्मादादौ स्वोपभोगात्पूर्व मेव सर्ववस्तुपदेन भार्यापुत्रादिनामपि समर्पणं
कर्तव्यं विवाहानंतरं स्वोपभोगे सर्वकार्ये सर्वकार्यनिमित्ते तत्तत्कार्योपभोगी
वस्तुसमर्पण कार्य समर्पणं कृत्वा पश्वात्तानि तानि कार्याणि कर्तव्यानीत्यर्थ:।
अर्थात् वर को चाहिए कि अपनी सद्योविवाहिता पत्नी को अपने भोग के पूर्व अपने महाराजा के पास भेजे। भार्या, पुत्र धनादि अर्पण करें, अर्थात् जिस- जिस भोग कि जो -जो वस्तु हो, उस- उस भोग की वह-वह वस्तु महाराज के पास भेजे। पाणिग्रहणसंस्कार होने के बाद अपने संभोग के प्रथम,वर अपनी वधु को महाराज के पास भेजे, पश्चात अपने काम में लावे। अन्त में हाईकोर्ट जज ने लिखा कि ‘स्त्रियां चाहे अविवाहिता कुमारी हों या विवाहिता हो, उनका धर्म है कि वे महाराज से उनकी इच्छानुसार व्यभिचारिक प्रेम और विषयलालसा से मोहब्बत करें। महाराजों के साथ व्यभिचार करना केवल विहित ही नहीं है, प्रत्युत वह अत्यन्त आवश्यक है। उसके बिना कोई भी लोक परलोक के सुख की आशा नहीं कर सकता। यह पाशव और व्यभिचार का मार्ग ही है उनके लिए स्वर्गीय सुख है। वे शैतान के जीवित अवतार हैं। इस तरह से वैष्णव सम्प्रदाय भी वाममार्ग ही बन गया और अन्त में अपना आसुर रूप प्रकट कर दिया।
क्रमशः