क्या से क्या होता जा रहा है। सब तरफ इंसानियत स्वाहा हो रही है और इंसान अपने आपको भुलाता जा रहा है। कोई कंचन-कामिनी के पीछे पागल है, कोई अपनी सल्तनत चाहता है, कोई पैसों का भूखा है, कोई जमीन-जायदाद का। कोई मजहब के नाम पर सिक्का चलाना चाहता है, कोई क्षेत्र, भाषा और व्यक्ति के नाम पर।
सब तरफ कोहराम मचा है अपनी-अपनी चवन्नियां चलाने का। बहुत कम लोग होंगे जिन्हें संतोषी माना जा सकता है अन्यथा हम सभी लोग जाने कितनी पीढ़ियों से इतने अधिक भूखे और प्यासे लगते हैं कि हमने इंसानियत और मर्यादाओं को ताक में रख कर वह सब कुछ करना शुरू कर दिया है जो इंसान के लिए अशोभनीय ही है।
न हममेंं इंसानियत बची है, न हम बची-खुची इंसानियत का वजूद बनाए रखना चाहते हैं। हम सामाजिक प्राणी के रूप में पैदा भले हो गए हों पर सामाजिकता हमारे भीतर से काफी कुछ तो गायब हो ही गई है, बची-खुची सामाजिकता को पूरी तरह ठिकाने लगाने के लिए हम निरन्तर प्रयासरत हैं ही।
यों भी हमारी वृत्तियों में अब हर तरफ असामाजिकता ही हावी है और इसका खामियाजा पूरी दुनिया को भुगतना पड़ रहा है। हिंसा और आतंक, सामूहिक नरसंहार, कन्याओं की खुलेआम नीलामी, बस्तियों का उजड़ना, धर्म के नाम पर हिंसा का महा ताण्डव और साम्राज्यवादी घृणित मानसिकता भरे हमारे कुकर्मों ने यह अच्छी तरह सिद्ध कर दिया है कि भले ही हम इक्कीसवीं सदी के उन्नत प्राणी कहे जाते हों मगर हमारी सोच सोलहवीं सदी की कबीलाई संस्कृति और असभ्यता से कहीं कुछ कम नहीं है।
जहाँ इंसान ही इंसान को मौत के आगोश में धकेल रहा हो, बलात्कार और हिंसा के साथ महाविनाश हो रहा हो, हिंसावादियों और प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से मदद मिल रही हो, सभी तरफ इंसानियत का बेड़ा गर्क हो रहा हो, अपने स्वार्थ और ऎषणाएं प्राथमिकता के पहले नंबर पर आ जाएं और इंसानियत छोड़कर इंसान हैवानियत पर उतर आए, तब यह समझना मुश्किल नहीं है कि आखिर हम किस दिशा में जा रहे हैं। आदमी के लिए समाज और देश प्राथमिकताओं से हटकर घर और जेब हो जाएं, तब इंसानियत की बातें करना भी बेमानी ही है।
पहले इंसान की इंसान के साथ तुलना की जाती थी, आज समय बदल गया है। अब इंसान के गुणावगुणों को अभिव्यक्त करने के लिए जानवरों से तुलना की जाने लगी है, जानवरों की उपमाएँ दी जाने लगी हैं।
कोई किसी को गिद्ध, कौआ, गधा, उल्लू, कठफोड़वा, उदबिलाव, बिल्ला, बिल्ली, चूहा, सियार, लोमड़ी, बंदर, भालू, बिच्छू, साँप कह रहा है तो कोई किसी को किसी और जानवर के साथ जोड़ रहा है।
जमाना यह आ गया है कि अब इंसान के व्यक्तित्व को अच्छी तरह परिभाषित करने के लिए जानवरों के नामों का सहारा लिया जाने लगा है और इसी से किसी भी आदमी विशेष के लक्षणों को ठीक-ठीक समझ लिए जाने का समय आ गया है।
मदमस्त लोगों के लिए कोई कहता है हाथी की चाल है, बेपरवाहों के लिए कहा जाता है – हाथी चलता रहता है, कुत्ते भौंकते रहते हैं, लूट-खसोट करने, नोंच खाने वालों, हर कहीं मुँह मारने वाले और लपकने वाले लोगों के लिए गिद्ध, सूअर, लोमड़ और श्वानों की संज्ञा दी जाती रही है।
कुर्सी और धन-संपदा पर कुण्डली मारकर बैठे लोगों के लिए भुजंगों के नाम का खूब इस्तेमाल होने लगा है। दबंगों के लिए शेर का नाम लिया जाता है। इसी तरह आदमियों की जात से जुड़े तमाम प्रकार के लोगों के व्यक्तित्व और कर्म-कुकर्म परिभाषित करने के लिए किसी न किसी जानवर से जोड़ा जाने लगा है। हरेक किस्म के आदमी के लिए अपने यहाँ कोई न कोई जानवर जरूर है जिससे जोड़कर स्थिति को स्पष्ट किया जा सकता है।
प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ इंसान को किसी जमाने में अपने पराक्रमी, साहसी और वीर इतिहास पुरुषों के नामों से जाना जाता था। आज इंसान के लक्षणों को जताने के लिए किसी न किसी जानवर के नाम का प्रयोग होने लगा है।
हम सभी के लिए यह स्थिति चिंता का विषय है कि बुद्धिमान कहे जाने वाले सामाजिक प्राणी के लिए पशु-पक्षियों और वन्य जीवों के नामों का प्रयोग किया जा रहा है। इससे तो यही सिद्ध होता है कि आखिर हम कहाँ जा रहे हैं। और तो और हममें से कितने सारे लोगों के लिए आम लोग असुर, नर पिशाच और दस्युओं की उपमा देने लगे हैं।
हमारी हिंसक और छीना-झपटी वाली हरकतों से तो यही लगता है कि हम लोग जंगल की ओर डग बढ़ा रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाले समय में हमारे लिए इंसान की बजाय जंगली शब्द का खुलेआम प्रयोग होने लगे और हम तनिक भी विरोध कर पाने की स्थिति मेें भी न हों क्योंकि हमारी मानसिकता और व्यवहार तो जंगलियों जैसा ही होता जा रहा है जहां न कोई अनुशासन और मर्यादा है, न भगवान का भय, और न ही इंसानियत के दायरे।
अपने आपको जानें और महसूस करें कि हम सभी इंसान हैं और इंसानियत के बिना हमें इंसान कहलाने का कोेई अधिकार नहीं है। इंसान के रूप में जानवराेंं की तरह लूट-खसोट की प्रवृत्ति का परित्याग करें अन्यथा आने वाले समय में जानवर भी हमें बर्दाश्त नहीं करने वाले।