पुस्तक समीक्षा : अष्टावक्र गीता काव्यानुवाद
हम संसार में रमे रहकर संसार को नहीं पा सकते। संसार का सार समझने के लिए संसार से विरक्ति उत्पन्न करनी ही पड़ती है। जब तक वैराग्य और विवेक की उपलब्धि नहीं होती तब तक जीवन भी निःसार है। यही कारण है कि वैदिक ऋषियों ने संसार की निस्सारता को समझकर या कहिये कि संसार के सार को समझने के लिए वैराग्य और विवेक की उपलब्धि को अनिवार्य समझा । क्योंकि इसी उपलब्धि से परम उपलब्धि अर्थात मोक्ष को प्राप्त किया सकता है।
अष्टावक्र गीता संसार से विरक्ति उत्पन्न करने वाले भावों की संहिता है। संसार में हम आए हैं तो संस्कारों का होना परम आवश्यक माना गया है और यदि संसार से भी छूटना चाहते हैं तो संस्कार के बनने की प्रक्रिया पर भी पूर्णविराम लगाना होगा।
संस्कार के बनने की प्रक्रिया संबंध और संसर्ग को बनाए रखती है। जिससे बार-बार जन्म लेने की प्रक्रिया से दुखदाई ढंग से गुजरना पड़ता है। यही कारण है कि ऋषियों ने संस्कार से भी ऊपर उठने को अनिवार्य माना।
उस परम सत्य को प्राप्त करने के लिए संस्कार जितनी गहराई से जन्म लेगा उतना ही हम अपने आपसे जुड़कर परम सत्य के साथ जुड़ने में सफल हो पाएंगे। यही योग की पराकाष्ठा है। जब हमारा योग पूर्ण हो जाता है तो संस्कार पीछे रह जाता है। पुस्तकीय ज्ञान वहां काम नहीं आता। वहां मौलिक चिंतन हमारी मौलिक चेतना के साथ संयुक्त होकर हमारा मौलिक मार्गदर्शन करने लगता है। अपनी चेतना की इसी मौलिकता को पाकर परम सत्य के साथ जुड़कर चिरकाल तक आनंदानुभूति करना ही मोक्ष है।
अष्टावक्र गीता हमारे इन्हीं भावों को जागृत करती है।
डॉ मृदुल कीर्ति भारतीय सांस्कृतिक परंपरा की अद्भुत प्रस्तोता हैं। परमपिता परमेश्वर की असीम अनुकंपा है कि उनकी चेतना मां भारती की चेतना के साथ एकाकार होकर बोलती है। गृहिणी होकर भी उन्होंने मां भारती की अनुपम सेवा की है। अष्टावक्र गीता का काव्यानुवाद करके उन्होंने सचमुच अभिनंदनीय कार्य किया है। बहुत ही दार्शनिक भाषा में वे कहती हैं कि – निर्जीव रहनी निर्बीज करनी। भारतीय साहित्य और विशेष रूप से वैदिक साहित्य दार्शनिक शैली का साहित्य है। उसके शब्द – शब्द से दार्शनिकता का अमृतरस टपकता है । बड़े पवित्र हृदय से उसे ग्रहण करने वाला व्यक्ति सचमुच ‘मृदुल’ बन जाता है और उसकी ‘कीर्ति’ संसार में फैल जाती है। बस, अपने आपको ‘मृदुल’ ‘कीर्ति’ बनाने की आवश्यकता है। पर मृदुल कीर्ति बनने के लिए इस भाव से ओतप्रोत होना आवश्यक है –
आत्मा में विश्रांति, पूर्ण मैं गया, अब पूर्ण हूँ।
धर्म, अर्थ और मोक्ष काम की पूर्णता संपूर्ण है।।
विदुषी लेखिका इस पुस्तक के पृष्ठ 68 पर कहती हैं –
कृत और अकृत के द्वंद से मन मुक्त हो तब मुक्ति है।
धन, अर्थ ,मोक्ष और काम इच्छा, शून्यता ही युक्ति है।।
संसार को दृष्टा भाव से देखना जीवन की परम दार्शनिकता का गूढ़ रहस्य है। इसके साथ जिस व्यक्ति का सामंजस्य स्थापित हो जाता है वह संसार की कीचड़ में कमल के समान रहने का अभ्यासी हो जाता है। हमारे ऋषियों ने इसी ऊंचाई को प्राप्त करने को जीवन का लक्ष्य बनाया ।
अष्टावक गीता के एक श्लोक का अर्थ करते हुए डॉ मृदुल कीर्ति लिखती हैं :-
जगत दृष्टा ही कहेगा कि जगत नि:सार है ।
आत्म दृष्टा देखकर भी देखता बस सार है।।
अंत में डॉ कीर्ति जीवन के इस परम सत्य को उद्घाटित करती हैं कि आस्ति और नास्ति के फेर में पड़ने की भी आवश्यकता नहीं , कहीं पर ‘दो’ नहीं सर्वत्र ‘एक’ ही है। वह लिखती हैं :–
आस्ति और नास्ति कहां और दो कहां पर एक है।
नहीं बहुत कहने का प्रयोजन ब्रह्म सर्वम एक है।।
इस पुस्तक के प्रकाशक वैभव कीर्ति, प्रिया प्रकाशन, ए -44 डिफेंस कॉलोनी, मेरठ 250001, (उत्तर प्रदेश) भारत है। पुस्तक का मूल्य ₹25 है। पुस्तक की कुल पृष्ठ संख्या 120 है।
पुस्तक संग्रहणीय और बहुत ही उपयोगी है। विदेशी लेखिका का प्रयास प्रणम्य है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत