आर्य समाज जैसी प्रगतिशील और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने वाली संस्था इस देव सोने या उठने को अवैज्ञानिक और अतार्किक मानती है। जबकि पौराणिक लोग इसे ज्यों का त्यों अपनाने की बात कहते हैं उनका भी तर्क है कि देवों का सोना और उनका उठना वैज्ञानिक है और इसमें अवैज्ञानिकता कुछ भी नही।
फिर सच क्या है, सच इन दोनों तर्कों के बीच छिपा है। बहस को किसी की आस्था पर चोट पहुंचाने वाली न बनाकर भारतीय ऋषियों के मंतव्य को समझने की आवश्यकता है। हमारे ऋषियों का दृष्टिकोण वैज्ञानिक और तार्किक ही होता था, यह सत्य है। पर देश, काल, परिस्थिति के अनुसार उनके द्वारा डाली गयी परंपराओं में परिवर्तन होना भी विज्ञान का एक नियम है, हमें यह बात भी स्मरण रखनी चाहिए।
प्राचीन काल से अर्थात सृष्टि प्रारंभ से ही हमारे ऋषियों को ऋतुओं का और दिन रात के छोटे बड़े होने का, या पृथ्वी की गतियों की जानकारी थी। इसलिए उन्होंने सृष्टि नियमों को पढ़कर व समझकर कुछ नियम बनाये जो समय के अनुकूल थे, जैसे हमारे वैज्ञानिक ऋषियों को यह ज्ञान था कि ‘भदौरिया नवमी’ तक भारतवर्ष में हर स्थान पर मानसून सक्रिय हो जाता है और ‘देवोत्थानी एकादशी’ तक सामान्यत: मानसून हट जाता है तो इसलिए ‘भदौरिया नवमी’ से लेकर ‘देवोत्थानी एकादशी’ तक विवाह आदि शुभ कार्यों को रोक दिया जाता था, क्योंकि प्राचीन काल में आवागमन के साधन घोडे,़ बैलगाड़ी रथ आदि थे रास्ते कच्चे होते थे, आबादियों के गांव आदि दूर दूर होते थे इसलिए यात्रियों की असुविधा और असुरक्षा के दृष्टिगत उचित यही था कि विवाह ‘भदौरिया नवमी’ से ‘देवोत्थानी एकादशी’ तक रोक दिये जाएं। इस काल में विवाहदि न करने का यही कारण था। दूसरे इस काल में मच्छर आदि का प्रकोप बढ़ जाता था, जंगलों में हमारे ऋषि-महर्षि लोग (जिन्हें देव कहा जाता था) जंगलों में अपनी तपस्या स्थलियों से उठकर गांवों नगरों के निकट आ जाया करते थे। क्योंकि तब जंगलों में जंगली पशुओं और हिंसक जीव-जंतुओं से भी उनको प्राणभय रहता था। अत: ऐसी विषम परिस्थितियों से बचने के लिए उचित यही था कि जंगलों से उठकर गांवों नगरों के निकट रहा जाए। जैसे ही बारिश का मौसम हटता था, तो ये लोग पुन: गांवों से उत्थान कर जंगलों की ओर चल देते थे। उनका यह ‘उत्थान’ ही ‘देवोत्थान’ कहलाता था। एक निश्चित दिवस को लोग अपने इन महापुरूषों को उनकी तपस्या स्थलियों के लिए विदा किया करते थे।
कालांतर में देवों का ‘भदौरिया नवमी’ से अपने-अपने घरों को लौटना और ‘देवोत्थानी एकादशी’ से पुन: तपस्या स्थलियों के लिए उत्थान का क्रम ही देवों का सोना और देवों का उठना रूढ़ हो गया।
ये देव ऋषि लोग जंगलों से गांवों -नगरों के निकट आ जाया करते थे, तो उस समय भी ये अपने श्रेष्ठ याज्ञिक कार्यों में लगे रहते थे। श्रावण माह में लोग इनसे घर घर बुलाकर वेद कथाएं श्रवण किया करते थे। जिससे उस मास का नाम ही श्रावण पड़ गया और उस माह में आने वाला पर्व श्रावणी पर्व बन गया, जिसे लोग रक्षाबंधन भी कहते हैं। गांवों में इसे सलूणे भी कहते हैं जो कि श्रावणी से बिगड़ कर बना शब्द है। सावन मेें कथायें तो आज भी होती हैं, पर वे विकृत रूप में की जाती है। लेकिन उनके मूल में ये ही आदर्श परंपरा थी। इसी प्रकार श्राद्घ पर्व मनाने या नवरात्रों का आयोजन भी माता-पिता, गुरू आचार्य आदि बड़ों के प्रति श्रद्घा सत्कार उत्पन्न करना भी हमारे उन्हीं देव ऋषियों का कार्य होता था, जिसे वह वैदिक विधि से पूर्ण कराया करते थे। दशहरा का अर्थ है ‘दस को हरा’। ये दस क्या हैं-दसों इंद्रियां। पर एक-एक इंद्री एक ‘देवी’ भी है, यदि उसका सदुपयोग किया जाए तो। उसका एक बड़ा भारी विज्ञान है, जिसे उस समय विशेष आयोजनों के माध्यम से लोगों को समझाया जाता था। इस प्रकार हम देखते हैं कि हमारे एक -एक पर्व के पीछे और एक एक सामाजिक परंपरा के पीछे कोई न कोई विशेष वैज्ञानिक तर्क खड़ा है। पौराणिक भाई यदि उसके सही स्वरूप को समझें और आर्य बंधु उसके सही अर्थ को समझायें तो दूरी समाप्त हो सकती है।
पिछले दिनों श्री महेन्द्र आर्य जो कि आर्य समाज के लिए समर्पित होकर कार्य कर रहे हैं, ने 28 अक्टूबर को अपनी सुपुत्रियों का पाणिग्रहण संस्कार ‘देवों के सोने के काल’ में कराया तो कई लोगों को अटपटा सा लगा।
हमारा मानना है कि श्री आर्य को पुरस्कार आदि की घोषणा में शीघ्रता नही दिखानी चाहिए। वह महर्षि की उस बात पर ध्यान दें कि मुझे तो सत्य सत्य के अर्थ का प्रकाश करना है, उसे कोई माने या माने। पूर्वाग्रह ग्रस्त होकर और विनम्रता त्यागकर कभी कोई किसी को अपने झंडे तले नही ला सकता है। उनका लक्ष्य महान है इसलिए वाणी और व्यवहार भी ऐसे लाने पड़ेंगे, जिनमेें महानता ही झलके।
जहां तक विवाहादि के सूझ आ असूझ होने की बात है तो विवाह के लिए सूझ शब्द दो शब्दों से बना है एक तो है सुझाव और दूसरा है शोध। सुझाव का अभिप्राय भी केवल इतना है कि मौसम आदि को गणितीय ज्योतिष के अनुसार पहले ही देखा जाए कि अमुक दिवस को कोई वर्षा तूफान आदि का योग तो नही हैं, यदि नही है तो सुझाव दिया जा सकता है कि अमुक दिवस को विवाह रख लिया जाए अन्यथा नही। इसी को ‘शोध’ करना कहते हैं। इसी विचार को पेशेवर पंडितों ने दूसरे रूप में भुनाना आरंभ कर दिया। जिसका कोई औचित्य नही है। हमें अच्छी परंपराओं का शुभारंभ करना चाहिए और सड़ी गली व्यवस्थाओं को भुलाना चाहिए। इसके लिए ठंडे दिमाग से सोचने की आवश्यकता है। आज जब आने जाने के लिए मार्ग अच्छे हो गये हैं, वर यात्राओं के लिए भी कोई संकट नही है और विवाहादि के लिए सुरक्षित स्थानों की भी कमी नही है तो फिर पुरानी लीक को पीटने की आवश्यकता नही है। देश, काल, परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन करना उचित है। – आर.के. आर्य
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