पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि और लौहपुरूष सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयंती 31 अक्टूबर को प्रधानमंत्री ‘नरेन्द्र मोदी’ ने जिस प्रकार पटेल की जयंती पर इंदिरा गांधी की ‘घोर उपेक्षा’ की है, उसे देश की राजनीति के लिए उचित नही कहा जा सकता। मोदी शायद भूल गये लगते हैं कि प्रतिशोध मन के प्रदूषण को झलकाता है और क्षमा वीरों का आभूषण होता है। मोदी का सितारा इस समय निश्चित रूप से बुलंदी पर है। वह इंदिरा गांधी नही हैं, वह उनसे बढ़कर हैं पर यह भी सत्य है कि इंदिरा गांधी ने जिस प्रकार भारतीय राजनीति का ‘इंदिराकरण’ किया था, मोदी भी उसी प्रकार राजनीति का ‘मोदीकरण’ करने की राह पर बढ़े जा रहे हैं। यह शुभ संकेत नही है। हमें यह भी याद रखना होगा कि यदि इंदिरा गांधी ने राजनीति का इंदिराकरण किया था तो वह उन्हें कितना महंगा पड़ा।
पर यह इंदिरा ही थीं जिन्होंने नेहरू की कई भूलों को बिना शोर मचाये सुधारने का प्रयास किया था। वह शोर इसलिए नही मचा पायी थीं ंकि नेहरू इस देश के पूर्व प्रधानमंत्री ही नही बल्कि उनके पिता भी थे। वह नेहरू की कई नीतियों सेे असहमत थीं, पर उनके प्रति ‘विद्रोही’ बनना नही चाहती थीं। यह भी उनका एक गुण था। उन्होंने नेहरू की परंपरागत ढीली विदेश नीति को नया स्वरूप दिया और इसके बावजूद उसका नाम ‘नेहरू वादी नीति’ ही जारी रखा। उन्होंने एक ओर राष्ट्र की उन भावनाओं का सम्मान किया जो बदलाव चाहती थीं और एक ओर अपने पिता का सम्मान भी निरंतर बनाये रखा। यह उनकी नीतियों का सफल संतुलन था।
इंदिरा गांधी ने चीन के साथ सख्त तेवर रखे और कभी हिंदी चीनी ‘भाई-भाई’ का नारा उनके काल में नही गूंजा। इस देश के लिए उन्होंने अपने देश के दरबाजे बंद कर दिये और उसकी 1962 की गलती का अहसास कराने के लिए उसे इतना झकाया कि उस समय चीन से कुछ कहते नही बनता था। उन्होंने दलाईलामा को चीन के विरूद्घ सदा प्रोत्साहित किया, पर अटल सरकार ने दलाईलामा का भरोसा तोड़कर तिब्बत को चीन का एक भाग मान लिया। भाजपा की तत्कालीन सरकार के विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने कंधार विमान अपहरण काण्ड के समय जिस प्रकार देश को अपयश का भागी बनाकर शर्मिंदा किया था, उसकी काली छाया आज तक भी देश को लज्जित करती है।
यह भी इंदिरा ही थीं, जिन्होंने अपने पिता के पूर्व रियासतों के राजाओं के प्रिवीपर्स के प्रति नरम दृष्टिकोण को बदलकर रख दिया था। इन सारे ‘खास’ लोगों को एक झटके में ही इंदिरा गांधी ने ‘आम’ बना दिया था। वह साहसी थीं और साहस के एक नही कई कीर्तिमान उन्होंने कायम किये थे। उन्होंने जिन्ना की मजार पर जाकर ‘देश का सिर’ नही झुकाया। उन्होंने अपना सिर ऊंचा रखा और देश का सिर ऊंचा करने का काम किया। 1971 के युद्घ में उन्होंने पाकिस्तान के एक लाख सैनिकों को आत्मसमर्पण करने के लिए बाध्य किया था। वहां के जनरल नियाजी की आंखों में आत्मसमर्पण करते समय जब आंसू देखे गये थे तो सारा देश गौरव से अभिभूत हो उठा था। इसके बाद शिमला समझौते में जब जुल्फीकार अली भुट्टो ने आकर
इंदिरा गांधी के सामने यह कहकर नाक रगड़ी थी, कि मैडम इस बार छोड़ दो, आगे हिंदुस्थान की ओर देखने की भी गलती नही करूंगा, तो भी सारा देश गौरव से उछल पड़ा था।
श्रीमती इंदिरा गांधी की बड़ी गलती थी कि उन्होंने भारतीय राजनीति का ‘इंदिराकरण’ करना आरंभ किया और वह निरंतर अलोकतांत्रिक होती चली गयीं। उन्होंने इमरजैंसी लगाई, पर उस समय लोगों को देश के प्रति और अपने काम के प्रति समर्पण करना सिखाया। अधिकारियों का निकम्मापन उस समय किस प्रकार दूर हो गया था, इसे लोग अभी तक भूले नही हैं।
इंदिरा गांधी ने लोकतांत्रिक संस्थानों का दोहन किया और उनकी स्थिति का निरंतर क्षरण किया। पर हमें यह भी याद रखना चाहिए कि हर व्यक्ति पहले परिस्थितियां का निर्माता होता है, फिर उनका भोक्ता होता है और अंत में उन्हीं में घिरकर मर जाता है। अत: यह कहना गलत है कि व्यक्ति परिस्थितियों का दास है। व्यक्ति परिस्थितियों का निर्माता स्वयं होने के कारण उनका फल भी स्वयं ही भोगता है। इसलिए इंदिरा गांधी ने जो गलतियां कीं, उनका फल भी भोगा।
इन सबके उपरांत भी वह एक सफल प्रधानमंत्री थीं। मोदी उनकी उपेक्षा कर रहे हैं और वह भी प्रतिशोध के कारण, तो यह उनका इंदिरा के रास्ते पर चलने का प्रमाण है, इंदिरा गांधी के भीतर भी यह दुर्गुण था कि वे अपने विरोधियों की उपेक्षा करती थीं। अपनी पसंद के लोगों को वह आगे बढ़ाती थीं, वैसे ही जैसे मोदी अपनी पसंद के अमित को भाजपा अध्यक्ष बनाते हैं, खट्टर और देवेन्द्र को हरियाणा और महाराष्ट्र का सीएम बनाते हैं। इंदिरा ने भी इस कार्यप्रणाली को ‘विकास और गरीबी हटाओ’ के नाम पर अपनाया था और पूरा देश उनके नारे के साथ एकाकार होकर गरीबी हटने की बाट जोहने लगा था। वैसा ही आज हो रहा है। पूरा देश मोदी के ”विकास और सबका साथ, सबका विकास” (गरीबी हटाओ का दूसरा नाम) के साथ है। परिणाम क्या होगा, अभी नही सकते।
मोदी निश्चित रूप से इंदिरा नही हैं और कुछ मामलों में उनसे देश चाहता भी नही है कि वह इंदिरा बनें। उन जैसे गंभीर व्यक्ति को जब पटेल जयंती और इंदिरा की पुण्यतिथि पर इंदिरा की उपेक्षा करते देखा गया तो कई लोगों का दिल टूट गया। इंदिरा गांधी के लिए कांग्रेस अपने शासन काल में ‘अति’ करती थी, तो भाजपा के काल में उनके प्रति नपी तुली मर्यादित और यथावश्यक श्रद्घांजलि तो मिलनी ही चाहिए थी।
इसके अलावा 31 अक्टूबर को नवंबर 1984 के दंगों के घावों को कुरेदने का कार्य निंदनीय स्तर तक किया गया है। हमारी सिक्खों के प्रति पूर्ण सहानुभूति है और दंगों को किसी भी कीमत पर सराहा भी नही जा सकता। कांग्रेस के तत्कालीन बड़े नेताओं ने जिस प्रकार दंगों में भाग लिया, वह भी निंदनीय था, यह भी हम मानते हैं। पर मोदी जी से पूछा जा सकता है कि पंजाब में आतंकवाद के दौर में जिन हजारों हिंदुओं की हत्याएं की गयीं परिवार उनके भी हैं, माता-पिता पुत्र भाई, बंधु, पत्नी, पुत्री आदि उनके भी हैं, जो आज तक परेशान हैं। उनकी संख्या भी हजारों में हैं, उनके प्रति मोदी सरकार ने क्या किया है? क्या उनका दर्द कभी किसी सरकार की किसी योजना में स्थान पा सकेगा? या उन्हें यूं ही भुला दिया जाएगा। मोदी जिस प्रकार आर.एस. एस. की पृष्ठभूमि से जुड़े हैं, उसके दृष्टिगत उन्हें पता होगा कि 1947 के उन हिंदुओं को और उन अज्ञात स्वतंत्रता सैनानियों को लेकर आर.एस.एस. किस प्रकार अभी तक छाती पीटता है, जिनके लिए ”न दीप जले न पुष्प चढ़े।” तब क्या पंजाब के आतंकवाद के दौर में शहीद हुए हिंदुओं को भी हम इसी श्रेणी में मान लें। सवाल लाख टके का है। मुझे मालूम है कि इस सवाल का कोई जवाब भी नही आना लेकिन इतना अवश्य है कि यह सवाल पी.एम. के कलेजे में उतरेगा जरूर और उतरेगा तो जवाब भी खोजेगा।
अच्छा हो कि मोदी राजनीति का हिंदूकरण जिसमें ‘सबका साथ सबका विकास’ को समाहित करें। देश उसे तो स्वीकार कर सकता है पर यदि उन्होंने राजनीति का ‘मोदीकरण’ करने का रास्ता अपनाया तो तो वह उन्हें जिद्दी अहंकारी और तानाशाह भी बना सकता है। इंदिरा की गलती को देश भयंकर त्रासदी के रूप में झेल चुका है। नई त्रासदी की ओर देश ना जाए तो ही अच्छा है।