सृष्टि का प्रत्येक तत्व अपने मूल गुण धर्म और हर प्राणी अपने मूल स्वभाव की वजह से जाना-पहचाना जाता है। जब इस मूल गुण धर्म और स्वभाव में तनिक सा भी परिवर्तन आ जाए, मिलावट आ जाए या फिर मूल गुणधर्म ही नष्ट हो जाएं तब यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि वह अपने बीज तत्वों से भटक कर मिलावटी हो गया है और उसकी मौलिकता नष्ट हो गई है तभी तो उसका मूल स्वभाव, तत्व का गुणधर्म आदि सब कुछ बदल जाता है।
यह परिवर्तन न्यूनाधिक रूप में जहाँ कहीं देखा जाए वहाँ यह तय मानकर चलना चाहिए कि कहीं न कहीं कोई ऎसी खोट जाने-अनजाने आ ही गई है जो इंसानियत और मानव धर्म के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
कोई सा तत्व हो, अपना गुण धर्म छोड़ दे तो उसका कोई औचित्य नहीं होता। नमक खारापन छोड़ दे, शक्कर और गुड़ अपनी मिठास छोड़ दें, इसी तरह सारे तत्व अपने मूल गुणधर्म को छोड़ दें या कमीबेशी आ जाए तो स्वीकारना ही पड़ेगा कि कहीं न कहीं कोई गड़बड़ जरूर है।
आजकल संकर बीजों से साग-सब्जियों, फलों और अनाज का युग है जिसमें बाजारवाद हावी होने के कारण गुणवत्ता की बजाय मात्रा पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा है। हम सभी इस बात को महसूस करते ही हैं कि इनसे उत्पादन कई गुना बढ़ गया है, मुनाफा भी अपार हो रहा है लेकिन इन सभी के भीतर से परंपरागत स्वाद गायब हो चला है। चाहे फिर वे भुट्टे हों, मक्का, गेहूं-चना या कोई सी फसल, साग-सब्जी या फल हो। अब तो इन संकर उत्पादनों को विदेशी नामों से भी जाना जाने लगा है।
यही स्थिति आजकल इंसान की हो गई है। भारतीय संस्कृति, सभ्यता और परंपराओं के बीज तत्वों से आने वाले परिशुद्ध इंसानी बीज अब कम देखने को मिलते हैं और मिलावटी या पूरी तरह बदले हुए लोग ज्यादा दिखने में आ रहे हैं।
इन पर विदेशियों और पाश्चात्यों का रंग-रस और रूप इस कदर चढ़ा हुआ है कि ये सिर्फ शरीर से ही भारतीय लगते हैं बाकी सारा कुछ गैर भारतीय। काफी संख्या में शुद्ध भारतीय सांस्कृतिक बीज तत्वों वाले लोग आज भी विद्यमान जरूर हैं लेकिन इनकी संख्या अब धीरे-धीरे कम होती जा रही है।
आजकल खूब सारे लोग हर तरफ ऎसे ही दिख रहे हैं जिनके भीतर से इंसानियत गायब हो गई है अथवा धीरे-धीरे क्षरण की ओर है। जिन लोगों के भीतर इंसानियत के गुण धर्म नहीं हैं वे सारे के सारे लोग वर्णसंकर कहलाने लायक हैं क्योंकि इन लोगों के मन-मस्तिष्क और शरीर में इतनी मलीनताएं घर कर गई हैं कि ये लोग चाहे कितने मनुष्य बनने और दिखाने की कोशिश करते रहें, इन्हें मनुष्य मानने को कोई तैयार नहीं होता।
ये वर्णसंकर लोग दुनिया में किसी के नहीं हो सकते। न अपने माँ-बाप, पति-पत्नी, भाई-बहन या और किन्हीं संबंधों के। ये लोग अपने स्वार्थों की मार्केटिंग और शोषण का साम्राज्य बनाने के लिए पैदा होते हैं और मानवी सृष्टि के साथ ही सम सामयिक युुग को भी कलंकित करते हैं। ये वर्णसंकर जहां रहते हैं वहाँ भय, शोषण, अत्याचार, अनाचार, लूट-खसोट, अकाल, हिंसा आदि सब कुछ होता है जो इंसानी बस्तियों के लिए किसी काम का नहीं।
मनुष्य का चोला इन लोगों के लिए अपने काले मन और कुकर्मों को छिपाने भर के लिए अभेद्य सुरक्षा कवच का ही काम करता है जिस प्रकार आजकल भ्रष्ट, बेईमान और नालायक लोग धार्मिक होने का स्वाँग रचे रहकर अधर्म के कामों में जुटे रहते हैंं।
इंसान का मूल स्वभाव मानवता, समरसता, संवेदनशीलता, दया, करुणा, मैत्री, समभाव, बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय, वसुधैव कुटुम्बकम और आत्मवत सर्वभूतेषु की भावनाओं से भरा हुआ है। जो लोग शुद्ध इंसानी बीजों से बने होते हुए उनमें यह भावना कूट-कूट कर भरी हुई होती है।
दूसरी ओर आजकल हर तरफ ऎसे-ऎसे लोग आ गए हैं जो इंसानियत को शर्मसार करने का कोई मौका नहीं चूकते। फिर सभी जगह ऎसे-ऎसे लोगों के समूह बन गए हैं जो कि छापामार युद्ध की तरह अपने स्वार्थों के लिए टोलियां बनाकर सामाजिकता और इंसानियत पर हमला करते रहते हैं।
इन लोगों में और सब कुछ देखने भले ही मिल जाए, इंसानियत कभी देखने में नहीं आती। ये लोग अफ्रीकन कुत्तों की तरह समूहों में जमा होकर अपनी कारगुजारियां करते रहते हैं। इन कुत्तों के बारे में कहा जाता है कि ये खूंखार और हिंसक जरूर हैं लेकिन अकेले कोई सा काम नहीं कर पाते हैं। पेट की भूख जग जाने पर ये अकेले शिकार तक नहीं कर पाते, इसके लिए इन्हें समूह बनाकर अपने काम करने होते हैं। आजकल जगह-जगह वर्णसंकर कुत्तों के डेरे बने हुए हैं जो रोजाना कोई न कोई शिकार तलाशते रहते हैं। इन डेरों में हर तरह के हिंसक और शोषक श्वान देखने को मिल जाते हैं।
मानवीय संवेदनाओं, नैतिक मूल्यों और आदर्शों से हीन ऎसे लोग धूर्त, मक्कार, स्वार्थी, अपने छोटे से लाभ के लिए औरों का गला घोंट देने का काम करने वाले, दिन-रात सज्जनों की बुराई और निंदा का रसपान करने वाले, शोषक, अमानवीय व्यवहार करने वाले, लुटेरे, भ्रष्ट, रिश्वतखोर, बेईमान, कमीशनबाज, हर काम में अपने लिए पैसों की तलाश करने वाले, बिना मेहनत के पैसा बनाने वाले, डरा-धमका कर और ब्लेकमेलिंग कर सम्पत्ति और संसाधन जुटाने वाले, इंसान को इंसान नहीं समझने वाले, अपनी तरह के नालायकों को साथ लेकर मानवता पर हमले करने वाले और इंसानियत के खिलाफ काम करने वाले खूब सारे लोग हमारे आस-पास भी हैं और दूसरे सभी स्थानों पर भी।
ये लोग अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी करने करवाने को तैयार रहते हैं, इनके लिए पात्रता कोई मायने नहीं रखती, अपने जायज-नाजायज कामों के सिवा। इन किस्मों के सारे के सारे लोग इंसान की शक्ल में ऎसे भेड़िये हैं जिनमें दूसरे सारे खूंखार और हिंसक जानवरों के गुणधर्म समाहित हैं।
इंसानियत खो चुके इन सभी तरह के लोगों को वर्णसंकर ही माना जाना चाहिए क्योंकि इनके भीतर का इंसानी बीज नष्ट हो चुका है अथवा मिलावट आ गई है। कईयों में तो इतनी मिलावट आ गई है कि इनके हरेक कर्म कुकर्म और पाप की श्रेणी में आते हैं।
ऎसे वर्णसंकर लोगों की छाया तक से पाप लगता है। वर्णसंकरता का यह भीषण दोष हर तरफ पाँव पसार चुका है। कई बड़े-बड़े लोग भी इसके शिकार हो गए हैं और छोटे भी। जितना बड़ा आदमी इंसानियत खो चुका होता है वह उतना बड़ा वर्णसंकर माना चाहिए क्योंकि उसके पास वर्ण संकरता की मार्केटिंग की अपार और अनन्त संभावनाएं होती हैं जिनका लाभ लेकर वह इंसानियत का गला घोंटता रहता है।
वर्णसंकरों के बारे में सोचने, उनका साथ देने, उनके साथ काम करने या उनसे किसी भी प्रकार का व्यवहार करने वालों को भी संसर्ग दोष लगता है। इसलिए दूर रहें इन वर्ण संकरों से। अपने आपको शुद्ध-बुद्ध बनाए रखें, इंसानियत, ईमान और धर्म की राह पर चलें।