पाक से रिश्तों पर जेटली की लक्ष्मण रेखा
नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री की शपथ ली थी, उस दिन ऐसा लग रहा था कि दक्षिण एशिया में एक नए सूर्य का उदय हो रहा है। पिछले 67 साल से दक्षिण एशिया के पांव में बंधी बेडि़यां अब टूटने ही वाली हैं। दक्षिण एशिया की एकता और समृद्धि के मार्ग में सबसे बड़ा रोड़ा है−− भारत−पाक संबंध! यों तो अन्य पड़ौसी देशों के साथ भारत के संबंध नरम−गरम होते रहते हैं लेकिन उनके साथ दुश्मनी या युद्ध की नौबत कभी नहीं आती। इस बार सारे विरोधों के बावजूद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ का हमारे प्रधानमंत्री के शपथ−समारोह में आना इस बात का सबूत था कि भारत−पाक संबंधों के ‘अच्छे दिनों’ की शुरुआत हो गई है।
लेकिन पिछले चार−पांच महिनों में ऐसा माहौल बन गया है कि उसकी काली छाया कहीं अगले पांच सालों को अंधकारमय न ही कर दे। हमारे रक्षा मंत्री अरुण जेटली ने अपने भाषण में अभी−अभी एक लक्ष्मण−रेखा खींच दी है। उनका कहना यह है कि हुर्रियत के लोगों से बात करना लक्ष्मण−रेखा का उल्लंघन है। उनसे न भारत बात करे, न पाकिस्तान! पाकिस्तानी उच्चायुक्त ने हुर्रियत के नेताओं से भेंट कर ली तो हमने अपनी विदेश सचिव की इस्लामाबाद−यात्रा को रद्द कर दिया। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इस बिगड़ी बात को बनाने की कोशिश भी की। उन्होंने कहा कि कूटनीति में पूर्ण विराम नहीं होता। अल्पविराम आते हैं, चले जाते हैं। लेकिन रक्षा मंत्री फिर कूद पड़े। उन्होंने दुबारा पूर्ण विराम जड़ दिया। रक्षा मंत्री की विदेश नीति का पाक प्रवक्ता ने मुंहतोड़ जवाब नहीं दिया लेकिन उसने जो जवाब दिया, वह मुंहमोड़ जरुर माना जा सकता है। उसने पूछा है कि जब एक देश दूसरे देश से किसी मुद्दे पर बात करता है तो क्या वह उस पर मेहरबानी करता है?
यह मेहरबानी की मुद्रा ही भारत की सबसे बड़ी दुश्मन है। भारत के छोटे−छोटे पड़ौसी देशों के भले के लिए भारत क्या−क्या त्याग नहीं करता है लेकिन कुछ भारतीय नेताओं और राजदूतों ने जाने−अनजाने पड़ौसी देशों में ऐसी गलतफहमी पैदा कर दी है कि वे भारत की मेहरबानी पर ही निर्भर हैं। यदि अरुण जेटली अपनी कूटनीतिक अपरिपक्वता का प्रदर्शन नहीं करते तो मुझे पूरा विश्वास है कि भारत−पाक वार्ता फिर शुरु हो सकती थी। इस माह काठमांडो में होनेवाले दक्षेस सम्मेलन में दोनों देशों के नेता मिलते और विदेश सचिवों की वार्ता का टूटा तार जुड़ जाता। यदि अब वार्ता फिर शुरु होती तो क्या पाकिस्तानी उच्चायुक्त दुबारा हुर्रियत से मिलता?
यदि अगस्त में होनेवाली यह वार्ता जारी रहती तो क्या सितंबर−अक्तूबर में हुआ गोलीबार इतना लंबा चलता? दोनों तरफ के दर्जनों लोग मारे गए, सीमांत के गांव खाली हो गए और दोनों देशों के नेता जबानी जमा−खर्च करते रहे। यदि दोनों देशों के बीच अनबोला नहीं होता तो दोनों प्रधानमंत्रियों और विदेश मंत्रियों को आपस में बात करने की जरुरत ही नहीं पड़ती, उनके स्थानीय फौजी अफसर ही सारे मामले को सुलझा लेते। सीमांत की झड़पों ने दोनों देशों की जनता के मन भी खट्टे कर दिए। उसी माहौल में दोनों देशों के नेता संयुक्तराष्ट्र संघ भी गए। वह स्वर्ण अवसर भी खोया गया। मियां नवाज़ ने वही पुराना राग कश्मीर छेड़ दिया। मोदी ने जवाबी हमला नहीं किया लेकिन महाराष्ट्र की चुनाव सभाओं में ‘दुश्मन’ को सबक सिखाने की भाषा बोली। यदि सीमांत झड़पें नहीं होतीं और पारस्परिक वार्ता चलती रहती तो क्या दोनों देशों के नेता संयुक्तराष्ट्र संघ में नहीं मिलते? जून में जब मैं पाकिस्तान में प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ, विदेश मंत्री सरताज अजीज और विदेश सचिव चौधरी एजाज अहमद से मिला तो तीनों ने मुझसे आग्रहपूर्वक कहा कि नरेंद्र मोदीजी यदि सितंबर−अक्टूबर में किसी समय पाकिस्तान की सद्भावना−यात्रा कर सकें तो बहुत अच्छा हो। वे चाहते थे कि काठमांडो के दक्षेस सम्मेलन के पहले ही दोनों देशों के बीच सर्वाधिक अनुग्रहीत राष्ट्र’ का मामला सुलझ जाए, पाकिस्तानी पंजाब को भारत बिजली सप्लाय कर दे, भारतीय माल के पश्चिम एशिया और यूरोप जाने के लिए थल−मार्ग खुल जाए। उक्त तीनों के अलावा पाकिस्तान के जितने भी नेता, फौजियों और विशेषज्ञों से मैं मिला, मैंने उन्हें प्रेरित किया कि वे अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी के बाद उस देश में भारत−पाक सहयोग का कोई नक्शा तैयार करें।
ज़रा हम सोचें कि यदि भारत−पाक वार्ता हुर्रियत के बहाने भंग नहीं होती तो पिछले पांच माह में दोनों देश शायद इतना सफर तय कर लेते, जितना कि पिछले 50 साल में भी नहीं हुआ है। नरेंद्र मोदी के प्रति पाकिस्तान के बदले हुए रुख को देखकर मुझे सुखद आश्चर्य हो रहा था। मेरी दर्जनों भेंटों, परिसंवादों, भाषणों और टीवी बहसों में मैंने मोदी के प्रति वैसी विषाक्त कटुता कहीं नहीं देखी कि जैसी कि उनके प्रधानमंत्री बनने के पहले देखी जाती थी। पाकिस्तान में किसी की हिम्मत नहीं थी कि मोदी और भारत को लेकर कोई ऐसी बात कहे कि जैसी ‘जमातुल अहरार’ के प्रवक्ता एहसानुल्लाह एहसन ने अभी वागाह हमले के बाद कही है। एहसन ने यह खुले आम कहा है कि उनका संगठन मोदी से गुजरात और कश्मीर के मुसलमानों की हत्या का बदला जरुर लेगा। ऐसे आतंकवादी गिरोहों के खिलाफ नवाज़ शरीफ सरकार ने बाकायदा युद्ध छेड़ रखा है लेकिन यदि दोनों सरकारों में अनबन नहीं होती तो दोनों मिलकर ऐसी धमकियों के विरुद्ध संयुक्त अभियान चलाते। ‘जमातुल अहरार’ के आतंकवादियों को यह अंदाज नहीं है कि यदि मोदी का किसी ने बाल भी बांका कर दिया तो आसमान कैसे फटेगा और जमीन कैसी पाताल में धंसेगी। इस्लाम के नाम पर ऐसा कुकर्म करनेवाले लोग इस्लाम और मुसलमानों के सबसे बड़े दुश्मन सिद्ध होंगे। अपने आप को ‘तालिबान’ कहनेवाले इन आतंकवादियों की काली करतूतों का खामियाजा और किसे नहीं, बेकसूर मुसलमानों को ही भुगतना पड़ेगा। गोधरा−कांड जिन्होंने किया, वे आज तक दंडित नहीं हुए लेकिन लाखों बेकसूर गुजराती मुसलमानों को उसका खामियाज़ा भुगतना पड़ा। ऐसी काली करतूत दोहराई न जाए और वह भारत−पाक तनाव या युद्ध का कारण न बने, इसके लिए जरुरी है कि भारत−पाक वार्ता जारी रहे।
यदि वार्ता जारी रहती तो कश्मीर में आई बाढ़, दोनों देशों को जोड़ने का काम करती। नरेंद्र मोदी ने बड़ी उदारता का परिचय दिया। उन्होंने तुरंत ही घोषणा की कि वे पाकिस्तानी कश्मीर को मदद भेजने के लिए तैयार हैं। पाकिस्तान के किसी प्रवक्ता ने बड़ी हिकारत के साथ इस पहल को रद्द कर दिया लेकिन दूसरे ही दिन मियां नवाज ने मोदी के प्रति गरिमामय आभार प्रकट किया। यदि मोदी−नवाज़ वार्तालाप जारी रहा होता तो यही कश्मीर जो कि दोनों देशों के बीच खाई बना हुआ है, आज एक सेतु बन जाता।
दोनों देशों की सरकारों के बीच वार्तालाप जारी रहना इसलिए भी जरुरी है कि पाकिस्तानी फौज थोड़ी निर्भय हो सके। भारत−पाक तनाव ही पाकिस्तानी फौज की रसद है। भारत−भय ही उसकी शक्ति है। यदि भारत−भय घटे तो राजनीतिक नेताओं का वजन बढ़े। राजनीतिक नेताओं का वज़न बढ़ता है तो लोकतंत्र मजबूत होता है। दक्षिण एशिया के सभी देशों में लोकतंत्र को बढ़ावा देना भारत की जिम्मेदारी है। यदि भारत−पाक संबंध फिलहाल मधुर न हों तो न हों, कम से कम बातचीत के लायक हो जाएं तो काठमांडो के दक्षेस सम्मेलन में चार चांद लग जाएंगे। अब देखना है कि नरेंद्र मोदी ने मई में जो बीज बोए थे, उन्हें वे नवंबर तक पुष्पित−पल्लवित होते देखना चाहते हैं या नहीं।
(लेखक, भारतीय विदेशनीति परिषद के अध्यक्ष हैं)