उगता भारत ब्यूरो
गाँधीजी के निकटतम सहयोगी रहे स्व. धर्मपालजी ने गाँधीजी के कहने पर 17वीं व 18 वीं शताब्दी के भारत की राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर गहन शोध किया था। उन्होंने लाखों दस्तावेज इकठ्ठे किए और जगह-जगह जाकर तथ्यों की पड़ताल की। इस व्यापक शोध को उन्होंने पुस्तक के रुप में प्रकाशित किया। इस पुस्तक के सभी तथ्य आँखें खोलने वाले हैं और किसी भी भारतीय को गर्व करने पर मजबूर कर देते हैं कि हमारा देश आज से 300 साल पहले कितनी उँचाई पर था।
अंग्रेजों के भारत आगमन के पूर्व भारत शिक्षा, कृषि, हस्तशिल्प आदि अनेक क्षेत्रों में अग्रणी था, किन्तु अंग्रेजों ने योजनापूर्वक भारत की संपत्ति का शोषण करने के लिए इसे पददलित किया । 1835 में बिलियम एडम ने बंगाल और बिहार के गाँवों में शिक्षा की स्थिति को लेकर एक सर्वेक्षण किया था। उसने अपने प्रथम विवरण में लिखा था कि 1830 से 1840 के वर्षों में बंगाल और बिहार के गांवों में एक लाख के लगभग पाठशालाएं थीं । चेन्नई प्रदेश के लिए भी ऐसा ही अभिमत टॉमस मनरो ने व्यक्त किया था । उसके अनुसार “वहां प्रत्येक गाँव में एक पाठशाला थी”। इसी प्रकार मुम्बई प्रेसीडेंसी के जी.एल.प्रेंटरगास्ट नामक वरिष्ठ अधिकारी ने लिखा कि “गाँव बड़ा हो या छोटा, यहाँ शायद ही कोई ऐसा गाँव होगा, जिसमें कमसेकम एक पाठशाला न हो। बड़े गाँवों में तो एक से अधिक पाठशालाएं भी थीं ।
अंग्रेज अधिकारियों के लिए इन सर्वेक्षणों को पचा पाना बहुत मुश्किल था । क्योंकि उनके देश में सन 1800 तक आम परिवार के बच्चों के लिए पाठशालाओं की व्यवस्था बहुत साधारण स्तर की ही थी । इतना ही नहीं तो जो विद्यालय थे भी उनकी स्थिति भी बहुत दयनीय थी । इतना ही नहीं तो जब भारत तथा इंग्लेंड के बीच शिक्षा, उद्योग, हस्तकला, कृषि आदि की तुलना हुई तो यह दिखाई दिया कि भारत के कृषि मजदूर को इंग्लेंड के कृषि मजदूर की तुलना में अधिक वेतन प्राप्त होता था। इन सर्वेक्षणों से एक बात निर्विवाद रूप से सिद्ध हुई कि गुलामी काल में यद्यपि भारत कंगाल बना, किन्तु उसके बाद भी भारत में शिक्षा का प्रसार, शिक्षा पद्धति, पाठ्यक्रम आदि की गुणवत्ता और व्यापकता उन दिनों भी इंग्लेंड की अपेक्षा अच्छी थी । साथ ही भारत की पाठशालाओं का वातावरण भी इंग्लेंड की पाठशालाओं की तुलना में विशेष आत्मीयता पूर्ण और नैसर्गिक था ।
भारत में बड़े पैमाने पर व्याप्त शिक्षा व्यवस्था का मूल कारण था उसकी अर्थ व्यवस्था। अंग्रेजों का शासन आने के पूर्व कठिन समय में भी राज्य की आय का बड़ा हिस्सा लोककल्याण के कार्यं में खर्च किया जाता था। किन्तु अंग्रेजों का शासन आते ही शासकीय आय का केन्द्रीकरण हो गया और लोक कल्याण के लिए खर्च करने की व्यवस्था टूट गई।
एडम द्वारा किये गए सर्वेक्षण के अनुसार उन दिनों प्राथमिक शिक्षा की चार श्रेणियां थीं। प्रथम दस दिन तक छात्र जमीन पर सलाई या बांस की पट्टी से अथवा रेत पट्टी पर अक्षर लिखना सीखता था। द्वितीय ढाई से चार वर्ष की अवधी में छात्र को ताडपत्र पर अक्षर ज्ञान दिया जाता था। उसमें लिखाई पढाई, अंकज्ञान तथा जमीन नापने की सारिणियों की शिक्षा दी जाती थी।
तृतीय श्रेणी में दो से तीन वर्ष तक छात्र को केले के पत्तों पर लिखना सिखाया जाता था । गणित की शिक्षा भी दी जाती थी।
चतुर्थ श्रेणी में दो वर्ष तक छात्रों को कागज़ पर शिक्षा दी जाती थी। छात्रों को अपने घर पर रामायण, मानस मंगल जैसे ग्रंथों का अध्ययन करने के लिए कहा जाता था। साथ ही उन्हें हिसाब, पत्र लेखन, आवेदन लेखन आदि की शिक्षा भी दी जाती थी।
एडम के सर्वेक्षण का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि उन दिनों शिक्षक केवल ब्राह्मण ही नहीं होते थे, वरन उनमें बहुतायत से कायस्थ, सदगोप आदि के साथ कुछ चांडाल जाति के शिक्षक भी थे। छात्रों में भी सभी जातियों का प्रतिनिधित्व था। ब्राहमण, छत्रिय आदि की संख्या तो अधिकतम 40 प्रतिशत ही थी। सामान्यतः 5 से 8 वर्ष की आयु में शाला प्रवेश होता था और 13 से 16 वर्ष की आयु में छात्रों का अध्ययन पूर्ण होता था।
एडम के सर्वेक्षण के 45 वर्ष बाद डॉ. जी.डब्लू. लीटनर द्वारा पंजाब प्रांत में पारंपरिक भारतीय शिक्षा को लेकर व्यापक सर्वेक्षण किया। डॉ. लीटनर लाहौर के सरकारी कोलेज में प्रिंसिपल थे । वे कुछ समय तक पंजाब सरकार के शिक्षा विभाग में निदेशक के पद पर भी रहे थे। उनके निष्कर्ष भी एडम के सामान ही थे, बल्कि यूं कहा जाए कि अधिक स्पष्ट और असंदिग्ध थे। लीटनर अपने सर्वेक्षण में लिखते हैं कि, “ जब पंजाब अंग्रेजों के अधिपत्य में आया, तब वहां विभिन्न स्तर की पाठशालाओं में तीन लाख तीस हजार छात्र थे। वे सभी लिख पढ़ सकते थे, साथ ही साधारण गणना भी कर सकते थे।”
इन अभिलेखों से एक बात और स्पष्ट परिलक्षित होती है कि 18वीं शताब्दी में या 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक भारत में उच्च शिक्षा के अंतर्गत धर्मशास्त्र, न्यायशास्त्र, तर्कशास्त्र, आयुर्वेद, ज्योतिष शास्त्र, खगोल शास्त्र जैसे विषय सर्वत्र पढाये जाते थे। तथापि इन सबमें परम्परागत तंत्र विज्ञान, हस्तकला कौशल, संगीत व नृत्यकला का उल्लेख नहीं मिलता। इसका कारण संभवतः यह रहा होगा कि भारत में यह शिक्षा विद्यालयों में नहीं अपितु वंश परम्परा के रूप में घरों पर अथवा निश्चित जाति समूहों में दी जाती रही होगी। इसको स्पष्ट करते हुए 7-1-1790 को डॉ स्कोट द्वारा रॉयल सोसायटी लन्दन के अध्यक्ष सर जोसेफ बेन्कस को एक पत्र लिखा गया था –
“भारत के कला कौशल की शिक्षा प्राप्त करना अत्यंत जटिल है । इन कारीगरों की शिक्षा तो परंपरा के तौर पर निश्चित जातियों में ही होती है । पीढी दर पीढी दिया जाने इस प्रकार का शिक्षण अपनी जाती के अलावा और किसी जाति को देने पर देने वाले को दण्डित किया जाता था । उसे जाती वहिष्कृत कर दिया जाता था । यह दण्ड इतना भयंकर माना जाता था कि इसके भय से कोई व्यक्ति ऐसी शिक्षा औरों को देने का साहस ही नहीं करता था।”
19 वीं शताब्दी में उस समय के लोग किस प्रकार के हुनर जानते हैं उसकी एक सूची बनाई गई –
चिनाई से सम्बंधित कारीगर –
पत्थर तरासने वाला, लकड़ी चीरने वाला, कुंवा तालाब खोदने वाला, छूना बनाने वाला, बांस का काम करने वाला, बढई, संगमरमर की खान में काम करने वाला, ईंट बनाने वाला ।
धातु विद्या के कारीगर –
कच्चे लोहे के कारीगर, लोहे की भट्टी के कारीगर, पीतल का काम करने वाले, स्वर्णरज इकट्ठी करने वाले कारीगर, घोड़े की नाल बनाने वाले कारीगर, मुहर बनाने वाले कारीगर, लोहा निर्माण करने वाले कारीगर, लोहे की सलाखें बनाने वाले कारीगर, ताम्बे के कारीगर, लोहार, सोनी, सीसा शुद्ध करने वाले कारीगर ।
कपड़ा उद्योग से सम्बंधित कारीगर –
रुई साफ़ करने वाले कारीगर, मुलायम चमकीला कपड़ा बुनने वाले, रेशम बुनने वाले जुलाहे, नाई जाती के जुलाहे, नील बनाने वाले, हाथ करघा बनाने वाले, मुलायम कपड़ा बुनने वाले, खुरदुरा कपड़ा बुनने वाले, दरी बनाने वाले, कालीन बनाने वाले, कम्बल बनाने वाले, डोरी के परदे बनाने वाले, बोरे बनाने वाले ।
अन्य कारीगर –
कागज़ बनाने वाले, पटाखे बनाने वाले, तेली, चमार, दर्जी, वनौषधि इकट्ठी करने वाले, चन्दन की लकड़ी का काम करने वाले, छाता बनाने वाले, अगरिया, धोबी, नाविक, शराब बनाने वाले, साबुन बनाने वाले, चावल पीसने वाले, मछुआरे, चटाई बनाने वाले, चित्रकारी करने वाले।
18वीं, 19वीं शताब्दी में भारत आये अंग्रेज अधिकारियों और पर्वासियों द्वारा लिखे गए लेखों के आधार पर ही चार्ल्स मेटकाफ और हेनरी मोईनी ने भारत को प्रजातांत्रिक गाँवों का देश निरूपित किया । उनके अनुसार उस समय भारत के गाँव भी राज्यों के समान एक दूसरे से पूर्णतः स्वतंत्र थे। गांवीं की सारी राजस्व आय के ऊपर गाँव उन गाँवों का ही अधिकार रहता था। भारतीय समाज और राजतंत्र भले ही एक राष्ट्र के तौर पर सदा संगठित और एक सूत्र में आबद्ध रहे हों, किन्तु समाज या शासन तंत्र किसी केन्द्रीय व्यवस्था से कभी जुड़े हुए नहीं रहे । शायद इसी कारण सैन्य सुरक्षा संबंधी कमजोरी रही। किन्तु इसके बाद भी अगर भारतीय समाज जीवन बचा रहा तो उसे समझने के लिए यूरोपीय चश्मा नहीं, बल्कि भारतीय दृष्टि आवश्यक है।
(साभार)