हिन्दू सनातनियों के लिए अपनी जड़ों की ओर लौटने का समय अब आ गया है – नव वर्ष में हमें यह संकल्प लेना चाहिए

आज पूरा विश्व ही आश्चर्य चकित है कि भारत ने कोरोना महामारी की प्रथम एवं द्वितीय लहर का, विकसित एवं अन्य कई देशों की तुलना में, इतना सफल तरीके से सामना कैसे किया है। विश्व के कई देश तो आज कोरोना महामारी की तीसरी एवं चौथी लहर से जूझते नजर आ रहे हैं परंतु भारत में अभी तक तो कोरोना महामारी नियंत्रण में दिखाई दे रही है एवं इसकी तीसरी लहर की सम्भावना अब कम ही नजर आ रही है। हां, अब आगे देखने की बात है कि ओमीक्रॉन का प्रभाव भारत पर किस प्रकार पड़ता है।

कोरोना महामारी ने फरवरी 2020 के बाद जब भारत में अपने पांव पसारना शुरु किए थे तभी से यह देखने में आया था कि हिन्दू सनातनी परम्पराओं को अपना कर कोरोना महामारी के विपरीत प्रभाव को कम किया जा सकता है। कोरोना महामारी ने पूरे विश्व के लगभग सभी देशों को प्रभावित किया। कहीं कहीं तो इस महामारी का प्रभाव इतना बलशाली रहा कि उस देश की जनसंख्या का बहुत बड़ा भाग इस बीमारी की चपेट में आकर संक्रमित हो गया। लगभग सभी देशों की अर्थव्यवस्थाएं तो चौपट हो ही गई। भारत ने भी इस संदर्भ में कई चुनौतियों का सामना बहुत ही हिम्मत के साथ किया। हमारे देश में समाज के कई वर्गों पर कोरोना महामारी का व्यापक असर देखने में आया। जैसे कोरोना से संक्रमित परिवारों पर, स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने वाले परिवारों पर, मध्यमवर्गीय एवं गरीब परिवारों पर, छोटे कारोबारियों पर एवं आर्थिक गतिविधियों पर अलग अलग प्रकार का दबाव देखने में आया। परंतु देश में उक्त वर्णित वर्गों पर आई इन चुनौतियों का समाधान निकालने के प्रयास केंद्र सरकार, राज्य सरकारों, धार्मिक संस्थाओं, सामाजिक संस्थाओं एवं सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा मिलकर किए गए। पूरा देश ही जैसे एक परिवार की तरह एक दूसरे की सहायता में तत्पर हो गया। कोरोना महामारी के कारण समाज के विभिन्न वर्गों पर आये दबाव को सभी वर्गों ने मिलकर कम करने में सफलता पाई।

विशेष रूप से कोरोना महामारी के दूसरे दौर के वक्त जब भारी संख्या में देश के नागरिक इस महामारी से ग्रसित हो रहे थे एवं उनकी देखभाल के लिए उनके अपने परिवार के लोग चाहकर भी उपलब्ध नहीं हो पा रहे थे क्योंकि संक्रमित मरीजों को अलग रखना जरूरी था। ऐसे माहौल में देश के नागरिकों में डर एवं अवसाद की भावना पैदा हो रही थी। कई परिवारों में तो माता पिता दोनों का देहांत हो जाने के बाद जब बच्चे अनाथ हो गए एवं इनके देखभाल की समस्या पैदा हो गई एवं कई मध्यमवर्गीय परिवारों ने अपनी बीमारी का इलाज कर्जा लेकर कराया, ऐसे में वे परिवार भारी ऋण के बोझ के तले दब गए। ऐसे समय में देश के धर्मगुरुओं से लेकर सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में काम कर रहे महानुभावों ने समाज में आए उक्त दबाव को कम करने का भरपूर प्रयास किया। उन्होंने प्रभावित परिवारों से व्यक्तिगत रूप से सम्पर्क किया, उन्हें ढाढ़स बन्धाया एवं उनके मन में सकारात्मक विचारों का संचार किया। देश पर आए इस संकट के समय लगभग पूरा समाज ही एक दूसरे के साथ हिम्मत के साथ खड़ा रहा। कई लोगों ने तो रचनात्मक कार्यों को करते हुए अपने आप को व्यस्त रखने का प्रयास किया। कोई भी भूखा ना रहे कोई भी बगैर इलाज के ना रहे, इसके लिए प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से इन लोगों ने अपने आप को सेवा के कार्यों से जोड़ लिया। यह सब केवल भारत में ही सम्भव है क्योंकि हिन्दू सनातनी परम्पराओं में “वसुधैव कुटुंबकम” के सिद्धांत पर विश्वास किया जाता है।

कोरोना महामारी के फैलने के बाद पूरे विश्व को ही ध्यान में आया कि भारतीय योग, ध्यान, शारीरिक व्यायाम, शुद्ध सात्विक आहार एवं उचित आयुर्वेदिक उपचार के साथ इस बीमारी से बचा जा सकता है। भारतीय विचार परंपरा में प्रकृति को भी भगवान का दर्जा दिया गया है। हम तो ‘क्षिति जल पावक गगन समीरा’ को मानने वाले लोग हैं। हमारी परंपरा में नदी, पर्वत और जल को पूजे जाने की परंपरा रही है। भारत में आज भी परम्परा अनुसार किसी भी शुभ अवसर पर प्रकृति को भी याद किया जाता है। इसके साथ ही, भारतीय ज्ञान परंपरा में जिन औषधियों की चर्चा मिलती है, आज वो अचानक बेहद महत्वपूर्ण हो गई हैं। आज पूरी दुनिया में भारतीय खान-पान की आदतों को लेकर विमर्श हो रहा है। भारत में तो हर मौसम के हिसाब से भोजन तय है। मौसम तो छोड़िए, सूर्यास्त और सूर्योदय के बाद या पहले क्या खाना और क्या नहीं खाना ये भी बताया गया है। पश्चिमी जीवन शैली के भोजन या भोजन पद्धति से इम्यूनिटी नहीं बढ़ने की बात आज समझ में आ रही है। आज भारतीय पद्धति से भोजन यानि ताजा खाने की वकालत की जा रही है, फ्रिज में रखे तीन दिन पुराने खाने को हानिकारक बताया जा रहा है। कोरोना काल के दौरान पूरी दुनिया ने भारतीय योग विद्या को आशा भरी नजरों से देखा है। आज श्वसन प्रणाली को ठीक रखने, जीवन शैली को संतुलित रखने की बात हो रही है। भारत में तो इन चीजों की एक सुदीर्घ परंपरा रही है।

इस प्रकार अब ऐसा लगाने लगा है कि हमें अपनी भारतीय परम्पराओं की जड़ों की ओर लौटने का समय आ गया है। जैसे संयुक्त परिवारों की वापस व्यवस्था हो। संयुक्त परिवारों में पड़ौसियों को भी महत्व देना प्रारम्भ करना चाहिए ताकि किसी भी प्रकार की समस्या आने पर पूरे मौहल्ले में रहने वाले परिवार मिलकर उस समस्या का समाधान निकाल सकें। मानसिक स्वास्थ्य भी इससे ठीक रहेगा। आज यदि हम ध्यान से देखें तो समझ में आता है कि वैश्विक स्तर पर कोरोना महामारी के प्रभाव को कम करने के लिए किए जा रहे प्रयासों में हमारी भारतीय परम्पराओं की झलक स्पष्ट तौर पर दिखाई दी थी। जैसे मास्क पहनना (अहिंसा), अपने आस-पास स्वच्छता का वातावरण बनाए रखना (पवित्रता), शारीरिक दूरी बनाए रखना (भारत में व्याप्त हाथ जोड़कर अभिवादन करने की पद्धति को तो आज पूरे विश्व ने ही अपना लिया है), निजी तथा सार्वजनिक कार्यक्रमों में संख्या की सीमा का पालन करना (मर्यादित उपभोग), कर्फ़्यू पालन जैसे नियम (अनुशासन) एवं आयुर्वेदिक काढ़ा सेवन, भाप लेना (भारतीय चिकित्सा पद्धति की ओर भी आज पूरा विश्व आशा भारी नजरों से देख रहा है), योग क्रिया करना (भारतीय योग को भी आज पूरा विश्व अपनाता दिख रहा है), टीकाकरण जैसे स्वास्थ्य के विषयों के बारे में व्यापक जनजागरण करना आदि का वर्णन तो सनातनी परम्परा एवं धर्म ग्रंथो, वेदों, पुराणों में भी दृष्टिगोचर होता है।

भारतीय जनमानस को हिन्दू सनातनी परम्पराओं के प्रति जागृत करने के उद्देश्य से देश में कई धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठन विशेष प्रयास कर रहे हैं। उदाहरण के तौर पर यहां राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का नाम लिया जा सकता है जो पिछले 96 वर्षों से देश के नागरिकों में देशप्रेम की भावना का संचार करने का लगातार प्रयास कर रहा है। वर्ष 1925 में विजयादशमी के दिन संघ के कार्य की शुरुआत ही इस कल्पना के साथ हुई थी कि देश के नागरिक स्वाभिमानी, संस्कारित, चरित्रवान, शक्तिसंपन्न, विशुद्ध देशभक्ति से ओत-प्रोत और व्यक्तिगत अहंकार से मुक्त बने। आज संघ, एक विराट रूप धारण करते हुए, विश्व में सबसे बड़ा स्वयं सेवी संगठन बन गया है। संघ के शून्य से इस स्तर तक पहुंचने के पीछे इसके द्वारा अपनाई गई विशेषताएं यथा परिवार परंपरा, कर्तव्य पालन, त्याग, सभी के कल्याण विकास की कामना व सामूहिक पहचान आदि विशेष रूप से जिम्मेदार हैं। संघ के स्वयंसेवकों के स्वभाव में परिवार के हित में अपने हित का सहज त्याग तथा परिवार के लिये अधिकाधिक देने का स्वभाव व परस्पर आत्मीयता और आपस में विश्वास की भावना आदि मुख्य आधार रहता है। “वसुधैव कुटुंबकम” की मूल भावना के साथ ही संघ के स्वयंसेवक अपने काम में आगे बढ़ते हैं।

कई अन्य क्षेत्रों में भी आज पूरा विश्व भारतीय परम्पराओं को अपनाने की ओर आगे बढ़ रहा है जैसे कृषि के क्षेत्र में केमिकल, उर्वरक, आदि के उपयोग को त्याग कर “ओरगेनिक फार्मिंग” अर्थात गाय के गोबर का अधिक से अधिक उपयोग किए जाने की चर्चाएं जोर शोर से होने लगी हैं। पहिले हमारे आयुर्वेदिक दवाईयों का मजाक बनाया गया था और विकसित देशों ने तो यहां तक कहा था कि फूल, पत्ती खाने से कहीं बीमारियां ठीक होती है, परंतु आज पूरा विश्व ही “हर्बल मेडिसिन” एवं भारतीय आयुर्वेद की ओर आकर्षित हो रहा है। हमारे पूर्वज हमें सैकड़ों वर्षों से सिखाते रहे हैं कि पेड़ की पूजा करो, पहाड़ की पूजा करो, नदी की रक्षा करो, तब विकसित देश इसे भारतीयों की दकियानूसी सोच कहते थे। परंतु पर्यावरण को बचाने के लिए यही विकसित देश आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई सम्मेलनों का आयोजन करते हुए कहते हुए पाए जाते हैं कि पृथ्वी को यदि बचाना है तो पेड़, जंगल, पहाड़ एवं नदियों को बचाना ही होगा। कुल मिलाकर ऐसा आभास हो रहा है कि जैसे पूरा विश्व ही आज भारतीय परम्पराओं को अपनाने की ओर आतुर दिख रहा है।

1 जनवरी 2022 को प्रारम्भ हो रहे नए केलेंडर वर्ष पर यह संकल्प लिया जा सकता है कि हम सभी हिन्दू सनातनी हमारी अपनी संस्कृति की परम्पराओं का, एक नए आत्मविश्वास के साथ, पुनः पालन प्रारंभ करें।

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