भारत की बढ़ती जनसंख्या में मिलते सुधार के नए संकेत
भारत की आबादी साल 2020 में एक अरब 38 करोड़ के आसपास थी और 2040 से 2048 के बीच इसके लगभग एक अरब 60 करोड़ तक हो जाने का अनुमान है। लेकिन मौजूदा सदी का आधा सफर पूरा होने के बाद आबादी में तेजी से गिरावट आने लगेगी। अनुमान है कि सदी के अंत तक जनसंख्या एक अरब या इससे कुछ कम रह जाएगी। लैंसेट की एक स्टडी में तो आबादी लगभग 72 करोड़ रह जाने का अनुमान जताया गया है। यानी मोटे तौर पर आज के लेवल के आधे पर। आबादी घटने से भारत की कई मौजूदा समस्याएं सुलझ सकती हैं, लेकिन कई नई दिक्कतें भी उभर सकती हैं।
भारत में फर्टिलिटी रेट यानी प्रति महिला बच्चों की औसत संख्या 2 के आसपास है। बांग्लादेश, श्रीलंका और मेक्सिको में भी यह रेट इसी के आसपास है। लेकिन उनके मुकाबले अपने यहां बच्चों की मृत्यु दर ज्यादा है। अपने यहां लाइफ एक्सपेक्टेंसी भी कम है। यानी इन देशों के मुकाबले भारत में लोगों की औसत आयु कम है। ऐसे में आबादी में गिरावट आने पर बड़ी दिक्कत खड़ी हो सकती है। आगे चलकर बच्चों, नौजवानों, बूढ़ों और महिलाओं का अनुपात अगर ठीक नहीं रहा, शिक्षा और स्वास्थ्य की देखभाल के बेहतर इंतजाम न हुए तो देश की तरक्की पर आंच आनी तय है।
अभी हाल यह है कि भारत में अंडरवेट और कमजोर शारीरिक विकास वाले बच्चों की संख्या सबसे ज्यादा है। आबादी में कामकाजी उम्र वालों की अधिक संख्या होने का फायदा था भारत के पास, लेकिन अब यह भी हाथ से निकलता जा रहा है। आबादी में 15 से 34 साल तक की उम्र वाले लोगों का हिस्सा साल 2011 में सबसे ज्यादा था। अब वहां से मामला ढलान पर है। इसका मतलब यह हुआ कि रिटायर्ड लोगों और बच्चों का हिस्सा आबादी में बढ़ेगा। इससे कामकाजी लोगों की तंगी महसूस होने लगेगी। दूसरी चुनौतियां भी आएंगी। एक तो पेंशन से जुड़ा बोझ बढ़ेगा, दूसरे नौजवानों पर बूढ़े लोगों की देखभाल की जिम्मेदारी भी बढ़ेगी।
दरअसल पश्चिमी देशों की संपन्नता और खुशहाली के स्तर तक पहुंचने से पहले ही भारत के बुढ़ा जाने का खतरा है। इसी डर के चलते चीन ने एक बच्चे वाली नीति से तौबा कर ली। अनुमान है कि चीन में महज 80 सालों में आज के मुकाबले आधे लोग रह जाएंगे। वहां आबादी में बूढ़ों और छोटे बच्चों का अनुपात बढ़ने का खतरा साफ दिख रहा है। भारत का हाल तो चीन से भी खराब हो सकता है। इसकी एक बड़ी वजह है। अपने यहां प्राइमरी एजुकेशन और हेल्थकेयर सिस्टम का हाल चीन से बदतर है।
चीन की इकॉनमी ने रफ्तार पकड़ी 1978 के बाद। भारत में 1991 के सुधारों के बाद अर्थव्यवस्था रफ्तार पर आई, लेकिन मामला चीन से सुस्त रहा। इसका एक बड़ा कारण है। चीन में जब देंग शियाओपिंग ने इकनॉमी को ओपन किया, तो उससे पहले माओ त्से तुंग एजुकेशन और हेल्थकेयर का मजबूत सरकारी तंत्र बना चुके थे। भारत में इकॉनमी के पास टेक-ऑफ करने के लिए ऐसा कोई रनवे नहीं था।
औसत चीनी नागरिक आज भारतीयों के मुकाबले 60 फीसदी ज्यादा प्रोडक्टिव है। लेकिन भारत से ज्यादा प्रोडक्टिव पॉपुलेशन होने के बावजूद चीन मुश्किल में है। उसकी आबादी में जिस गिरावट का अनुमान है, उसके चलते उसका आर्थिक भविष्य अंधकार में जा सकता है। चीन दुनिया की सबसे बड़ी इकॉनमी बनने की दहलीज पर है। लेकिन इस मुकाम पर वह 10-15 साल से ज्यादा नहीं टिक पाएगा। उसके बाद अमेरिका फिर से टॉप पर पहुंच जाएगा। फर्टिलिटी रेट तो अमेरिका में भी कम है, लेकिन अमेरिकी समाज का मिजाज उसे फायदा पहुंचाएगा। वहां दूसरे देशों से आने वालों के लिए काफी सहूलियतें हैं। दूसरी संस्कृतियों के लोगों को आसानी से स्वीकार कर लिया जाता है। इसके चलते वहां कामकाज में कुशल लोगों की कमी होने का खतरा नहीं है।
अब सवाल यह उठता है कि अगर आबादी में नौजवानों का हिस्सा घटने से इस तरह की चुनौतियां आने वाली हैं तो क्या किया जाए? क्या लोगों को ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए प्रेरित किया जाए? हां, ऐसा किया जा सकता है। लेकिन इसका कोई खास फायदा नहीं होने वाला। इसका सबूत मिल रहा है उन लगभग 20 देशों से, जिनकी आबादी घट रही है। मिसाल के लिए, चीन में सिंगल चाइल्ड पॉलिसी को खत्म कर उल्टी राह पकड़ ली गई, लेकिन इससे अब तक कोई सफलता नहीं मिली है। दरअसल, जिन वजहों से लोग परिवार छोटा रखने का फैसला करते हैं, वे किसी पॉलिसी के जरिए लालच देने पर नहीं बदलने वाली।
भारत में फर्टिलिटी रेट घटने की वजहों पर गौर करें तो पिक्चर साफ दिखेगी। महिलाओं का हाल सुधरने से वे अपनी जिंदगी बारे में खुद फैसले करने की हालत में आने लगी हैं। 18 साल की उम्र से पहले शादीशुदा हो जाने वाली महिलाओं की तादाद पिछले 15 सालों में घटकर आधी रह गई। किशोर उम्र में प्रेग्नेंट होने के मामले भी आधे से ज्यादा घट गए। कॉन्डम का यूज भी बढ़ा, एक तरह से दोगुना हो गया। सबसे बड़ी बात तो यह रही कि महिलाएं कह रही हैं कि अब उन्हें परिवार के अहम फैसलों में भागीदारी का ज्यादा मौका मिल रहा है। पिछले 15 वर्षों में ऐसी महिलाओं की संख्या 37 फीसदी से बढ़कर 89 फीसदी हो गई।
परिवार छोटा रखने में शहरीकरण का भी योगदान रहा। गांवों में बच्चा एक संसाधन भी है यानी उसे परिवार के कामकाज में हाथ बंटाना होता है। शहरों में तो जवान होने तक बच्चे की देखभाल की जिम्मेदारी मां-बाप के कंधों पर होती है। फिर मिडल और अपर क्लास के लिए एजुकेशन से लेकर हेल्थकेयर तक, बच्चे की परवरिश का खर्च इतना बढ़ चुका है कि लोग परिवार बढ़ाने के पहले सौ बार सोचते हैं। हाल यह हो गया है कि एजुकेशन और हेल्थकेयर की जिम्मेदारी से सरकारों ने जिस तरह पल्ला झाड़ा है, वह एक तरह से बहुत असरदार गर्भनिरोधक बन गया है। 1970 के दशक में संजय गांधी के कुख्यात ‘नसबंदी अभियान’ से भी ज्यादा असरदार।
तो ये जो वजहें हैं परिवार छोटा रखने की, क्या वे आगे चलकर रिवर्स हो जाएंगी? ऐसा नहीं होने वाला। अब और ज्यादा महिलाएं पढ़ेंगी-लिखेंगी। भारत में शहरीकरण और बढ़ेगा। लोगों की जिंदगी में धर्म और परिवार का दखल भी घटते जाने की उम्मीद है।
अब जब आबादी की बात चल ही रही है तो एक प्रोपगैंडा की पड़ताल भी कर ही ली जाए। कहा जाता है कि दूसरे धर्मों के लोगों के मुकाबले मुसलमानों में बर्थ रेट ज्यादा है। लेकिन जम्मू कश्मीर और लक्षद्वीप इस झूठ का पर्दाफाश कर देते हैं। दोनों ही जगहों पर मुसलमान बहुसंख्यक हैं। लेकिन वहां बर्थ रेट 1.3 ही है। देश के बाकी हिस्सों में कुछ जगहों पर मुसलमानों में फर्टिलिटी रेट ज्यादा है, लेकिन उसकी वजह धर्म नहीं है। उसका कारण है अशिक्षा और खराब जीवनस्तर। शिक्षा का स्तर सुधरने और संपन्नता आने पर मुसलमानों में भी फर्टिलिटी रेट घटने लगी है।
अब आते हैं उस चुनौती पर, जिसके चलते भारत का हाल चीन से भी बुरा हो सकता है। यानी आबादी में नौजवानों की संख्या घटने की चुनौती। भारत को सबसे पहले एक अहम मोर्चे पर फोकस करना होगा। जन्म लेने वाले अधिक से अधिक बच्चों की जिंदगी बचानी होगी। यह भी पक्का करना है कि वे आगे भी वे स्वस्थ रहें और उन्हें अच्छी शिक्षा मिले।
नीति आयोग ने जो सस्टेनेबल डिवेलपमेंट गोल तय किए हैं, उन्हें हासिल करने की दिशा में कदम बढ़ाए जाएं। सवाल यह है कि क्या हर राजनीतिक पार्टी उन्हें अपने चुनाव घोषणा पत्र में जगह दे सकती है? पार्टियों को ये लक्ष्य हासिल करने के लिए एक-दूसरे से होड़ करनी चाहिए। केंद्र से राज्यों को टैक्स में जो हिस्सा मिलता है और जो अनुदान मिलता है, उसे इन लक्ष्यों के आधार पर दिया जाए। यानी एक पर्सेंटेज तय किया जाए कि लक्ष्य का कितना हिस्सा हासिल करने पर कितना अनुदान मिलेगा। हर सांसद और विधायक अपनी वेबसाइटों पर बताए कि इन पैमानों के आधार पर उसके निर्वाचन क्षेत्र का क्या हाल है।
ऐसा करने के लिए सोच बदलनी होगी। कई पीढ़ियों से हम लोग आबादी ज्यादा होने के डर के साथ जी रहे हैं। ऐसे में आबादी घटने और इसके चलते दिक्कतें हो सकने की बात को गले उतारना आसान नहीं है। लेकिन जब सामने अलग चुनौती दिख रही हो, उस वक्त रियर मिरर को देखना खतरनाक हो सकता है।
आवाज़ : अंजुम शर्मा
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