वह देश कभी ना जीवित रहता ……

कविता – 2

मैं नियति से अनुबंध कर नित्य  एक  गीत  गाता  हूं,
बींध ह्रदय के तारों से कभी लिखता और मिटाता हूं।
दाता ने ये जीवन देकर संसार समर में भेज  दिया,
उस दाता के उपकारों को मैं मीठे स्वर से गाता हूं।।

मेरी बगिया में आकर एक कोयल मुझसे कहती है,
मधुमय वाणी से ही जग में पूजा नर की  होती  है ।
मधुमास बने उसका जीवन जो मधुरस को पीता हो,
वाणी को मीठा करने की कुछ ऐसी शिक्षा देती है।।

वेदों के सोमरस का मुझ पर असर निराला होता है,
अनुभव से ही कोई समझेगा कितना आला होता है?
वह जन बंधन मुक्त हुआ जिसने भी इसको जान लिया,
ऐसा विवेकशील मानव ही जग में ‘मतवाला’ होता है।।

उन्मत्त मति के मानव जग में ‘मत’ वाले होकर विचर रहे,
मदिरा चढ़ी मजहब की इन पर पाप कर्म से गुजर रहे ।
धर्म का ना मर्म समझते  सब नीच कर्म में हैं लिप्त हुए,
धर्मभ्रष्ट हुए मानव ने जग में कितने अब तक समर रचे ।।

लाखों नहीं करोड़ों जन की आहुति मजहब ने ले डाली है,
धर्म सिसकियां लेकर जीता पर मजहब की हालत माली है।
कुछ  लोग मजहबी चोले में कहीं बात अमन की करते हैं,
कथनी तो इनकी ऊंची है पर करनी की थाली खाली है ।।

यह देश राम और कृष्ण का है, नहीं ‘चरखा वाले’ लोगों का,
शत्रु संहारक बन उपचार करें जो देश में बढ़ते रोगों का ।
‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ जो नर इसमें विश्वास करे,
वही समझ लो सच्चा उपचारक है – गांधीवादी भोगों का।।

निज पूर्वजों के बलिदानों को जो देश भूलना चाहता हो,
जो जल्लादों के जुल्मों को भी चुप रह कर ही सहता हो।
वह देश कभी ना जीवित रहता मरना उसकी नियति है,
जो स्वदेशी को त्याग गर्व से सदा परदेसी अपनाता हो ।।

भ्रष्टाचारी हों जिस देश के शासक उसका डूबना निश्चित है,
जिस देश की व्यवस्था लूट मचाये उसका मरना निश्चित है।
जिस देश का नेता नारी को ‘टंचमाल’ कहकर उपहास करे,
‘राकेश’ अपूजित के पूजन से दुर्भिक्ष, मरण, भय निश्चित है।।

(यह कविता मेरी अपनी पुस्तक ‘मेरी इक्यावन कविताएं’-  से ली गई है जो कि अभी हाल ही में साहित्यागार जयपुर से प्रकाशित हुई है। इसका मूल्य ₹250 है)

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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