मनुष्य को अछूत मानने वाला स्वयं ‘अछूत’ है
अस्पृश्यता को लेकर पुन: एक बार चर्चा चली है। पुरी के शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती ने इस विषय में पुन: आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग किया है और शूद्रों को मंदिर में प्रवेश पाने से निषिद्घ करने की बात कही है। जब विश्व मंगल ग्रह पर जाकर पृथ्वी के मंगल गीतों से मंगल पर मंगल मना रहा हो, और भारत उसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा हो, तब ऐसी बातें करना सचमुच दु:ख का कारण बनती हैं। मनुष्य ही मनुष्य के प्रति ऐसी घृणास्पद सोच रखे तो मानवता भी लज्जित होती है। अस्पृश्यता भारत की संस्कृति वेद और वैदिक साहित्य में कहीं पर भी वर्णित नही है। यह कुछ लोगों ने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए कालांतर में चालू करायी गयी एक कुप्रथा है, जिसके विरूद्घ समय-समय पर विभिन्न ऋषियों महर्षियों, महात्माओं, धर्माचार्यों संतों और महापुरूषों ने आवाज उठाई है। इस लेख में हम उन्हीं की आवाज पर प्रकाश डालेंगे।
मनुमहाराज वर्ण व्यवस्था के विषय में कहते हैं :-
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मण चैति शूद्रताम्।
क्षत्रियाज्जमेवन्तु विद्या द्वैश्यात्तयैव च। (मनु. 10-56)
महर्षि दयानंद इस श्लोक की व्याख्या करते हुए कहते हैं-‘‘जो शूद्र काल में उत्पन्न होके ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के समान गुण, कर्म, स्वभाव वाला हो तो वह शूद्र, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य बन जाए। वैसे ही जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कुल में उत्पन्न हुआ हो और उसके गुण, कर्म, स्वभाव शूद्र के सदृश हों तो वह शूद्र हो जाए, वैसे क्षत्रिय, वैश्य के कुल में उत्पन्न होके ब्राह्मण वा शूद्र के समान होने से ब्राह्मण और शूद्र भी हो जाता है अर्थात चारों वर्णों में जिस-जिस वर्ण के सदृश जो-जो पुरूष व स्त्री हो वह उसी वर्ण में गिनी जाए।’’ ‘‘यदि ठीक ठीक विद्यासंपन्न न हुई तो चाहे ब्राह्मण के ही कुल में उत्पन्न हुआ हो तो भी उसका यज्ञोपवीत छीना जाता और उसकी अप्रतिष्ठा होती थी। उसी तरह शूद्रादि भी उत्तम विद्यासम्पादन कर ब्राह्मणत्व के अधिकारी होकर यज्ञोपवीत धारण करते थे।’’ (उ.म. 7, 51)
महर्षि दयानंद जी महाराज ने ऐसे उदाहरण भी दिये हैं जब लोगों के वर्णों में परिवर्तन किया गया। वह सत्यार्थप्रकाश के समुल्लास 4 के पृष्ठ 57 पर लिखते हैं कि-छांदोग्योपनिषद में जाबाल ऋषि अज्ञात कुल, महाभारत में विश्वामित्र क्षत्रिय वर्ण और मातंग ऋषि विद्या, स्वभाव वाला होता है, वही ब्राह़्मण के योग्य और मूर्ख शूद्र के योग्य होता है, और वैसा ही आगे भी होगा।’’
यह भी ध्यान रखना चाहिए कि महाभारत में जब कर्ण का वर्ण के नाम पर उपहास हो रहा था और कर्ण से अर्जुन ने शस्त्र विद्या परीक्षण के समय किसी भी प्रकार से स्पद्र्घा करने से इंकार कर दिया था तो उस समय दुर्योधन ने कर्ण को बंगाल-उड़ीसा स्थित अंग देश का राजा बनाकर उसका वर्ण परिवर्तित करा दिया था जिस पर सभी उपस्थित महानुभावों ने अपनी सहमति और स्वीकृति प्रदान की थी।
भारतीय संस्कृति में वर्ण व्यवस्था का आधार व्यक्ति के गुण, कर्म, स्वभाव होते थे। वर्ण निर्धारण भी जन्मना नही होता था, अपितु उसकी एक अवस्था होती थी। महर्षि दयानंद वर्ण निर्धारण के लिए कन्याओं की अवस्था 16 वर्ष और पुरूषों की 25 वर्ष बताते हैं। इसके लिए परीक्षा होती थी। वर्णों को अपने अपने अधिकार में प्रवृत्त करना राजा आदि सभ्य जनों का काम है। (स. प्र. 4. 60)
आजकल भी विद्यालयों में बच्चे और बच्चियों का ‘आई क्यू’ परीक्षण किया जाता है, परंतु इसके उद्देश्य और वर्ण निर्धारण के उद्देश्य में आकाश पाताल का अंतर है। सरकारी नौकरियों के लिए आजकल परीक्षाएं आयोजित की जाती हैं और योग्यतानुसार उसमें व्यक्ति को सेवाएं भी दी जाती हैं, परंतु आधुनिक और प्रगतिशील कहे जाने वाले लोग ‘जैसी योग्यता, वैसी सेवा’ तो दे देते हैं, परंतु व्यक्ति की जाति नही बदलते। जबकि अध्यापक के लिए यदि शूद्रकुलोत्पन्न व्यक्ति का चयन किया गया है तो उसे उसी समय ब्राह्मण वर्ण दे दिया जाना चाहिए और ब्राह्मण कुलोत्पन्न व्यक्ति का चयन चतुर्थ श्रेणी कर्मी के लिए किया गया है तो उसे उसी समय शूद्र वर्ण दे देना चाहिए। यदि ऐसी व्यवस्था भारत की प्राचीन व्यवस्था के अनुसार आज भी लागू कर दी जाए तो समाज में ऊंच-नीच और अस्पृश्यता की दूषित मानसिकता को झलकाने वाली कुपरंपराओं और कुरीतियों का यथाशीघ्र समापन हो जाएगा। जातिवाद को मिटाने के लिए आरक्षण या जातिवाद की राजनीति करना कोई उपाय नही है।
मध्यकाल में भारत में अविद्या का प्रचलन बढ़ा जिससे नारियों और शूद्रों से वेद पठन-पाठन के अधिकार छीन लिये गये। भारत के लिए यह काल निश्चित रूप से दुखदायी था। यद्यपि आदि शंकराचार्य जैसी कितनी ही महान विभूतियों ने समय-समय पर आकर मानवता के विरूद्घ चल रही छुआछूत की घृणास्पद बीमारी को समाप्त करने का भरसक प्रयास किया, कांच्चि कामकोटि पीठम् के शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती बधाई के पात्र रहे, जिन्होंने शूद्रों की बस्तियों में जाकर उनको साथ मिलाने और साथ लेकर चलने का प्रशंसनीय कार्य किया था। परंतु उसके उपरांत भी बीमारी शरीर के किसी न किसी भाग में बनी रही। उसी का प्रमाण है शंकराचार्य का दिया गया हालिया बयान। हमें याद रखना होगा कि शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती ने आसाम और नागालैंड की सीमा पर शंकर नेत्र चिकित्सालय की स्थापना की थी, जिसमें हरिजनों और दलितों को विशेष सुविधाएं देकर उनका धर्मांतरण रोकने का प्रशंसनीय कार्य किया, तो शंकराचार्य का यह काम ईसाई मिशनरियों को अप्रिय लगा, फलस्वरूप शंकराचार्य के साथ क्या हुआ? यह सब जानते हैं। वीर सावरकर ने कहा था-‘‘हिंदू समाज की प्रत्येक जाति के व्यक्ति को कोई भी व्यवसाय अपनाने की छूट होनी चाहिए। चिकित्सक, अध्यापक, वकील दुकानदार का व्यवसाय जिस प्रकार अब हर जाति का व्यक्ति अपनाने को स्वतंत्र है, वैसे ही मंदिर का पुजारी या पौरोहित्य कार्य गुण कर्म के आधार पर हर जाति के व्यक्ति से कराया जाना चाहिए।’’
सावरकर जी ने यह कहा ही नही था बल्कि करके भी दिखाया था। 1921 से 1937 तक वह रत्नागिरि में स्थानबद्घ रहे थे। तब उन्होंने रत्नागिरि के शिरगांव में एक पतित पावनी मंदिर बनाकर बाल्मीकि समाज के शिवा नाम के व्यक्ति को उसका पुजारी बनवाया था। इतना ही नही उन्होंने उस पुजारी को हाथी पर चढ़ाकर उसकी नगर परिक्रमा भी करायी थी। तब कुत्र्तकोटि जी महाराज ने उनका पूरा साथ दिया था, जबकि पूरा ब्राह्मण समाज इस साहसिक पहल के खिलाफ उनका विरोध करने के लिए खड़ा हो गया था। बात स्पष्ट है किउत्तम कार्य किसी वर्ग विशेष या जाति विशेष का विशेषाधिकार नही है। वीर सावरकर ने हिंदू महासभा के मंचों से भी और अन्य मंचों से भी अस्पृश्यता निवारण के लिए आवाज उठायी थी। स्वतंत्र भारत के लिए वह इस स्थिति को महापाप मानते थे। क्योंकि वह इतिहास के मर्मज्ञ विद्यार्थी थे और उन्हें ज्ञात था कि पूर्व में अस्पृश्यता के सामाजिक अपराध के कारण भारत ने कितनी बड़ी कीमत अपने शूद्र भाईयों को खोकर चुकायी है।
इतना ही नही डा. अंबेडकर नासिक के कालाराम मंदिर में दलितों के प्रवेश पाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, तब सावरकर ने डा. अंबेडकर के नेतृत्व में दलितों को मंदिर में प्रवेश दिलाया था। उन्होंने लिखा था-‘‘जाति भेद का वर्तमान विकृत स्वरूप हमारे लिए घोर हानिकारक है, और उसमें कुछ सुधार अपेक्षित हैं। इस विषय पर प्राय: सभी विचारक तथा नेता एकमत हैं। अपने वैभवपूर्ण अतीत से जो हम बिछुड़ गये हैं उसके लिए भी इसी जाति भेद और उससे उत्पन्न शूद्र शुद्घ की ढकोसला भरी भ्रांत धारणाएं बहुत कुछ अंशों तक कारण बनी हैं। अत: जाति भेद को पूर्णत: मिटा डाले बिना हिंदू समाज का कल्याण असंभव है।’’ (सावरकर विचार दर्श पृ. 110)
हिन्दुत्व के पंचप्राण (पृष्ठ 81) में भी वीर सावरकर लिखते हैं-‘‘ऐ ब्राह्मणो! क्षत्रियो!! ये हमारे ही धर्म भाई थे, हमारे ही रक्त के करोड़ों बंधु आज भगवत पूजन हेतु मंदिर प्रवेश की करूण प्रार्थना आपसे कर रहे हैं। प्रेम के लिए, न्याय के लिए उन्हें मंदिर प्रवेश करने दो। हम कुत्ते को छूते हैं, उसके मुंह से मुंह लगाते हैं किंतु स्वबंधुओं का तिरस्कार करते हैं, यह सोच अत्यंत घातक और संकीर्ण है।’’ यह ध्यान में रखो कि आज वे आपके भगवान का भजन गाने के अधिकार के लिए सत्याग्रह करना चाहते हैं, किंतु काल दुष्टों, म्लेच्छों के वशीभूत होकर भगवान की मूर्ति का भजन करने हेतु शस्त्राग्रह को वे तत्पर हो जाएंगे। विधर्मी उन्हें मूर्ति भंजक बनाने का प्रयास कर रहे हैं। जो भी अछूत उनके छल में आकर भ्रष्ट होगा वह हमारे हिंदू राष्ट्र की आत्मा का घात करने में नही चूकेगा। इसकी जिम्मेदारी (शंकराचार्य जैसे लोगों की) तुम्हारी असहिष्णुता पर होगी।’’ दलितों को गले लगाने के लिए वीर सावरकर ने दलित बस्तियों में जाकर दलितों के साथ सहभोज भी आयोजित कराए। इस कार्य में स्वामी श्रद्घानंद और भाई परमानंद जैसे महापुरूषों का सहयोग भी उन्हें निरंतर मिलता रहा।
सावरकर जी जैसे लोगों की वाणी में कहें तो जो व्यक्ति भगवत दर्शन की अछूतों की मंाग को अनुचित और अतार्किक समझता है वह मनुष्य ही वास्तव में अछूत है, तथा पतित भी। भले ही उसे चारों वेद कंठस्थ क्यों न हों। ईश्वर यदि पतित पावन हैं, तो उसकी सर्वोत्कृष्ट कृति मानव को भी पतित पावन होना चाहिए, जब भगवान सबके लिए अपने दरवाजे खुले रखते हैं तो मानव को भी अपने हृदय को संकीर्ण नही बनाना चाहिए। जो नाले को भी पावन कर सकती है, वही भागीरथी है। वैसे ही पतितों को भी अपने दर्शन से जो पवित्र करते हैं, वे ही भगवान हैं। अत: भगवान के दर्शन करने पर अछूतों को प्रतिबंधित करना घोर धर्म विरोधी कृत्य है।
स्वामी श्रद्घानंद जी महाराज ने ‘हिन्दू संगठन’ नामक पुस्तक लिखी और उनका व्यावहारिक जीवन भी हिंदू संगठन के लिए समर्पित था। उन्होंने अपने शुद्घि अभियान के अंतर्गत लाखों लोगों की शुद्घि की और किसी भी कारण से हिंदू से मुसलमान बन गये स्वजातीय भाईयों को शुद्घ किया। इसी अभियान के अंतर्गत उन्होंने अस्पृश्यता निवारण के लिए भी उत्कृष्ट कार्य किया था। इसीलिए उनके विषय में डा. अंबेडकर ने कहा-‘‘स्वामी जी अति जागरूक एवं प्रबुद्घ आर्य समाजी थे और सच्चे मन से अस्पृश्यता को मिटाना चाहते थे।’’ ‘‘डा. अंबेडकर ने गुरूकुल कांगड़ी के संस्थापक और सभी लोगों के लिए शिक्षा अनिवार्य कराने की मांग करने वाले स्वामी श्रद्घानंद के विषय में अपनी रचना ‘वहाट कांग्रेस एण्ड गांधी हैव डन टू दी अनरवेबल्स’’ में लिखा है कि स्वामी श्रद्घानंद जी की मृत्यु के समाचार पर डा. अंबेडकर की उपस्थिति में (बहिष्कृत वर्ग कुलाबवा जिला परिषद ने अपने प्रथम अधिवेशन 19-20 मार्च 1927 को) अपनी प्रतिक्रिया और संवेदना इस प्रकार प्रकट की थी-‘‘स्वामी श्रद्घानंद जी की अमानवीय हत्या का समाचार पाकर इस सभा को अतिशय दुख हुआ है। हमारा यह अनुरोध है कि उनके द्वारा बनायी गयी योजना के अनुसार हिंदू जाति अस्पृश्यता का निर्मूलन करे।’’
महात्मा गांधी ने दलितों को हरिजन कहकर दलित ही रहने दिया और कांग्रेस ने उन्हें आरक्षण देकर और भी दयनीय स्थिति में डाल दिया। भाजपा भी गांधी और कांग्रेस के चिंतन से अलग हटकर कोई नया चिंतन नही दे पा रही है, जबकि हिंदू महासभा और आर्य समाज इनकी स्थिति को प्राकृतिक और स्वाभाविक रूप से सुंदर और स्वस्थ बनाने के लिए प्रयासरत रहे हैं, और इन्हें ऊपर उठाकर ब्राह्मण तक बनाने के समर्थक रहे हैं।
आज देश में जातिवाद को बढ़ावा देने वाले अनेकों संगठन बन रहे हैं और लोग भ्रामक साहित्य लिख रहे हैं जिससे उन्हें सस्ती लोकप्रियता मिल रही है। ‘दलित साहित्य’ जैसे शब्द भी गढ लिये गये हैं, जो दुख उत्पन्न करते हैं। जब तक किसी भी रूप में यह दलित शब्द लगा रहेगा या अपने जाति बोध के लिए या अपनी राजनीति चमकाने के लिए या स्वार्थ साधने के लिए इसका प्रयोग कुछ लोगों द्वारा किया जाता रहेगा। तब तक हम अपने पूर्वजों के संघर्ष और संस्कृति के मूल्यों को नही समझेंगे। चर्चा उन स्थलों की होती है, जहां-जहां जातिवाद के समर्थन में साक्ष्य मिलते हैं। उन स्थलों की चर्चा नही होती। जहां-जहां इस कुरीति को मिटाने का प्रयास किया गया है। नकारात्मक बातों से सकारात्मक परिणामों की अपेक्षा नही की जा सकती। हमें वाद विवाद के झमेले से बचना चाहिए और वाद संवाद की स्थिति उत्पन्न करनी चाहिए। हिंदू महासभा और आर्य समाज को अपने पूर्वजों की विचार धारा को आगे बढ़ाने के लिए मिलकर प्रयास करने चाहिए। इसके लिए दलित भाईयों को गले लगाने और उनके मंदिर प्रवेश के लिए ‘हिंदू अपनाओ’ संघर्ष को तीव्र करने की आवश्यकता है। शंकराचार्य जैसे लोगों को ‘वाणी’ से नही अपितु कर्म से उत्तर देने की आवश्यकता है। एक कदम चलो, मंजिल दस कदम तुम्हारी ओर चलेगी और एक मोड़ आएगा जहां मंजिल स्वयं हमारे कदमों के तले होगी।