भारत में नारी को उसके नारी सुलभ ममता, करूणा, स्नेह आदि गुणों के कारण अबला भी कहा गया है। परंतु नारी का वेदों ने एकवीरांगना के रूप में भी चित्रण किया है। उसे हर स्थिति में पति की रक्षिका ध्वजवाहिका और शत्रु संहारिका के रूप में भी वर्णित किया गया है। स्वेच्छा से जौहर करने वाली राजा दाहर की रानी बाई एक वैदिक वीरांगना थी। जौहर या सती प्रथा अपराध तब हुई जब नारी को चिता में उसके पति के साथ बलात् जलाया जाने लगा। इसलिए एक वीरांगना का अति सराहनीय कार्य भी हमारी दृष्टि से कहीं दूर ओझल हो गया। हमने बलात् सती करने वाले अपराधियों के अपराध की विभीषिका में बलिदानी वीरांगना बाई को भी भुला दिया।
रानी बाई ने किया था पहला जौहर
हम सती प्रथा या बलात् जौहर के समर्थक नही हैं, परंतु जिस वीरांगना रानी बाई ने इसे सर्वप्रथम अपनाया था, उसकी वीरता और अपने धर्म को बचाने के लिए उसके साहस की पराकाष्ठा तो देखिए कि उसने आत्मोत्सर्ग का यही ढंग ढूंढ़ लिया कि पति के वीरगति पाने का समाचार मिलते ही स्वयं को अग्नि के समर्पित कर दिया। हम इस आदर्श देशभक्ति और पति भक्ति के प्रशंसक अवश्य हैं। भारतीय नारियों को वीरांगना होने की यह प्रेरणा वेद से मिली। हमने नारी के विषय में ये पंकित्यां स्मरण कर ली हैं :-
अबला जीवन हाय, तुम्हारी यही कहानी,
आंचल में है दूध और आंखों में पानी।।
वेदों ने कहा नारी वीरांगना है
पर हमने वेद के उन संदेशों को भुला दिया जिनमें नारी को अबला, दीनहीन और मतिहीन न मानकर उसे वीरांगना माना है।
पारस्कर गृहय सूत्र (1/7/1) में आया है कि ‘आरोहेममश्मानम् अश्वेमेव त्वं स्थिरा भव।
अभितिष्ठ पृतन्यतो अबवाधस्व पृतनायत:।।
अर्थात (सुदृढ़ता प्राप्त करने के लिए) तू इस शिला पर आरोहण कर। जैसे यह शिला स्थिर तथा सुदृढ़ है, ऐसे ही तू भी स्थिर और सुदृढ़ गात्री बन। आक्रमणकारियों को परास्त कर। सेना द्वारा चढ़ाई करने वालों को बाधित कर।
यजुर्वेद (5/10) में आया है-”हे नारी! तू स्वयं को पहचान। तू शेरनी है, तू शत्रु रूप मृगों का मर्दन करने वाली है, देवजनों के हितार्थ अपने भीतर, सामथ्र्य उत्पन्न कर। हे नारी! तू अविद्या आदि दोषों पर शेरनी की भांति है। तू दुष्कर्मों एवं दुव्र्यसनों को शेरनी के समान विध्वंसित करने वाली है, धार्मिक जनों के हितार्थ स्वयं को दिव्य गुणों से अलंकृत कर।”
यजुर्वेद (5/12) में कहा गया है-”हे नारी तू शेरनी है, तू आदित्य ब्रह्मचारियों की जन्मदात्री है। हम तेरी पूजा करते हैं। हे नारी! तू शेरनी है, तू ब्राह्मणों की जन्मदात्री है, तू क्षत्रियों की जन्मदात्री है, हम तेरा यशोगान करते हैं।”
यजुर्वेद (10/16) में नारी को क्षात्रबल की भंडार कहा गया है। जबकि यजु (13/16) में उसके लिए कहा गया है कि-”हे नारी! तू धु्रव है, अटल निश्चय वाली है, सुदृढ़ है, अन्यों को धारण करने वाली है। विश्वकर्मा परमेश्वर ने तुझे विद्या, वीरता आदि गुणों से आच्छादित किया है। ध्यान रख, समुद्र के समान उमडऩे वाला रिप ुदल तुझे हानि न पहुंचा सके, गरूड़ के समान आक्रांता तुझे हानि न पहुंचा सके। किसी से पीडि़त होती हुई तू राष्ट्रभूमि को समृद्घ कर।”
यजुर्वेद (13/26) में कहा गया है-”हे नारी! तू विघ्न बाधाओं से पराजित होने योग्य नही है, प्रत्युत विघ्न बाधाओं को पराजित कर सकने वाली है। तू शत्रुओं को परास्त कर, सैन्य दल को परास्त कर, तू सहस्रवीर्या है, अपनी वीरता प्रदर्शित करके तू मुझे प्रसन्नता प्रदान कर।”
ऋग्वेद (8/18/5) में आया है कि-”हे नारी! जैसे तू शत्रु से खंडित न होने वाली, सदा अदीन रहने वाली वीरांगना है, वैसे ही तेरे पुत्र भी अद्वितीय वीर हैं।”
ऋग्वेद (10/86/10) में नारी के लिए कहा गया है कि वह आवश्यकता पडऩे पर बलिदान के स्थल संग्राम में जाने से भी नही हिचकती। यहां से सत्य की विधात्री वीर पुत्रों की माता वीर की पत्नी कहकर उसे महिमान्वित किया गया है।
यजुर्वेद (16/44) में नारी को कहा गया है कि तू शत्रुओं के प्रति प्रयाण कर, उनके हृदयों को शोक से दग्ध कर दे। तेरे शत्रु निराशारूप घोर अंधकार से ग्रस्त हो जाएं।
ऋग्वेद (6/65/15) में आया है कि जो वीरांगना विष लिप्त बाण के समान रण संहार करने वाली है जो रक्षार्थ सिर पर मृग के सींगों का बना शिरस्त्राण धारण करती है, जिसका सामने का भाग लोह कवच से आच्छादित है, जो पर्जन्य वीर्या है, अर्थात बादल के समान शस्त्रास्त्रों की वर्षा करने वाली है उस बाण के समान गतिशील, कर्मकुशल, शूरवीर देवी को हम भूरि-भूरि नमस्कार करते हैं।”
ऋग्वेद (10/159/2) में नारी अपने विषय में कहती है-”मैं राष्ट्र की ध्वजा हूं, मैं समाज का सिर हूं। मैं उग्र हूं, मेरी वाणी में बल है। शत्रु सेनाओं को पराजय करने वाली मैं युद्घ में वीर कर्म दिखाने के पश्चात ही पति का प्रेम पाने की अधिकारिणी हूं।”
ऋग्वेद (10/159/4) का कहना है कि-”जिस आत्मोसर्ग की छवि से मेरा वीर पति कृत कृत्य यशस्वी तथा सर्वोत्तम सिद्घ हुआ है, वह छवि आज मैंने भी दे दी है। आज मैं निश्चय ही शत्रु रहित हो गयी हूं।” इससे अगले मंत्र में वह कहती है कि-” मैंने शत्रुओं का वध कर दिया है, मैंने विजय पा ली है, वैरियों को पराजित कर दिया है। ”
इसलिए किया रानी ने जौहर
वैदिक नारी का राष्ट्र की राष्ट्रनीति (राजनीति) में ये स्थान था। मानो वह अपने पति के हटते ही तुरंत ध्वजा संभालने को आतुर रहती थी। राष्ट्र और समाज की शांति व्यवस्था के शत्रु आतंकियों का विनाश करने में यदि पति ने आत्मोत्सर्ग कर लिया है, वीरगति प्राप्त कर ली है, तो पत्नी भी उसी मार्ग का अनुकरण करना अपना सौभाग्य मानती थी। इसी भाव और भावना ने राजा दाहिर की पत्नी को जौहर करने का विकल्प दे दिया। राजा दाहर की रानी के जौहर से पूर्व किसी रानी के जौहर का उल्लेख नही है। कारण ये है कि उससे पूर्व भारत वर्ष में नारी के प्रति पुरूष का बड़ा प्रशंसनीय धर्म व्यवहार था। नारी चाहे कितनी ही वीरांगना हो, परंतु पुरूष समाज उससे शत्रुता नही मानता था और ना किसी की नारी के शीलभंग के लिए युद्घ किये जाते थे, नारी का को शत्रु नही (न+ अरि = नारी) होता था, इसीलिए वह नारी कही जाती थी। परंतु अब विदेशी आक्रमणकारियों का धर्म उन्हें नारी के लिए ही युद्घ करने की प्रेरणा देता था और नारी का शीलभंग करना इस युद्घ का एक प्रमुख उद्देश्य बन गया था, इसलिए रानी बाई ने जौहर को अपना लिया।
जौहर बन गया अनुकरणीय
इसी जौहर को कालांतर में अन्य हिंदू वीरांगनाओं ने भी अपनाया। अब हम आते हैं एक ऐसी ही हिंदू वीरांगना रानी पदमिनी की वीरता की कहानी पर, जिसने अपने पति की रक्षार्थ वैदिक आदर्श को अपनाया और विदेशियों को ये बता दिया कि वेदों के आदर्श केवल कोरी कल्पना ही नही हैं और ना ही ये इतने पुराने पड़ गये हैं कि अब इन्हें कोई अपनाने या मानने वाला ही नही रहा है। रानी की विवेकशीलता और बौद्घिक चातुर्य को देखकर शत्रु भी दांतों तले जीभ दबाकर रह गया। शत्रु ने भारतीय नारी से कभी ये अपेक्षा ही नही की होगी कि वह इतनी साहसी भी हो सकती है।
भीमसिंह बना चित्तौड़ का राजा
कर्नल टॉड के ‘राजस्थान का इतिहास’-भाग-1, से हमें ज्ञात होता है कि सन 1275 ई. में चित्तौड़ के सिंहासन पर लक्ष्मण सिंह बैठा, राजा की अवस्था उस समय छोटी थी, इसलिए उसका संरक्षक राजा के चाचा भीमसिंह को बनाया गया।
राजा भीमसिंह का विवाह उस समय की अद्वितीय सुंदरी रानी पद्मिनी के साथ हुआ था, रानी की सुंदरता की जब अलाउद्दीन खिलजी को पता चला तो उसने रानी को प्राप्त करने के लिए चित्तौड़ पर चढ़ाई कर दी। उसने राजा भीमसिंह को अपने आक्रमण का प्रयोजन बताकर रानी को यथाशीघ्र अपने शिविर में भेज देने का संदेश भिजवा दिया।
अलाउद्दीन का मजहब
यहां हम तनिक विचार करें। अलाउद्दीन का मजहब कहता था कि काफिरों की पत्नियां तुम्हारा धन हैं, उन्हें लूटो और उनका उपभोग करो। इसलिए उसके मजहब के अनुसार किसी की पत्नी छीनना अन्याय या पाप नही था। जबकि राजा का धर्म कहता था कि पत्नी पति की पोष्या है और उसके सतीत्व एवं पतित्व की रक्षा करना उसका धर्म है। यदि कोई पति अपनी पत्नी के सतीत्व एवं पतित्व की रक्षा नही कर पाता है, तो उसे कायर माना जाता है, और ऐसा न करने से उसे पाप लगता है। बात स्पष्ट है कि एक का धर्म रानी को छीनने की आज्ञा दे रहा था, तो दूसरे का धर्म उसकी रक्षा करने की आज्ञा दे रहा था। अत: टकराव होना अवश्यम्भावी हो गया। राजा ने रानी को ‘न देने’ का निर्णय लिया। समस्त राज्य की प्रजा भी राजा के निर्णय के साथ रही। किले का घेरा लंबे काल तक चला। जब अलाउद्दीन ने देखा कि रानी को प्राप्त करने की उसकी इच्छा पूर्ण होने वाली नही है, राजा को झुकाया जाना उसके लिए असंभव होता जा रहा है, तब उसने रानी को प्राप्त करने के लिए छल -बल से काम लेने का निर्णय लिया।
अलाउद्दीन ने रचा षडय़ंत्र
अलाउद्दीन ने राजा के पास पुन: एक संदेश पहुंचाया कि यदि राजा रानी पद्मिनी को उसे दर्पण में भी दिखा देगा तो भी वह इतने से ही प्रसन्न और संतुष्ट होकर दिल्ली लौट जाएगा। राजा ने प्रजाहित में अलाउद्दीन की यह शर्त स्वीकार कर ली। रानी को दर्पण में से अलाउद्दीन को दिखा दिया गया।
रानी को दर्पण में देखने के पश्चात उसे प्राप्त करने की इच्छा से अलाउद्दीन व्याकुल हो उठा। वह अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नही रख सका। उसकी काम वासना उसे कोई और षडय़ंत्र बनाने के लिए प्रेरित कर रही थी। यद्यपि वह पहले से ही एक षडय़ंत्र रचकर राजा के पास गया था, पर अब तो उसके भीतर से उसे कोई बार-बार झकझोर रहा था कि शीघ्रता से अपनी योजना को फलीभूत करो, समय निकला जा रहा है।
अलाउद्दीन इसी अंतद्र्वन्द्व में राजा से ‘चलने की अनुमति’ प्राप्त करता है। राजा अपने अतिथि को शिष्टाचार वश विदा करने के लिए किले के मुख्यद्वार तक चला। अलाउद्दीन ने राजा को बातों में फंसा लिया और बात करते-कराते राजा को किले से थोड़ी दूर बाहर तक ले आया। अलाउद्दीन ने जब देखा कि राजा अब पूर्णत: असावधानी में है, तब वह राणा पर आक्रमण कराके उसे कैद कर अपने शिविर में ले गया।
रानी को किया गया सूचित
राणा को शिविर में कैद करके अलाउद्दीन ने किले के भीतर सूचना भिजवाई कि यदि राणा को जीवित देखना चाहते हो तो पद्मिनी को मुझको सौंप दो। प्रारंभ में तो सारी घटना की सूचना राजदरबारियों तक सीमित रही, पर वहां तक ही यह सूचना कब तक सीमित रह सकती थी। अंतत: वीरांगना रानी पदमिनी को भी घटनाक्रम की जानकारी कुछ ही काल में हो गयी।
रानी ने किया षडय़ंत्र का वीरता के साथ सामना
अब वीरांगना पद्मिनी को निर्णय करना था कि वह क्या करेगी और उसे अपने और देश के सम्मान को बचाकर राणा के प्राणों की रक्षा कैसे करनी है? रानी चिंता में डूब गयी, पर शीघ्र ही उसे अपनी समस्या के समाधान की एक युक्ति सूझ गयी।
अपनी युक्ति को फलीभूत करने के लिए रानी ने चित्तौड़ के दरबार के दो अत्यंत साहसी और अदम्य शौर्य के लिए प्रसिद्घ गोरा एवं बादल नामक दो योद्घाओं के साथ विचार-विमर्श किया। इन दोनों वीरों ने भी समझ लिया कि जिस जटिल परिस्थितियों में आज चित्तौड़ का सम्मान फंसा खड़ा है, उससे देश का गौरव जुड़ा है। अत: इस जटिल परिस्थिति से निकलने के लिए प्राणों की बाजी लगाकर कार्य करने के क्षण आ उपस्थित हुए हैं। इसलिए गोरा बादल एवं रानी ने गुप्त योजना बनायी कि रानी अलाउद्दीन की सेवा में जाने के लिए तैयार है, ऐसा संदेश सुल्तान के शिविर में भिजवा दिया जाए। इस संदेश के साथ शर्त यह भी रहेगी कि रानी अपनी राजपूत सहेलियों को लेकर आएगी और रानी या उसके साथ आने वाली किसी सहेली की डोली को कोई मुस्लिम सैनिक निरीक्षण आदि के लिए रोकेगा नही, क्योंकि इससे रानी की गरिमा को ठेस लगेगी।
अलाउद्दीन खिलजी फंस गया जाल में
अलाउद्दीन खिलजी के पास जब यह संदेश गया तो वह प्रसन्न्ता में इतना झूम उठा कि सारी बातों के लिए उसने अपनी स्वीकृति रानी की इच्छानुसार यथावत प्रदान कर दी।
रानी ने अपने दोनों सेनापतियों के साथ योजना बना ली थी कि रानी और उसकी सहेलियों की डोलियों में (पालकियों में) सशस्त्र राजपूत सैनिकों को बैठाया जाए। पालकियों को कंधे पर उठाकर चलने वाले कहारों के स्थान पर छह-छह सैनिक उठाकर चलेंगे, जिनके शस्त्र पालकी के भीतर रखे होंगे। रानी शिविर में पहुंचने के पश्चात राजा से अंतिम बार मिलने की याचना खिलजी से करेगी और राजा से मिलकर उसे सारी योजना से अवगत कराते हुए छुड़ाने का कार्य संपादित करेगी। अवसर मिलते ही सैनिक राजा को अपनी पालकी में बैठाकर वहां से चल देंगे और पालकियों के भीतर छिपे सैनिक और कहारों के रूप में चल रहे योद्घा मिलकर तातार सेना के प्रतिरोध का सामना करेंगे। इस सारी योजना को सिरे चढऩे का नेतृत्व गोरा एवं बादल को सौंपा गया। इन दोनों को किले की सुरक्षा का दायित्व दिया गया।
कार्य योजना को दिया गया मूत्र्त रूप
कर्नल टॉड हमें बताते हैं कि नियत दिन को सही समय पर सात सौ बंद पालकियां चित्तौड़ से निकलकर बादशाह के शिविर की ओर रवाना हुई। प्रत्येक की में छह छह कहार थे, और वे अपने वस्त्रों में लडऩे के लिए हथियार लाये थे। उन पालकियां में चित्तौड़ के शूरवीर सशस्त्र राजपूत बैठे थे। चित्तौड़ से निकलकर ये पालकियां बादशाह के शिविर के सामने पहुंच गयीं। बादशाह ने शिविर में आने के लिए एक बड़ा शिविर लगा दिया था, और उस शिविर के चारों ओर एक द्वार बनाकर कनातें लगा दी गयी थीं। एक-एक करके सभी पालकियां उस शिविर के भीतर पहुंच गयीं।”
रानी को मिला राणा से मिलने का समय
रानी के अनुरोध पर अलाउद्दीन ने उसे राणा से अंतिम भेंट करने के लिए आधा घंटे का समय दिया। राणा को शिविर में रानी से मिलने की व्यवस्था करायी गयी। तभी एक राजपूत ने पालकी के भीतर से झांककर राणा को संकेत से अपनी पालकी की ओर आने को कहा। राजा पालकी के निकट आया तो उसे पालकी में भीतर बैठाकर पालकी के कहार उठाकर चित्तौड़ की ओर चल दिये। उसके साथ कुछ और पालकियां भी चल दीं। शेष पालकियां शिविर के भीतर ही रहीं। निर्धारित समय के बीत जाने पर भी राणा के शिविर से न लौटने पर अलाउद्दीन को बड़ा क्रोध आया और वह राणा को शिविर से पुन: कैद में डालने के उद्देश्य से स्वयं ही शिविर में प्रवेश कर गया। उसके साथ उसके बहुत से सैनिक भी थे। अलाउद्दीन को भीतर आता देखकर सशस्त्र राजपूतों ने उस पर आक्रमण कर दिया।
अलाउद्दीन को राज समझ में आ गया
अब अलाउद्दीन को ज्ञात हुआ कि वह अपने ही बुने जाल में स्वयं ही फंस चुका है। उसने अनुमान लगा लिया कि अब भारतीयों के पौरूष का सामना करने का समय आ गया है। अत: दोनों ओर भयंकर मारकाट आरंभ हो गयी। अलाउद्दीन को बचाने में उसके सैनिकों ने सफलता प्राप्त की। परंतु उससे भी बड़ी सफलता तो राणा के सैनिकों को मिल चुकी थी, जो अपने राजा को पालकी में बैठाकर सुरक्षित बाहर ले जाने में भी सफल हो गये थे। अलाउद्दीन के सैनिकों ने कुछ देर पश्चात वस्तुस्थिति को समझ कर राजा की पालकी का पीछा किया। जब उन सैनिकों ने चित्तौड़ के पास जाकर राजा को घेरा तो पालकियों में बंद सैनिक और कहारों के वेश में चल रहे योद्घाओं ने उन तातार सैनिकों का सामना करते हुए उन्हें समाप्त कर दिया, और अपने राणा को सुरक्षित लेकर आगे चल दिये। कुछ दूरी पर राणा को चित्तौड़ से आये हुए एक विशेष घोड़े से चित्तौड़ की ओर दौड़ा दिया गया। गोरा बादल का संघर्ष
कुछ तातार सैनिकों ने राणा का पुन: पीछा किया और दुर्ग के द्वार पर उन तातार सैनिकों को गोरा बादल ने रोककर उनसे युद्घ किया। यद्यपि राणा इस समय तक दुर्ग में प्रवेश करने में सफल हो गये थे। कहते हैं कि बादल की अवस्था इस समय केवल 12 वर्ष की थी। पर उसने कितने ही यवनों को मृत्यु के घाट उतार दिया। युद्घ करते हुए ही गोरा को वीरगति प्राप्त हो गयी। बहुत से राजपूतों ने भी अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान दिया।
कर्नल टॉड कहते हैं-”शिविर और सिंह द्वार पर जो कुछ हुआ, उसे देखकर अलाउद्दीन का साहस टूट गया। पद्मिनी को पाने के स्थान पर उसने जो कुछ पाया, उससे वह युद्घ को रोककर अपनी सेना के साथ दिल्ली की ओर रवाना हो गया।”
अलाउद्दीन को पता चला गया वीरांगना-धर्म
अलाउद्दीन को ज्ञात हो गया कि वेदों के धर्म से संचालित भारत में अभी भी वीरांगना हैं, जो शत्रु के शिविर में जाकर अपनी वीरता, साहस और शौर्य का प्रदर्शन कर सकती है। रानी के शौर्य से अलाउद्दीन हतप्रभ रह गया।
गोरा की वीरांगना पत्नी
उधर गोरा की पत्नी की वीरता को भी कर्नल टॉड ने जिस प्रकार उल्लेखित किया है, वह भी कम रोमांचकारी नही है। कर्नल टाड ने कहा है-”सैकड़ों जख्मों से क्षत विक्षत बालक बादल चित्तौड़ पहुंचा। उसके साथ गोरा नही था। यह देखते ही गोरा की पत्नी युद्घ के परिणाम को समझ गयी। उसने अपने गंभीर नेत्रों से बादल की ओर देखा। उसकी सांसों की गति तीव्र हो चुकी थी। वह बादल के मुंह से तुरंत सुनना चाहती थी कि बादशाह के सैनिकों के साथ उसके पति गोरा ने किस प्रकार वीरता से युद्घ किया और शत्रुओं का संहार किया। वह बादल के कुछ कहने की प्रतीक्षा न कर सकी, और उतावलेपन के साथ उससे पूछ बैठी बादल युद्घ का समाचार सुनाओ? प्राणनाथ ने आज शत्रुओं से किस प्रकार युद्घ किया? बादल में साहस था, उसमें बहादुरी थी। अपनी चाची गोरा की पत्नी को उत्तर देते हुए उसने कहा-”चाचा की तलवार से आज शत्रुओं का खूब संहार हुआ सिंह द्वार पर डटकर संग्राम हुआ। चाचा की मार से शत्रुओं का साहस टूट गया। बादशाह के खूब सैनिक मारे गये। शिशौदिया वंश की कीर्ति को अमर बनाने के लिए शत्रुओं का संहार करते हुए चाचा ने अपने प्राणों की आहुति दी।”
बादल के मुंह से इन शब्दों को सुनकर गोरा की स्त्री को असीम संतोष मिला। क्षण भर चुप रहने के पश्चात बादल के सामने और कुछ न कहने पर उसने तेजी के साथ-”अब मेरे लिए देर करने का समय नही है। प्राणनाथ को अधिक समय तक मेरी प्रतीक्षा नही करनी पड़ेगी। यह देखकर वीरांगना गोरा की पत्नी ने (पहले से ही तैयार की गयी) जलती हुई चिता में कूदकर अपने प्राणों का अंत कर दिया।”
इसे कहते हैं अद्भुत शौर्य। एक साथ हमारे पास कितने हीरे हैं-रानी पद्मिनी हैं, गोरा है, बादल है, गोरा की पत्नी है, रानी के साथ गये सात सौ सशस्त्र सैनिकों और सात सौ पालकियों के छह-छह कहारों के रूप में वीर योद्घा हैं। सबका लक्ष्य एक था-राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा, अपने धर्म की रक्षा, अपने सम्मान की रक्षा करना। ऐसा अदभुत शौर्य एवं पराक्रम विश्व के किसी अन्य देश में देखने को नही मिलेगा कि जहां बारह वर्ष के बच्चे ने भी किले की रक्षा करने के अपने दायित्व का इतनी उत्कृष्टता से पालन किया हो। सचमुच ये देश है-वीर जवानों का, अलबेलों का मस्तानों का………इस देश का यारो क्या कहना….ये देश है दुनिया का गहना….
चित्तौड़ गढ़ आज भी अपने वीर योद्घाओं और वीरांगनाओं की वीरता एवं बलिदान की साक्षी दे रहा है, इसीलिए यह दुर्ग हर हिंदू के लिए आज भी श्रद्घा का पात्र है, एक वीर मंदिर है, जहां शीश झुकाकर हर देशभक्त भारतवासी कृतकृत्य हो जाता है। यह घटना सन 1303 ई. की है। क्रमश: