इंसानी पुरस्कार पा लें या ईश्वरीय उपहार
पुरस्कार, अभिनंदन और सम्मान, यश-प्रतिष्ठा पाने की सब तरफ होड़ मची है। इंसान अपने क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ साबित करने और मनवाने के लिए हर तरह के धंधाें और रास्तों को अपना रहा है। सबकी अपनी-अपनी सोच है, अपने-अपने तर्क-वितर्क और कुतर्क। सभी खुद को बुलंदी दिलाने के लिए जी तोड़ प्रयास कर रहे हैं। कोई मीठा बोल-बोल कर दूसरों को पटा रहा है, कोई वाणी विलास से चिकनी-चुपड़ी बातें करते हुए औरों को भ्रमित कर रहा है, खूब सारे हैं जो काम-धाम कुछ नहीं करते, बड़े और प्रभावशाली लोगों को ही पूरा संसार मान कर उन्हीं की सेवा-चाकरी और पूजा-परिक्रमा में रमते हुए अपने आपको श्रेष्ठतम साबित करने में तुले हुए हैं।
कई सारे जात-जात के करंट वाले पदों और कुर्सियों के हत्थों की ताकत से औरों पर रुतबा दिखा रहे हैं। कई ऎसे हैं जो अपने कर्मयोग के बूते कुछ पाने की दौड़़ में हैं, खूब सारे हैं जो चमचागिरी, चापलुसी और इन्तजामिया हुनरों में माहिर हैं, ढेरों ऎसे हैं जो चरण स्पर्श और देखते ही झुक जाने की कला में माहिर हैं, ऎसे भी हैं जिनका जीवन और जिस्म ही औरों की सेवा के लिए अवतरित हुआ है और अपने काम के लिए किसी के भी आगे नतमस्तक होने से लेकर औंधे पड़ जाने व अपने आपको समर्पित करने का माद्दा व खुलापन रखते हैं।
कुछ ऎसे हैं जो हर कहीं खुल जाते हैं और दूसरों के आगे दण्डवत होकर ही खिल पाते हैं। सम्मान, पुरस्कार, उपहार, अभिनंदन आदि की बहुआयामी भूख के मारे संसार के काफी सारे इंसान हमेशा बेचैन रहते हैं। इनका एकसूत्री लक्ष्य यही होता है कि ऎसे ही कर्म करते रहें कि सम्मान, अभिनंदन, पुरस्कार आदि की श्रृंखला निरन्तर बनी रहे और एक से बढ़कर एक पुरस्कार सिर्फ इन्हीं की झोली में आते रहें।
पुरस्कारों को पाने के लिए आदमी कितना कुछ कर गुजरता है, इस बारे में सभी समझदार लोगों को अच्छी तरह पता है। यह भी पता है कि जो लोग पुरस्कार और सम्मान ले उड़ रहे हैं उनमें से कितने लोग वाकई हक़दार या योग्य हैं।
कुछ लोग ऎसे भी हैं जो पुरस्कारों और सम्मानों की भीड़ से कोसों दूर ही रहते हैं और आनंद पाते हैं। लेकिन उन लोगों का जीवन बड़ा ही विचित्र हो जाता है जो सम्मानों और पुरस्कारों की भूख से पीड़ित होते हैं। कुछ लोग ऎसे भी होते हैं जिनकी वजह से सम्मान और पुरस्कार स्वयं धन्य हो उठता है और जो कोई सुनता, देखता और पढ़ता है उसकी यही प्रतिक्रिया होती है कि ऎसा चयन सही है।
आदमी जितनी ऊर्जा, समय और परिश्रम सम्मानों, पुरस्कारों, अभिनंदनों और उपहारों में लगाता है उतना समय यदि अपने ही कर्मयोग में लगाए, तो दुनिया को उपहार देने लायक बन सकता है, लेकिन ऎसा कर पाना सामान्य इंसान के बस में नहीं होता क्योंकि सामान्य इंसानों की एकमात्र तमन्ना यही होती है कि औरों से अलग दिखे तथा औरों को जो प्राप्त नहीं हो पाया है, वह सब कुछ उसे ही प्राप्त हो जाए।
कई लोगों की पूरी जिन्दगी ही पुरस्कार, सम्मान और उपहार पाने में गुजर जाती है, बावजूद दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इनकी मृत्यु होने तक कोई इन्हें किसी भी मामले में योग्य स्वीकार नहीं कर पाता। खूब सारे लोग ऎसे हैं जो पुरस्कृत, सम्मान व अभिनंदन प्राप्त हैं लेकिन इनमें से कितनों के बारे में समझदार लोग यह कह पाते हैं कि ये वाकई योग्य भी थे क्या।
जो अभिनंदन, सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हैं उनके बारे में बाद में कोई टिप्पणी नहीं की जानी चाहिए। लेकिन इतना अवश्य है कि सांसारिक सम्मान और पुरस्कार की ऎषणाओं में भागने वाले लोगों में से कुछ बिरलों को छोड़कर अधिकांश ऎसे होते हैं जिन्हें मरते दम तक प्रसन्नता, आत्मतोष और आनंद प्राप्त नहीं हो पाता है, भले ही वे कितने ही किलोग्राम सम्मान, मैडल, उपहार और पुरस्कार क्यों न जमा कर लें।
मनुष्य सांसारिक ऎषणाओं, स्वार्थ और अपने आपको कितना ही ऊँचा व महान बनाने के लिए तत्पर क्यों न हो जाए, कितने ही पुरस्कार, सम्मान और उपहार क्यों न जमा कर ले, जितना वह सांसारिक पुरस्कारों और उपहारों की और भागता है उतने ही उसे जायज-नाजायज समझौते करने पड़ते हैं, नालायकों और अपात्रों के आगे गिड़गिड़ाकर रोजाना मृत्यु का वरण करना पड़ता है, जाने कितने सारे समीकरण और समझौते बिठाने के लिए अपना जमीर बेचना पड़ता है, औरों की जमीन तलाशनी पड़ती है, और उन सभी कुकर्मों और याचनाओं का सहारा लेना पड़ता है जो भिखारियों से लेकर अपराधियों तक को ही शोभा देता है।
अनमनी यात्रा के तमाम पड़ावों से होकर गुजरते हुए आदमी अपने मूल स्वभाव और इंसानियत से इतने दूर तक चला जाता है कि वहाँ उसे ईश्वरीय शक्तियों का आशीर्वाद प्राप्त होना असंभव सा हो जाता है। यह अवस्था आदमी की वह स्थिति ला देती है जहाँ वह संसार का ध्रुव पकड़ लेता है, ईश्वरीय छोर दूसरी तरफ हो जाता है।
आदमी कितने ही पुरस्कार और सम्मान पा ले, उसके भीतर इनको पाने का संतोष न हो, आत्मगौरव का अनुभव न हो, अशांति, असंतोष, उद्विग्नता और आनंद के भावों का सृजन न हो, तो यह सब व्यर्थ है। फिर एक अति हो जाने के बाद आदमी को खुद ही खुद के लिए बटोरते रहने का भाव समाप्त न हो पाए, औरों को आगे लाकर स्थापित करने की भावना का सृजन न हो पाए, तब भी ऎसे इंसान का जीवन व्यर्थ है और वह पुरस्कारों के कबाड़ी ही कहे जाने चाहिएं जो जिन्दगी भर इंसान बनाने, इंसान को प्रोत्साहित, प्रेरित और हुनरमंद बनाकर अपनी बराबरी पर स्थापित कर पाने की बजाय पुरस्कारों, उपहारों का कबाड़़ ही जमा करते रहते हैं।
ऎसे कबाड़ी होकर जीने की अपेक्षा कितना अच्छा हो कि हम हुनरमंद इंसान पैदा करें जो समाज के काम आएं। इंसानियत पर चलते हुए कर्मयोग को पूर्ण करे। फिर बिना मांगे समाज की ओर से जो पुरस्कार सहज भाव से प्राप्त हों, अपनी योग्यता से मिलें, उन्हें अंगीकार करना बुरा नहीं है लेकिन दूसरे रास्तों से पुरस्कार, सम्मान और उपहारों के लिए दौड़ लगाते रहना किसी और ही मंतव्य को स्पष्ट करता है।
पुरस्कार, सम्मान और अभिनंदन वही शाश्वत होते हैं जो लोकमान्य और लोकग्राह्य हों। सांसारिक पुरस्कारों की कामना से ऊपर उठे हुए लोगों को दैवीय और दिव्य पुरस्कार प्राप्त होते हैं, इसमें किसी भी प्रकार का संशय नहीं। इंसान को तुच्छ सांसारिक पुरस्कार मिल सकते हैं जबकि जो लोग ईमानदारी से कर्मयोग में रमे रहते हैं, सच्चे और निष्काम समाजसेवी व देशभक्त होते हैं, उन्हें ईश्वर अपनी ओर से पुरस्कार देता है।