व्यक्तिगत जीवन से लेकर राष्ट्रीय और वैश्विक जीवन तक सब स्थानों पर पवित्रता और स्वच्छता की बात करने वाला भारत इतना गंदगी पसंद क्यों बन गया? यदि इस विषय पर विचार किया जाए तो यह कॉलम बहुत छोटा पड़ जाएगा। अत: संकेत मात्र से बात करना उचित होगा। हमारे यहां विदेशियों से लड़ते-लड़ते एक लंबा समय बीता, और उन लोगों ने हमें हमारे विषय मे समझाया कि तुम्हें समझ नही है, तुम असभ्य हो, तुम्हारी कोई संस्कृति नही कोई सभ्यता नही, तुम्हें उठने बैठने तक का ढंग नही आता।
ऐसी बातों को अपने विषय में सुनकर एक तो हीन भावना हमारे भीतर जागी, दूसरे बहुत देर तक अपने विषय में ऐसी बातों को सुनकर ऐसा लगने लगा कि जैसे हमें सचमुच उठना बैठना नही आता, और हमें विदेशियों से उठना बैठना भी सीखना होगा। परिणामस्वरूप अपने सामाजिक मूल्यों के प्रति ही हमारे भीतर उपेक्षा भाव ने जन्म ले लिया। अन्यथा यह देश वो देश है जो प्रात:काल ब्रह्ममुहूत्र्त में उठकर ईश्वर का नाम लेता है। यज्ञ हवन करता है। योग करता है, नहाता है, अपने घर की और अपने सामने की सफाई करता है और तब अपने नित्य कार्यों से निवृत्त होकर अन्य कार्यों के लिए निकलता है।….इस देश का यारो क्या कहना।
भारत की संस्कृति ‘श्रमचोरी’ की संस्कृति नही है। यह तो ‘श्रमदान’ की संस्कृति है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि भारतीय संस्कृति में श्रम चोरी की वस्तु नही है अपितु दान की वस्तु है। यहां सरकारों पर निर्भर रहने की प्रवृत्ति नही है, यहां तो अपना काम अपने आप करने की प्रवृत्ति रही है, बहुत कुछ पतन हो जाने के पश्चात आज भी भारत सुदूरस्थ गांवों में जीवित है। जहां लोग आज भी स्वाभावत: अपने आंगन की ही नही अपने घर के सामने के रास्ते की सफाई भी स्वयं करते हैं। अपने घर के फालतू पानी के लिए सोख्ता बनाते हैं और रास्तों में कीचड़ न हो, इसका पूरा ध्यान रखते हैं। आजादी के बाद भी भारत में श्रमदान की संस्कृति जीवित रही। लोग अपने गांव के रास्तों में मिट्टी डालने का काम स्वयं करते थे। अपने गांव की सडक़ के लिए श्रमदान करते थे। जब ठेकेदारों ने सडक़ की मिट्टी का पैसा बचाकर लोगों के श्रम की चोरी करनी आरंभ की तो लोगों को समझ आया कि मिट्टी भराव से सडक़ के ऊंचीकरण के लिए ठेकेदार को पैसा मिलता है, पर वह मिट्टी हमसे डलवा लेता है तो उन्होंने ‘श्रमदान’ से मुंह फेरना आरंभ कर दिया। यही स्थिति नगरपालिका और ग्राम्य स्तरीय स्थानीय संस्थाओं के द्वारा की गयी। उन्होंने भी ठेकेदारों की भांति ही लोगों के श्रम की चोरी आरंभ कर दी। इसलिए इस दुश्प्रवृत्ति के कारण भी लोगों में यह कुसंस्कार पैदा हो गया कि हर काम के लिए सरकार की ओर देखा जाने लगा। आज हर व्यक्ति इसी प्रवृत्ति से ग्रसित है।
पी.एम. मोदी जिस संस्कार को हवा दे रहे हैं वह इस देश का एक सांस्कृतिक मूल्य है और इस देश का मूल संस्कार भी है। हमारे संविधान ने देश के नागरिकों के लिए मूल अधिकारों की व्यवस्था तो की ही है। साथ ही साथ मूल कत्र्तव्यों की भी व्यवस्था की है। पर बीते 67 वर्षों में हमने मूल कत्र्तव्यों को लेकर कहीं कोई आंदोलन नही किया। हमने उन्हें सुला दिया और ऐसा प्रदर्शन किया कि मानो मूल कत्र्तव्य नाम की कोई चीज है ही नही।
हां हमने अपने मौलिकअधिकारों के लिए बहुत बार सडक़ें जाम की हैं, रेल रोकी हंै, तोडफ़ोड़ की है, सार्वजनिक संपत्ति को क्षतिग्रस्त करने से हानि किसकी है? इसका कारण ये था कि हमने व्यक्ति और राष्ट्र का परस्पर कोई गहन संबंध विकसित नही किया, ना होने दिया। यदि हम ऐसा करते तो व्यक्ति समझता कि तेरी अंतिम ऊंचाई का नाम राष्ट्र है, और तेरे कंधों पर उसका भार है। इसलिए संभलकर कार्य कर।
स्वच्छता अभियान में मोदी ‘मन की बात’ के माध्यम से भी जागरण का कार्य कर रहे हैं। यदि इस ‘मन की बात’ या स्वच्छता अभियान के जागरण को विस्तार देते हुए मूल कत्र्तव्यों को समझा कर उनको लागू कराने के लिए भी देश में कोई प्रबल आंदोलन चलाया जाए-‘तो कोई बात बने’। यदि ऐसा संभव हुआ तो देश में नई क्रांति का सूत्रपात हो जाएगा और देश वास्तविक आजादी का अनुभव करेगा। प्रधानमंत्री मोदी को इस विषय के लिए पहल करनी चाहिए और अपने स्वच्छता अभियान को संविधान में वर्णित मूल कत्र्तव्यों के अनुरूप कत्र्तव्य प्रेरक बनाकर उनके प्रति जनभावना को जोडऩे वाला बनाना चाहिए। जिससे लोगों को लगे कि प्रधानमंत्री कोई नही बात नही कह रहे हैं, अपितु जो हमसे छूट गया था उसे ही पूरा कराने की बात कह रहे हैं, इसलिए उस राष्ट्रीय एजेंडा पर हम मिलकर काम करें।