पांच राज्यों के चुनाव और कांग्रेस

 सुरेश हिंदुस्थानी

कांग्रेस की विसंगति यह है कि आज के परिदृश्य में उसके साथ मिलकर कम से कम उत्तर प्रदेश में तो कोई भी दल चुनाव लड़ना नहीं चाहता, क्योंकि पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने बड़ा सपना दिखाते हुए समाजवादी पार्टी को सत्ता सुख से वंचित कर दिया।

पिछले दो लोकसभा चुनावों के बाद जिस प्रकार की राजनीतिक तस्वीर निर्मित हुई है, उससे यही परिलक्षित होता है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस बहुत बड़ी और कठिन परीक्षा के दौर से गुजर रही है। अब देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की कवायद चल रही है। इन राज्यों में कांग्रेस की वर्तमान हालात परिस्थिति के ऐसे भंवर में गोता लगा रही है, जहां से वह अपनी राजनीतिक स्थिति में सुधार कर पाएगी, यह असंभव-सा ही लगता है। असंभव इसलिए भी कहा जा सकता है कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में पहले से ही कांग्रेस की स्थिति ठीक नहीं है। और फिर वर्तमान के भाजपा शासन से उत्तर प्रदेश की भुक्तभोगी जनता बहुत ही संतुष्ट दिखाई दे रही है। ऐसा हम नहीं कह रहे, बल्कि वह जनता कह रही है जो पिछले शासन में दबंगई से परेशान थी। केवल दबंग ही नहीं, बल्कि प्रशासन के आला अधिकारी भी राजनीतिक संरक्षण प्राप्त करके अपनी मनमानी करती थी, जिसका खामियाजा सीधे तौर पर उत्तर प्रदेश की उस जनता को भुगतना पड़ता था जो बहुत ही संस्कारित भाव और ईमानदारी के साथ जीवन यापन करती थी। कौन नहीं जानता कि आज उत्तर प्रदेश के बड़े-बड़े दबंग महारथी या तो रास्ते पर आ गए हैं या फिर सुरक्षित स्थान पर पहुंचकर शांत भाव से प्रदेश की योगी सरकार की कार्यशैली को बिना किसी ना नुकुर के देख रहे हैं।

कांग्रेस की विसंगति यह है कि आज के परिदृश्य में उसके साथ मिलकर कम से कम उत्तर प्रदेश में तो कोई भी दल चुनाव लड़ना नहीं चाहता, क्योंकि पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने बड़ा सपना दिखाते हुए समाजवादी पार्टी को सत्ता सुख से वंचित कर दिया। अखिलेश यादव के सीने में यह टीस गाहे बगाहे उठती ही होगी। दूसरी बड़ी बात यह भी है कि गांधी परिवार की विरासती पृष्ठभूमि से राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश करने वाली श्रीमती प्रियंका वाड्रा भी वैसा राजनीतिक प्रभाव नहीं छोड़ पाईं, जैसी उम्मीद की जा रही थी। इसमें कांग्रेस के कमजोर होने एक प्रामाणिक तथ्य यह भी है कि राहुल गांधी ने अपने परिवार की परंपरागत सीट अमेठी का परित्याग कर केरल की राजनीतिक पिच पर अपना खेल खेला। हालांकि राहुल गांधी ने अमेठी से चुनाव अवश्य लड़ा, लेकिन भाजपा की ओर पूरी तैयारी करके जो चुनौती दी, राहुल गांधी उस चुनौती को स्वीकार करने की स्थिति में दिखाई नहीं दिए और अमेठी से शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा।
जहां तक उत्तर प्रदेश के साथ ही पंजाब राज्य की बात करें तो वहां पिछले छह महीने पहले जो राजनीतिक दृश्य दिखाई देता था, आज का दृश्य उसके एकदम उलट है। पहले जो कैप्टन अमरिंदर सिंह कांग्रेस की एक छत्र कमान संभाले थे, आज वे कांग्रेस के लिए ही चुनौती बनकर राजनीतिक मैदान में हैं। यह भी लगभग तय ही हो गया है कि वे भाजपा के साथ दोस्ती करके चुनाव लड़ेंगे। इससे यह लगने लगा है कि भाजपा और कैप्टन अमरिंदर सिंह को भले ही लाभ न मिले, लेकिन कांग्रेस का रसातल की ओर जाना तय-सा लग रहा है। पंजाब में आम आदमी पार्टी सत्ता बनाने लायक अपनी स्थिति मानकर चल रही थी, लेकिन अब उसके सपने पूरे होंगे या नहीं, संशय की स्थिति है। पंजाब में अब राजनीतिक महत्वाकांक्षा पालकर किसान आंदोलन करने वाले 22 किसान संगठनों ने सभी सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है। इस मोर्चा ने जोर दिखाया तो सबके सपने धूमिल भी हो सकते है, लेकिन फिलहाल यह संभव नहीं लगता।
जब से कांग्रेस ने पराभव की ओर कदम बढ़ाने प्रारंभ किए हैं, उस दिन के बाद न तो कांग्रेस में अपनी स्थिति सुधारने की दिशा में कोई प्रयत्न हुए हैं और न ही ऐसा कोई प्रयास ही किया गया है। इसका मुख्य कारण यह भी माना जा रहा है कि केंद्रीय स्तर पर कांग्रेस का कोई ऐसा राजनेता नहीं है जो प्रादेशिक क्षत्रपों को नियंत्रित करने का सामर्थ्य रख सके। इसको लेकर कांग्रेस में अंदर ही अंदर लावा सुलग रहा है, जिसकी हल्की-सी चिंगारी ने ही कांग्रेस को कमजोर किया है, लेकिन भविष्य में कांग्रेस के अंदर बड़े विस्फोट की भी आशंका निर्मित होने लगी है। आज कांग्रेस के दिग्गज नेता असहज महसूस करने लगे हैं। वरिष्ठ नेता के रूप में पहचान बनाने वाले आज मायूस हैं। वे कभी खुलकर बगावत करने की स्थिति में दिखाई देते हैं तो कभी अपने प्रति होने वाली उपेक्षा से दुखी दिखाई देते हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने एक बार अपना दुख प्रकट करते हुए कहा था कि अब कांग्रेस में वरिष्ठों के दिन समाप्त हो चुके हैं। राहुल गांधी जैसा चाहते हैं वैसा ही हो रहा है। इतना ही नहीं कई राजनेता पार्टी के पूर्णकालिक अध्यक्ष की मांग भी कई बार कर चुके हैं। यह मुद्दा लोकसभा चुनाव के बाद भी बहुत जोरशोर से उठा था, लेकिन इस मांग को राष्ट्रीय नेतृत्व ने दरकिनार कर दिया। जिसका खामियाजा कांग्रेस को असंतोष के रूप में भोगना पड़ रहा है, अब आगे क्या होगा, यह भविष्य के गर्भ में है, लेकिन यह अवश्य ही कहा जा सकता है कि कांग्रेस की भविष्य की राह आसान नहीं है।

वस्तुतः वर्तमान समय को कांग्रेस के लिए अग्निपरीक्षा निरूपित किया जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। क्योंकि जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की तैयारी चल रही है, उनमें उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर हैं। वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को देखकर यही लगता है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस वैसा चमत्कार करने की स्थिति में नहीं है, जिसकी उसके नेता विरासती पृष्ठभूमि से राजनेता बनी प्रियंका वाड्रा से आशा कर रहे थे। उत्तराखंड में भी हालात इससे कम नहीं हैं। पंजाब में घमासान चल ही रहा है। वास्तव में इन सब बातों को सुधारने के लिए कांग्रेस को लोकतांत्रिक पद्धति से अपने प्रभावी नेताओं के दुख को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। इसके अलावा लोकसभा चुनाव में मिली असफलता के बाद कांग्रेस के नेताओं को अपनी दशा सुधारने के लिए आत्ममंथन भी करना चाहिए था, लेकिन नहीं किया गया। पांच राज्यों के चुनाव कांग्रेस के लिए किस प्रकार की स्थिति निर्मित करेंगे, यह अभी देखने का समय है।

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