जवाहरलाल नेहरु की सवा सौंवी जयन्ति हम कैसे मना रहे हैं? क्या भारत के किसी महान नेता की तरह? क्या महान स्वतंत्रता सेनानी की तरह? क्या भारत के प्रथम प्रधानमंत्री की तरह? क्या भारतीय संविधान और लोकतंत्र के उद्गाता की तरह? गांधी के शब्दों में ‘हिंद के जवाहर’ की तरह? नहीं, नहीं। कांग्रेस पार्टी अपने कुल्हड़ में गुड़ फोड़ रही है। उसने नेहरु जैसे विश्व-व्यक्तित्व को सोनिया-राहुल के कुल्हड़ में बंद कर दिया है। उसे कांग्रेस की बपौती बना दिया है। कौनसी कांग्रेस? क्या यह गांधी और नेहरु की कांग्रेस है? सोनिया और राहुल की कांग्रेस का गांधी और नेहरु की कांग्रेस से क्या लेना-देना है? इन दोनों पीढि़यों का भारत में वही संबंध है, जो रुस में लेनिन और गोर्वाचेव का था या चीन में माओ त्से तुंग और दंग स्याओ फिंग का था। सोनिया और स्वामिभक्त प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जिन नीतियों और अनीतियों का अनुसरण किया, क्या नेहरु उनकी भत्र्सना नहीं करते? नेहरु की बात जाने दें। आज की कांग्रेस तो इंदिरा कांग्रेस की कार्बन काॅपी भी नहीं है। वह एक उजड़ी हुई प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन गई है।
अब वह नेहरु को भी अपने सांचे में ढालने पर आमादा है। वह नेहरु जैसे महान व्यक्ति को भी अपनी गुदड़ी में ढांप लेना चाहती है। उन्हें अपनी हताश राजनीति का सहारा बनाना चाहती है। उसने किसी ऐसे दल को भी निमंत्रित नहीं किया है, जो भाजपा-गठबंधन का सदस्य है। उसने भाजपा से वैचारिक मतभेद का बहाना बनाया है लेकिन आज देश में कौनसी पार्टी है, जो किसी विचारधारा के आधार पर चल रही है? जब कांग्रेस की ही कोई विचारधारा नहीं है तो दूसरी पार्टियों के क्या कहने? अपनी विरोधी पार्टियों को नहीं बुलाया तो नहीं बुलाया, कांग्रेस ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी बहिष्कार कर दिया। कांग्रेस बताए कि मोदी क्या भाजपा के प्रधानमंत्री हैं? भाजपा में तो प्रधानमंत्री का कोई पद नहीं है। वे भारत के प्रधानमंत्री हैं। नेहरु भारत के प्रधानमंत्री थे। एक प्रधानमंत्री के पुण्य-स्मरण में दूसरा प्रधानमंत्री न रहे, इससे बढ़कर दुखद बात क्या हो सकती है? और फिर अगर हम यह मान भी लें कि संघ के स्वयंसेवक होने के नाते मोदी ने गांधी और नेहरु की कभी आलोचना भी की होगी तो भी यह अवसर कैसा है? जनम, परण और मरण – ये तीन अवसर ऐसे होते हैं, जिनमें लोग अपनी नाराजगी भूलकर दूसरों के सुख-दुख में भागीदारी करते हैं। यही भाव लोकतंत्र की आत्मा है। कांग्रेस की अपनी हार से इतना नहीं टूट जाना चाहिए कि वह नेहरु की इस मूल स्वभाव की ही अवहेलना करने लगे। नेहरुजी के प्रथम मंत्रिमंडल के 14 सदस्यों में से 6 गैर-कांग्रेसी थे। उसमें आंबेडकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसे उनके विरोधी भी थे। नेहरु कांग्रेस के ही नहीं, सारे देश के नेता थे। वे प्रधानमंत्री नहीं बनते तो भी देश उन्हें सबसे बड़े नेताओं की श्रेणी में रखता। नेहरु के जन्मदिन के इस एतिहासिक उत्सव में भारत के प्रधानमंत्री को नहीं बुलाकर कांग्रेस अपना कद स्वयं छोटा कर रही है।
मान लो कि वह मोदी को ससम्मान बुला लेती तो क्या हो जाता? क्या मोदी इतने नादान है कि 50 देशों के नेताओं के सामने वे नेहरु के विरुद्ध बोलते? यदि वे बोलते तो कुछ अच्छा ही बोलते, जो आज की राजनीति में सद्भाव की मिश्री घोलता। यदि मोदी को संघ के स्वयंसेवक होने के कारण नहीं बुलाया गया तो मैं पूछता हूं कि उन पार्टियों को क्यों बुलाया गया है, जिनके नेता गांधी और नेहरु के जीते-जी उन्हें ‘रनिंग डाॅग आॅफ इम्पीरियलिज्म’ कहते थे। उनकी वेशभूषा पर व्यंग्य कसते हुए ‘मुगलिया तबलची’ कहने में भी उन्हें संकोच नहीं होता था। नेहरु की सवा सौंवी जयन्ति ऐसा महत्वपूर्ण अवसर है, जबकि हम 21 वीं सदी के भारत के बारे में सर्वसम्मति पैदा कर सकते थे।
लेकिन राहुल और सोनिया ने इस अवसर का उपयोग कैसे किया है? उत्सव के पहले ही दिन मां-बेटे ने नेहरु का गुणानुवाद करने की बजाय मोदी के निंदा-रस में डुबकी लगाई। कहां नेहरु और कहां नरेंद्र मोदी? दोनों को मां-बेटे ने एक ही पलड़े पर बिठा दिया। इस अवसर पर यदि मां-बेटा, दोनों ही नेहरुजी की किताबें या चिट्ठियां पढ़ने की कोशिश करते और उनकी बौद्धिकता का थोड़ा-सा भी लाभ उठाते तो वे कांग्रेस की डूबती नय्या को उबारने में कुछ योगदान कर सकते थे। उल्टे, राहुल ने नेहरु के नाम पर मोदी-विरोधी का रेकार्ड बजा दिया। पता नहीं, किसने इस भोले युवक को बहका दिया। राहुल ने नेहरु और मोदी की मुठभेड़ करवा दी। कह दिया कि मोदी अंग्रेजी को खत्म करना चाहते हैं और नेहरु अंग्रेजी को बनाए रखना चाहते थे। राहुल ने अंग्रेजी की महत्ता का भी गुणगान कर दिया। राहुल कुछ पढ़ते-लिखते तो उन्हें पता होता कि हिंदी को राजभाषा नेहरुजी ने ही बनाया। कांग्रेस जब तक अंग्रेजी में चलती रही, वह ए.ओ. ह्यूम की कांग्रेस ही बनी रही। वह ड्रांइग रुम पार्टी से ज्यादा कुछ नहीं थी लेकिन गांधी के आते ही वह सारे देश में फैल गई। क्यों फैल गई? क्योंकि उसका काम-काज हिंदी में होने लगा। आज भी अंग्रेजी की अनिवार्यता और वर्चस्व के चलते देश की समृद्धि, उच्च शिक्षा, सम्मान और संपन्नता सिर्फ मुट्ठीभर लोगों के बीच कैद है। इसके अलावा चीन, जापान, फ्रांस और जर्मनी तकनीक में भारत से बहुत आगे हैं। उनका सब काम अपनी भाषा में होता है। राहुल को इतनी मोटी समझ भी नहीं है। मोदी ने अंग्रेजी के खात्मे की बात कब कही है? विदेशों से संपर्क के लिए मोदी ने चीनी और जापानी सीखने को भी प्रोत्साहित किया है। जो मोदी कर रहे हैं, वह आज तक किसी भी प्रधानमंत्री ने नहीं किया। वे विदेश जाकर भी हिंदी बोल रहे हैं, जबकि उनकी मातृभाषा गुजराती है। राष्ट्रभाषा के इस अपूर्व सम्मान की तारीफ होनी चाहिए या निंदा? निंदा भी वह सज्जन कर रहे हैं, जिनकी हिंदी और अंग्रेजी दोनों ही माशाअल्लाह है।
यदि प्रधानमंत्री को बुलाया जाता तो मां-बेटे का कद ऊंचा होता। लेकिन उन्हें इमाम बुखारी की अदा रास आ गई। यदि मोदी 31 अक्तूबर को इंदिरा-स्मृति स्थल पर नहीं गए तो अब उन्हें क्यों बुलाया जाए? मैं मानता हूं कि मोदी यदि पटेल के साथ इंदिराजी को भी माला पहना देते तो उनका कद भी ऊंचा होता। ओछेपन की इस होड़ में किसका कद कम हुआ? हमारे उन महान नेताओं का तो बिल्कुल नहीं। लेकिन यह कहना तो बिल्कुल बेजा है कि मोदी अब हमारे नेताओं को दुहने की कोशिश कर रहे हैं। मोदी ने ‘चाचा नेहरु’ को जनता से जोड़ने की अपील की, स्वच्छता अभियान को गांधी से और पटेल की विशाल मूर्ति खड़ी करने का आयोजन किया तो इसमें बुरा क्या है? मैं इसे मोदी की राजनीति नहीं, राष्ट्रनीति कहता हूं। ये तीनों सिर्फ राजनेता नहीं, राष्ट्रनेता थे। यदि हमें भारत को महान लोकतंत्र बनाना है तो हमें इतना सहनशील जरुर होना होगा कि अपने नेताओं का सम्मान करते समय उन्हें हम पार्टी, भाषा, प्रांत या ‘विचारधारा’ के चश्मे से देखना बंद कर दें।