साधु की वाणी सदा,
हृदय को छू जाय,
बिना पते का दीप है,
जाने कहां मिल जाय॥1636॥
व्याख्या:- साधु से अभिप्राय सत्पुरुष से है, सज्जन से है अर्थात् भद्र-पुरुष से है, भले व्यक्ति से है। साधु के हृदय में ऋजुता होती है यानी कि उसके हृदय में कोमलता होती है,निष्कपटता होती है कुटिलता कोसों दूर होती है,सोम्यता और सरल होती है, सत्यता होती है। इसलिए उसकी वाणी हृदय को स्पर्श करती है। सत्य का यह स्वभाव होता है कि वह हृदय को स्पर्श करता है ,प्रभावित और प्रकाशित करता है। अतः ऐसी वाणी से से सज्जन की पहचान हो जाती है। ऐसा व्यक्ति कहां,कब मिल जाए कोई पता नहीं। यह राजा के राज महल में, किसी ऑफिस में,रंक की झोपड़ी में, सफर में,धूप में अथवा किसी वृक्ष की छाया में, घर में,देश व परदेश में कहीं भी मिल सकता है इसका अपना कोई निश्चित पता (Address) नहीं होता है। इसकी यह विशेषता है, यह जहां भी रहता है, उस स्थान को अपने दिव्य गुणों से आलोकित करता है,सुरभित करता है जैसे चिराग करता है।इसलिए किसी उर्दू के शायर ने ठीक ही कहा है :-
वह जहां भी रहेगा,
रोशनी लुटायेगा।
क्योंकि चिरागों का अपना,
कोई मकां नहीं होता॥
साधु की महिमा
पुण्य उदय होता कोई,
तो साधु मिल जाय।
न जाने किस रिश्ते में,
आकै साथ निभाय॥1637॥
व्याख्या:- जिस प्रकार भगवान के स्वरूप को जानने के लिए दिव्य-दृष्टि की आवश्यकता है, ठीक इसी प्रकार साधु अर्थात् सत्पुरुष को जानने अथवा पहचानने के लिए भी बड़ी पारखी नजर चाहिए। सत्पुरुष मिलना अथवा उसका सानिध्य प्राप्त होना तभी संभव है जब व्यक्ति का कोई पुण्य उदय होता है अन्यथा नहीं।सत्पुरुष आपके घर में माता-पिता, भाई-बहन,पुत्र – पुत्री, पति-पत्नी, मित्र अथवा रिश्तेदार के रूप में मिल सकता है तथा इसके अतिरिक्त गुरु-शिष्य, अधिकारी-कर्मचारी, सेवक-स्वामी के रूप में,ग्राहक- दुकानदार के रूप में, सहयात्री अथवा सहपाठी के रूप में,अनेकों सम्बन्धों में आकर आपका साथ निभा सकता है।यदि ऐसा सत्पुरूष कही भी कभी भी आपको मिलता है, तो उसे अपने प्रारब्ध का पुण्य मानिए।
क्रमशः