मैं १५ नबम्वर को गुवाहाटी पहुँच गया था । भारत तिब्बत सहयोग मंच हर साल तवांग तीर्थ यात्रा का आयोजन करता है । यात्री देश के अलग अलग हिस्सों से चलकर अरुणाचल प्रदेश में तवांग से भी आगे भारत-तिब्बत की सीमा पर बुमला जाकर धरती माँ का पूजन करते हैं और चीन द्वारा १९६२ में कब्जायी गई धरती को छुड़ाने का संकल्प करते हैं । उसी यात्रा के लिये मैं यहाँ गुवाहाटी आया हुआ था । पूर्वोत्तर , विशेष कर असम पिछले लम्बे अरसे से किसी न किसी कारण से चर्चित रहा है । असम की राजनीति में सबसे बड़ा बदलाव तब आया था जब यहाँ की युवा पीढ़ी , ख़ास कर विद्यार्थी वर्ग ने वर्षों से सत्तारुढ कांग्रेस को उखाड़ फेंका और असम गण परिषद सत्तारूढ़ हो गई । यह परिवर्तन अवैध बंगलादेशी मुसलमानों के असम में अबाध गति से हो रहे प्रवेश को लेकर हुआ था । लेकिन असम गण परिषद अवैध बंगलादेशी मुसलमानों को बाहर निकालने का रास्ता तो नहीं खोज पाई अलबत्ता ख़ुद ही आपसी लड़ाइयों का शिकार हो गई । इस बीच बंगलादेशी मुसलमानों की संख्या इतनी तेज़ी से बढ़ने लगी कि प्रदेश के ग्यारह ज़िले तो मुस्लिम बहुसंख्यक हो ही गये , यहाँ का जनसांख्यिकी अनुपात भी बदलने लगा । इतना ही नहीं बढ़ती संख्या के बल पर ये बंगलादेशी मुसलमान आक्रामक मुद्रा भी अख़्तियार करने लगे । उससे भी आगे जाकर इनकी संलिप्तता भारत में आतंकवादी गतिविधियों में भी स्पष्ट दिखाई देने लगी और इन्होंने भारत भूमि का दुरुपयोग बंगला देश में पाकिस्तान समर्थक इस्लामी आतंकवादी दलों को हथियार मुहैया करवाने में भी शुरु कर दिया । इनकी हिम्मत इतनी बढ़ी कि इन्होंने असम में सत्ता पर क़ब्ज़ा करने के स्वप्न देखने शुरु कर दिये । कहा जाता है कि असम में बदरुद्दीन की पार्टी आल इंडिया यूनाईटड फ़्रंट के पीछे अवैध बंगलादेशी मुसलमानों का ही हाथ है । ध्यान रहे बदरुद्दीन की पार्टी ने अभी हुये लोक सभा चुनावों में असम से तीन सीटें जीत कर सभी को चौंका दिया था । बंगलादेशियों में खुल कर यह चर्चा होने लगी है कि वे असम का अगला मुख्यमंत्री बनायेंगे ।
इस विषय को लेकर, गोलाघाट के प्रसिद्ध प्रकाशन गृह भगवती प्रकाशन के मालिक घनश्याम लडिया से मेरी लम्बी बातचीत हुई । लडिया परिवार का असम में हिन्दी के प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण स्थान रहा है । भगवती प्रसाद लडिया , जिनके नाम पर यह प्रकाशन गृह है , असम के स्वतंत्रता सेनानियों में प्रमुख थे । उन्होंने अपना जमा जमाया कपड़े का व्यवसाय छोड़ कर प्रकाशन गृह शुरु कर दिया था ताकि असम में वैचारिक जागरण में सहायता मिल सके । घनश्याम का मानना था कि बंगलादेशियों के मामले में असम के लोगों में अब निराशा आने लगी थी । आम असमिया सोचने लगा था कि सोनिया कांग्रेस सरकार अब तक वोट के लालच में इन बंगलादेशी मुसलमानों को असम में बसाती रही है लेकिन जब उन की संख्या निर्णायक स्थिति तक पहुँच गई तो उन्होंने सोनिया कांग्रेस का साथ छोड़ कर अब अपना ही राजनैतिक दल बना लिया है । केन्द्र सरकार और प्रदेश सरकार दोनों ही इस मामले में रेत में गर्दन दबा कर बैठते रहे हैं ।
घनश्याम का कहना था कि केन्द्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार आने के बाद आम असमिया एक बार फिर उत्साह में आया है । उसे लगता है कि जो काम अब तक की कोईँ सरकार नहीं कर पाई वह नरेन्द्र मोदी की सरकार कर सकती है । असमिया समाज सब राजनैतिक भेदभाव भुला कर एक स्वर से बोलने लगा है । मोदी का साथ देने से असम बच जायेगा और अपनी मूल पहचान भी बचा पायेगा । जिस प्रकार कभी असम के पहले मुख्यमंत्री गोपी नाथ वरदोलेई ने असम को पाकिस्तान में शामिल किये जाने से बचा लिया था उसी प्रकार नरेन्द्र मोदी भी असम को बंगलादेशियों के हाथों जाने से बचा सकते हैं ।
शायद यही कारण रहा कि कुछ महीने पहले हुये लोक सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने असम की चौदह लोक सभा सीटों में से सात जीत कर ३६.८६% मत प्राप्त किये । पहले कोई इस प्रकार की कल्पना नहीं कर सकता था । इस नये परिवर्तन से भारतीय जनता पार्टी उत्साह में नज़र आ रही है । आश्चर्य है कि भाजपा से भी ज़्यादा उत्साह इस जीत के अवसर पर आम असमिया समाज दिखा रहा है । लेकिन सही समय देख कर बंगलादेशी भी गोलबन्द होने लगे हैं । घनश्याम लडिया , बदरुद्दीन की पार्टी आल इंडिया यूनाईटड फ़्रंट में आये उभार को बंगलादेशियों का गोलबन्द होना ही मानते हैं । इस दल ने भी लोक सभा चुनावों में तीन सीटें प्राप्त कीं और १४.९८% मत प्राप्त किये ।
गहराई से विश्लेषण किया जाये तो पता चल जायेगा कि पूरे प्रदेश में मुक़ाबला मुख्य रुप से भाजपा , सोनिया कांग्रेस और यूनाईटड फ़्रंट के बीच ही रहा । सोनिया कांग्रेस ने भी ३ सीटें जीतीं और २९.९०% मत प्राप्त किये । असम गण परिषद किसी भी लोक सभा क्षेत्र में मत प्राप्त करने में लाख का आँकड़ा भी पार नहीं कर पाई । चुनाव परिणाम का एक परिणाम तो यह निकला कि असम गण परिषद और सोनिया कांग्रेस से भाग भाग कर भाजपा में आने वालों की लाइनें लगने लगी हैं । उस को लेकर असमिया अखवारें भरी रहती हैं । अखवारें में मुख्य चिन्ता इस बात को लेकर रहती है कि सोनिया कांग्रेस के भ्रष्ट लोगों को यदि भाजपा शरण देने लगेगी तो उसकी छवि खंडित होने लगेगी । एक वरिष्ठ असमिया पत्रकार को भाजपा की इस छवि की इतनी चिन्ता नहीं थी , उनकी असली चिन्ता यह थी कि बहुत लम्बे अरसे बाद भाजपा के रुप में एक विकल्प नज़र आया है जो प्रदेश को बंगलादेशियों से निजात दिला सकता है , कहीं वह मार्ग में ही न दम तोड़ दे ।
एक नया परिवर्तन मूल असमिया मुसलमानों के व्यवहार में भी भाजपा की बढ़त के बाद दिखाई देने लगा है । अब वे अपनी पहचान बंगलादेशी मुसलमान से अलग करना चाहते हैं । ऐसे कुछ मुसलमानों से बातचीत हुई । वे बलपूर्वक यह बताने की कोशिश करते हैं कि उनके सुख दुख असमिया लोगों से साँझे हैं , बंगलादेशी मुसलमानों से नहीं । वे भारतीय जनता पार्टी से जुड़ने के अब ज़्यादा इच्छुक दिखाई देते हैं । यदि ऐसा होता है तो बंगलादेशी मुसलमानों और असमिया मुसलमानों को एक मंच पर मज़हब के नाम पर एकत्रित करने का बदरुद्दीन का सपना अधूरा रह सकता है ।
सोनिया कांग्रेस की सबसे बड़ी चिन्ता आने वाले विधान सभा चुनावों को लेकर है । लोक सभा चुनावों में तो पार्टी इसलिये तीस प्रतिशत वोट ले गई कि अभी आम असमिया में यह विश्वास नहीं बन पाया था कि सोनिया कांग्रेस को हराया जा सकता है । लेकिन नरेन्द्र मोदी की हवा और विश्वसनीयता के चलते जो बाज़ी भाजपा ने लोक सभा चुनाव में मार ली उससे आम असमिया को भी विश्वास हो चला है कि यह सिंहासन हिलाया जा सकता है । इसके चलते विधान सभा चुनावों में सोनिया कांग्रेस के मतों में बहुत तेज़ी से गिरावट आ सकती है । यही चिन्ता मुख्यमंत्री तरुण गोगोई समेत दिल्ली में सोनिया गान्धी और राहुल गान्धी को सता रही है । लेकिन इतना निश्चित है कि आने वाली लड़ाई भाजपा , सोनिया कांग्रेस और ए.आई.यू.डी.एफ में ही होगी । इसमें सोनिया कांग्रेस और यूनाईटड फ़्रंट में से किसी एक का ढेर होना निश्चित है । अगली तस्वीर उसके बाद ही साफ़ होगी ।