ओ३म्
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दिनांक 31 दिसम्बर, 2021 अंग्रेजी वर्ष 2021 का अन्तिम दिवस है। अंग्रेजी वर्ष का प्रथम दिन 1 जनवरी ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार होता है। जनवरी के इस प्रथम दिन से कोई महत्वपूर्ण इतिहास जुड़ा हुआ नहीं है। सन् 1582 में यह ग्रेगोरियन कलेण्डर पोप ग्रेगोरी-13 द्वारा अस्तित्व में लाया गया था। ईसाईयों का यह संवत्सर है जिसे विश्व के अनेक देशों ने अपना लिया है। इसका एक कारण यह है कि जिन लोगों ने इस कलैण्डर को बनाया है वह वैदिक संवत्सर से परिचित नहीं थे। यह भी तथ्य है कि यूरोप के देशों में वैदिक धर्म व संस्कृति जैसी आदर्श धर्म व संस्कृति नहीं थी। कैलेण्डर को लागू करते समय उससे पूर्व की कैलेण्डर विषयक व्यवस्था जो उन्हें त्रुटिपूर्ण प्रतीत हुई होगी, उसका सुधार कर इस ग्रेगोरियन कलैण्डर को अपनाया गया प्रतीत होता है। वैदिक धर्म व मत को मानने वाले सभी व्यक्ति जानते हैं कि जीवात्मा एक अल्पज्ञ सत्ता है। परमात्मा सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर सत्ता है। ईश्वर एक है तथा जीवात्माओं की संख्या अनन्त है। सभी जीवात्मायें निराकार परमेश्वर के पुत्र व पुत्रीवत् हैं। ईश्वर सबको उनके प्रारब्ध के अनुसार जन्म व ज्ञान देता है। मनुष्य के पास दो प्रकार के ज्ञान होते हैं। एक स्वाभाविक ज्ञान होता है जो सभी मनुष्यों का प्रायः समान होता है। दूसरा ज्ञान नैमित्तिक ज्ञान कहलाता है। वह मनुष्य को अपने माता-पिता व आचार्यों से प्राप्त होता है अथवा पुस्तकों का अध्ययन कर भी मनुष्य अपने नैमित्तिक ज्ञान में वृद्धि करते हैं। चिन्तन व मनन से वह उस नैमित्तिक ज्ञान को स्मरण रखते हुए उसमें वृद्धि करते हैं तथा उसका आचरण कर उससे अनुभव भी प्राप्त करते हैं। ऐसा ही हमारे सभी ऋषि मुनियों सहित मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी, योगेश्वर श्री कृष्णचन्द्र जी, आचार्य चाणक्य जी तथा ऋषि दयानन्द आदि महापुरुषों व ऋषियों के साथ हुआ है। महाभारत काल के बाद वेद और वैदिक विद्याओं का प्रचार भारत सहित विश्व के सभी देशों में होना अवरुद्ध हो गया था। इस कारण भारत सहित विश्व के अन्य देशों में अज्ञान-अन्धकार फैला। लगभग दो हजार वर्ष पूर्व यरूशलम में ईसामसीह का जन्म हुआ। उन्होंने वहां के परिवेश व ज्ञान की स्थिति के अनुसार लोगों को कुछ सामाजिक मान्यतायें व नियम दिए। उससे पूर्व वहां यहूदी मत की मान्यताओं का प्रचलन था। यहूदी मत सहित 66 से 78 पुस्तकों का संकलन बाइबिल ग्रन्थ में बताया जाता है। इस ग्रन्थ की शिक्षाओं ने ही मत, पंन्थ व सम्प्रदाय या रिलीजन का रूप लिया। वर्तमान में कुछ लोग मत-पन्थ आदि शब्दों को अधिक महत्वपूर्ण न मानकर अपने मत व सम्प्रदाय को धर्म नाम से बताते व प्रचारित करते हैं। वास्वविकता यह है कि धर्म संस्कृत का शब्द है जिसका अर्थ है वेद प्रतिपादित सत्य गुणों को धारण करना। यदि यूरोप के लोग अपने व अन्य किसी मत को धर्म के नाम से कहते हैं तो फिर उन्हें यह भी स्वीकार करना चाहिये कि उन सब मतों के लोगों को वेद पढ़ने चाहिये और जो गुण-कर्म-स्वभाव तुलनात्मक दृष्टि से श्रेष्ठ हों, उसको ग्रहण व धारण करना चाहिये। अतः धर्म व मत-पन्थ-सम्प्रदाय एक नहीं है। इनमें अन्तर हैं। धर्म वेद की शिक्षाओं को, जो बुद्धि व तर्क की कसौटी पर सत्य हैं, मनुष्य जीवन में धारण करने का नाम है।
दिनांक आगामी 31 दिसम्बर को अंग्रेजी संवत्सर वर्ष 2021 का अवसान हो रहा है व उसके अगले दिन से नया अंग्रेजी संवत्सर 2022 आरम्भ होगा। यदि ऋतु के आधार पर इसे देखा जाये तो यह आर्यो के संवत्सर चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा की दृष्टि से अधिक अच्छा नहीं है। वर्तमान में लोग शरद ऋतु से परेशान है। तापक्रम लगभग शून्य डिग्री सेल्सियस के पास है। ऐसे ठण्डे मौसम में नये वर्ष के पर्व को मानने में अधिक आनन्द नहीं है। इस पर्व को मनाने का जो अच्छा तरीका हो सकता है उसे जानने का प्रयास ही नहीं किया जाता। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के समय मौसम न उष्ण होता है और न शीत प्रधान, तब न वर्षा होती है न ही अन्य कोई ऋतु विषयक परेशानी होती है। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी यह समय अनुकूल व उत्तम होता है, होली का दिन एक पक्ष वा 15 दिन पूर्व व्यतीत हो चुका होता है जब प्रमुख फसल गेहूं के नवान्न से होली, जो होला शब्द का अपभ्रंस है, यह होला शब्द गेहूं के दानों व उसकी बालियों के लिये प्रयुक्त होता है। इनसे नवसंवत्सर का हवन किया जाता है। किसान अपनी फसल घर में आने से प्रसन्न व उमंग से भरा होता है। यह प्रसन्नता व उमंग ही उत्सव का पर्याय कहा जा सकता है। ऋषियों ने विधान किया है कि जब घर में नई फसल आये तो उसे अग्नि देवता को अर्पित कर यज्ञ किया जाये जिससे नये अन्न का कुछ भाग वायुस्थ सूक्ष्म प्राणियों को भी प्राप्त हो सके। यज्ञ के बाद किसान व अन्य लोग उसका उपभोग कर सकते हैं। इस चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के अवसर पर सर्वत्र वृक्षों में नई पत्तियां व फूल के पौधों में रग-बिरंगे फूल खिले हुए होते हैं। असली नवसंत्सर का यही अवसर होता है। अतः वैदिक धर्मी आर्यों का नवसंवत्सर ही वैज्ञानिक दृष्टि से उत्सव मनाने का सही समय व अवसर कहा जा सकता है। हम तो यही कहेंगे कि भारत के लोगों को इस चैत्र के महीने में शुक्ल प्रतिपदा को ही नवसंवत्सर का उत्सव आयोजित करना चाहिये। नवान्न गेहूं से यज्ञ करना चाहिये। परस्पर शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करना चाहियें और इस अवसर पर अनेक प्रकार के पकवानों को बनाकर स्वयं उसका स्वाद व भक्षण करनला चाहिये। अपने इष्ट-मित्रों को भी पकवानों को वितरित करना चाहिये।
पर्व मनाने की आर्य परम्परा आर्यसमाज में प्रचलित है। यहां सभी उत्सवों पर प्रथम वृहद यज्ञ का आयोजन किया जाता है जिसमें सब स्त्री व पुरुष मिलकर ईश्वर को स्मरण कर वेदमंत्रों से शुद्ध गोघृत व साकल्य की आहुतियां देते हैं। यज्ञ के बाद किसी उच्च कोटि के भजनोपदेशक द्वारा ईश्वर भक्ति का सगीत व भजन प्रस्तुत किये जाते हैं। सब ध्यान से उसका श्रवण करते हुए आनन्द लेते हैं। इसके बाद वेदों के किसी विद्वान आचार्य व योग्य व्यक्ति का मनुष्य जीवन के उद्देश्य, उसकी प्राप्ति के उपाय, ईश्वर की उपासना की विधि, ईश्वर का स्वरूप, जीवात्मा का स्वरूप, मनुष्य जीवन के मुख्य कर्तव्य आदि विषय पर उपदेश होता है जिससे उनका मार्गदर्शन होता है। इसके साथ ही कार्यक्रम व उत्सव समाप्त हो जाता है। दूसरी ओर हम अंग्रेजी पद्धति से मनाये जाने वाले पर्वों में उद्देश्यहीन क्रिया-कलापों को करते हुए युवक व युवतियों को देखते हैं। न तो उन्हें मर्यादापूर्ण नृत्य करना आता है न उनके कार्यक्रमों में ईश्वर के उपकारों का ही स्मरण किया जाता है। वायु शुद्धि जैसे कार्यों के लिये अग्निहोत्र यज्ञ का तो उन्हें ज्ञान ही नहीं है। यह लोग होटल आदि में जो भोजन करते हैं वह भी शरीर शास्त्र की दृष्टि से अनुपयुक्त होता है। भोजन में अत्यन्त तले हुए पदार्थ होते हैं। मांस व मदिरा का सेवन भी अनेक स्थानों पर किया जाता है। भोजन का समय भी सायं 6 से 8 या 9 बजे का न होकर रात्रि 11 से 1.00 बजे तक भोजन करते हैं जो किसी भी प्रकार से स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त नहीं होता। अतः इस प्रकार से नववर्ष या किसी भी पर्व को मनाना उचित नहीं कहा जा सकता। मनुष्य मननशील प्राणी है। उसे अपने सभी कार्य मर्यादा व शालीनतापूर्वक करने चाहिये। इन बातों का पश्चिमी सभ्यता में अभाव दीखता है। वहां बड़ों का आदर, उन्हें सम्मानपूर्वक सम्बोधित करना, उनसे आशीर्वाद लेना, उन्हें पहले भोजन कराना आदि जैसी मर्यादायें व परम्परायें स्यात् नहीं हैं। हमें नववर्ष व अन्य पर्वों को मनाते हुए देश, काल व परिस्थितियों पर भी ध्यान देना चाहिये। हमें लगता है कि सभी बुद्धिमान लोग चैत्र शुक्ल प्रतिपदा जो वर्ष 2022 में शनिवार 2 अप्रैल को पड़ नही है, वही नव वर्ष का सब से उपयुक्त दिवस प्रतीत होता है। प्राचीन शास्त्रों में प्रमाण हैं कि इसी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन सूर्योदय के समय ब्रह्मा जी ने जगत का आरम्भ किया था। इसका अर्थ यह है कि इसी दिन अमैथुनी सृष्टि में सभी मनुष्य अर्थात् स्त्री-पुरुष व ऋषि आदि लोग उत्पन्न हुए थे। इसी दिन परमात्मा ने चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान दिया था। ज्योतिष के आचार्य भास्कराचार्य ने अपने ग्रन्थ सिद्धान्त शिरोमणि में लिखा है कि लंका नगरी में सूर्य के उदय होने पर उसी (सूर्य) के वार अर्थात् आदित्यवार में चैत्र मास शुक्ल पक्ष के आरम्भ में दिन मास वर्ष युग आदि एक साथ आरम्भ हुए थे।
हम सभी सुधी पाठक बन्धुओं से आशा करते हैं कि वह अपनी शिक्षा का उपयोग करते हुए स्वयं अध्ययन कर देखें कि 1 जनवरी का दिन नव वर्ष के लिये उपयुक्त है या चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा का दिन अधिक उपयुक्त है। हर दृष्टि से चैत्र मास का दिन ही उपयुक्त है। अतः विश्व स्तर पर इस तिथि को ही अपनाना चाहिये। हम बचपन से यह सुनते आयें हैं कि नकल करना बुरी आदत है। नववर्ष में भारत के लोग पश्चिमी देशों के लोगों की नकल कर उनका नववर्ष मनाते हैं परन्तु अपनी बुद्धि पर ताले भी लगा रखते हैं। दूसरों की नकल करना और अपनी अच्छी परम्पराओें की उपेक्षा करना उचित नहीं है। ईश्वर हम सबको सद्बुद्धि दें। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य