भारत के बाहर भी बहुत ही गौरवशाली ढंग से जीवित है भारत की संस्कृति
चन्द्रकांत जोशी
अपने देश की सीमाओं के भीतर आप कहीं भी चले जाएं, भाषा और जलवायु की भिन्नता के बावजूद भावनात्मक एकता और अपनेपन के जज्बे के कारण सब कुछ अपना-सा ही लगता है। यह अपनापन किसी जगह के प्रति जुड़ाव तो पैदा करता है, पर एक खास तरह के कुतूहल और रोमांच से आपको वंचित भी कर देता है। यही वजह है जो देश की सीमाओं को पार करने की ललक हर श़ख्स के मन में बनी रहती है।
दूसरी तरफ अपने देश की सीमाएं पार करने के बाद थोड़ी देर तक तो आप एक नए तरह की दुनिया देखने के रोमांच से पुलकित रहते हैं, पर बाद में आपको फिर वही सारी चीजें याद आने लगती हैं, जिन्हें पीछे छोड़कर आप आए होते हैं। यही वजह है जो विदेश घूमना सिर्फ थोड़े दिनों के लिए ही ठीक समझा जाता है। हालांकि अब पर्यटन के लिए लोगों के बढ़ते शौक और इसमें आई व्यावसायिकता के कारण अपने देश के व्यंजन और सुविधाएं तो हर जगह मिल जाती हैं, पर अपना सांस्कृतिक ताना-बाना तो कहीं और नहीं मिल सकता है। न तो उस धरती पर आपको अपनों का प्यार मिलता है, न वह सहयोग और न ही ऐसी निश्ंिचतता पाने की उम्मीद आप कर सकते हैं।
लेकिन नहीं, ऐसा भी नहीं है कि भारत के बाहर आपको हर तरफ अनजानी-अजनबी दुनिया ही मिले। दुनिया में कुछ ऐसे देश भी हैं जहां आपको देश से बाहर होने का एहसास तक नहीं होगा। भारत के बाहर होते हुए भी सब कुछ आपको अपना-सा लगेगा। भाषा, खानपान, धार्मिक रीति-रिवाज और यहां तक कि संस्कार भी बिलकुल भारतीय। कुछ देश तो ऐसे भी हैं जहां कुछ दिन घूमने के बाद आप भारतीय संस्कृति से ऐसे अभिभूत हो जाएंगे जैसे आप भारत में रहते हुए भी नहीं हो सके होंगे।
मंदिरों में बजते घंटे, खानपान के तौर-तरीके और पारंपरिक भारतीय वेशभूषा देखकर तो आपको ऐसा लगेगा जैसे असली भारत अब यहीं आ गया हो। अपना देश अब जिस तरह पश्चिमी रंग में रंगता जा रहा है, उससे तुलना करने पर तो ऐसा लगेगा कि क्यों न अपनी संस्कृति से जुड़ाव को और गहरा तथा जीवंत करने के लिए हम शताब्दियों पहले अपने इन बिछुड़ गए भाई-बहनों से प्रेरणा लें।
जी हां, ये हमारे अपने बिछुड़े हुए लोग ही हैं जिन्होंने भारत से बाहर जाकर अपने ढंग से एक अलग भारत बसाया है। इनमें कुछ रोजी-रोटी की तलाश में खुद-ब-खुद गए हैं तो कुछ को अंग्रेजी शासनकाल के दौरान गिरमिटिया मजदूर के तौर पर जबरिया ले जाया गया है। दुर्गम और अत्यंत असुविधाजनक जगहों पर जाकर उन्होंने अपनी मेहनत से संपन्नता और सुविधाओं का जो स्वर्ग सजाया, उसने उन्हें सब कुछ दे दिया। वे मजदूर से मालिक तो बन गए, पर इस क्रम में भी उनके लिए बहुत कुछ बाकी रह गया। वे लगातार यह महसूस करते रहे कि उन्होंने अपना देश खोया है और खोई है उसकी संस्कृति। हालांकि परदेस के भयावह अंधकार में जो इकलौती रोशनी उन्हें मिलती रही, वह भी अपने देश की संस्कृति के दिए से ही मिल रही थी। लिहाजा मौका मिलते ही उन्होंने अपने उन संस्कारों-प्रतीकों को नई गति दी, जिसके नतीजे सबके सामने हैं।
कुछ जगहों पर हमारी संस्कृति इसलिए पहुंची कि वहां के लोगों को इसने आकर्षित किया। उन्होंने अपनी तमाम समस्याओं से मुक्ति और बेहतर जीवन शैली की ओर जाने का मार्ग भारत की संस्कृति और सभ्यता में देखा। इस तरह इसकी जड़ें दुनिया के अनेक देशों में अत्यंत गहरे तक जमती चली गई।
बदलते हुए वैश्विक परिदृश्य में वैसे तो भारतीयों का बोलबाला पूरी दुनिया में है। भारतीय ध्यान और योग की लहर से आज एशिया, यूरोप और अमेरिका के अलावा अन्य देश भी प्रभावित हैं। प्राच्य विद्याओं के प्रति लोगों का रुझान बढ़ा है। इन्हीं सबके साथ बढ़ रही है भारतीयों के प्रति स्नेह और सहयोग की भावना। पर कुछ देश ऐसे भी हैं जो भारत और भारतीयों के प्रति स्नेह-सम्मान की भावना कई पीढि़यों से अपने भीतर बसाए हुए हैं। उनका यह भाव दिखाई देता है उनकी पूरी जीवन शैली और उनके संस्कारों में।
मारीशस: भारत के नाम पर धड़कती जिंदगी
भारतभूमि से बहुत दूर होने के बावजूद भारतीय संस्कृति जहां पूरी तरह मूर्तमान है, उन देशों की चर्चा के क्रम में सबसे पहला नाम मॉरीशस का आता है। भारतीयता के प्रबल प्रतीक मॉरीशस में एयरपोर्ट पर उतरने से लेकर वहां के विभिन्न कार्यक्रमों में भागीदारी के बीच कहीं भी और कभी भी हमें यह महसूस नहीं हुआ कि हम अफ्रीका के दक्षिणी-पूर्वी छोर पर बसे एक छोटे-से द्वीप पर मौजूद हैं, बल्कि हर कदम पर यही लगा कि यह भारत का ही कोई हिस्सा है। मॉरीशस पर लंबे अरसे तक फ्रांस का आधिपत्य रहा है, अत: यहां अंग्रेजी और फ्रेंच के अलावा क्रियोल भाषाएं चलन में हैं। हिंदी और भोजपुरी का भी यहां जबर्दस्त वर्चस्व है। यहां के कुछ लोग हिंदी में आपका जवाब भले न दे सकें, पर आप कहना क्या चाहते हैं, यह वे समझते हैं।
भारतीय मूल के लोगों का तो कहना ही क्या!
यहां मंदिरों में विधि-विधान के साथ पूजा-पाठ होता है। पंडित-पुरोहित विविध संस्कारों को अत्यंत शुद्धता के साथ संपन्न कराते दिखते हैं। भारतीय मूल के लोग अपने तीज-त्योहारों के मामले में आज भी सभी परंपराओं का निर्वाह करते हैं। दक्षिण भारतीय समुदाय के लोग यहां मकर संक्रांति के अवसर पर पड़ने वाले ‘पोंगल’ को पूरे उत्साह के साथ मनाते हैं। पूरे तीन दिन तक चलने वाले उत्सव में यहां भी उन सभी रीति-रिवाजों का निर्वाह होता है, जिनका निर्वहन भारत में किया जाता है।
इतिहास में रुचि रखने वाले लोग जानते हैं कि भारत में जब अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच संघर्ष चल रहा था, तब अपनी स्थिति बेहतर बनाने के लिए अंग्रेजों की नजर मॉरीशस पर गई। उन्होंने मॉरीशस पर आक्रमण किया और इसे फ्रांसीसियों से छीन लिया। फ्रांसीसियों ने हारकर सत्ता तो अंग्रेजों के हवाले कर दी, पर अपनी सांस्कृतिक शक्ति को बचाए रखा। उन्होंने यहां के भारतीयों के साथ हिंदी व फ्रेंच को मिलाकर नई बोली का आविर्भाव किया, उसे ही अब क्रियोल के नाम से जानते हैं। भारतीय संस्कृति को पुष्पित-पल्लवित होने देने में फ्रांसीसियों ने परोक्ष योगदान किया। लगभग दो सौ वर्ष पूर्व जब भारतीय यहां पहुंचे, तो उन्होंने इसे ‘मारीच देश’ कहा था। रामायण की अनुगूंज आज भी यहां भारतीयों की आस्था का जबर्दस्त सेतु है। श्रीरामचरित मानस की चौपाइयां यहां कष्ट में फंसे लोगों के लिए संजीवनी बूटी का काम करती हैं। भारत में निर्मित होने वाले धार्मिक टेलीविजन कार्यक्रमों का बड़ा दर्शक वर्ग मॉरीशस में है। यहां भारतीय विषयों पर न सिर्फ गांव और गलियों के नाम रखे गए हैं, अपितु सिनेमाघरों, दुकानों, बसों तक के नाम नालंदा, सूर्यवंशी, बनारस, सम्राट अशोक तथा अजंता आदि रखे जाते हैं।
भारतीय सांस्कृतिक संदर्भो में यहां डाक टिकट भी जब-तब निकलते रहे हैं। घरों की बनावट में भी भारतीय वास्तुकला का पूरा ध्यान रखा जाता है। मार्क ट्वेन जैसे लेखक को मॉरीशस यात्रा के दौरान यह कहना पड़ा कि भगवान ने पहले मॉरीशस बनाया होगा, फिर उसकी नकल पर स्वर्ग का निर्माण किया होगा। पर इस बंजर भूमि को स्वर्ग बनाने वाले उन महान भारतीयों को कभी भुलाया नहीं जा सकता जिन्होंने खुद की आहुति देकर अपने मूल्यों को बचाए रखा। तमाम प्रलोभनों-प्रतिबंधों के बावजूद चोरी-चोरी अपनी भाषा, संस्कृति व धर्म से जुडे़ रहे। तब भारतीयों को अपनी भाषा में अभिव्यक्ति की आजादी इसलिए नहीं थी क्योंकि अंग्रेज डरते थे कि वे उनके विरुद्ध कोई षड्यंत्र न कर बैठें। उन्हें रामायण व लोकगीत गाने से इसलिए रोका जाता था कि कहीं उनके बीच विद्रोह की चिंगारी न पनप जाए। फिर भी भारतीय स्ति्रयों ने कोयले के टुकड़ों से अंगीठी की रोशनी में अपने बच्चों को अक्षरों का बोध कराया। आंगन में हनुमान जी तथा गांवों के नुक्कड़ पर काली माई की स्थापना कर विधर्मी शक्तियों से प्रतिरोध का मौन अभिषेक किया।
मॉरीशस में आज भी हर भारतवंशी के आंगन में हनुमान जी के चबूतरे और लाल झंडियां सांस्कृतिक मूल्यों के विजय की लघुपताकाएं बनकर लहरा रही हैं। भारतीय संस्कृति का प्रतिबिंब समूची जीवन शैली में साफ दिखता है। चाहे गोदभराई की रस्म हो या बच्चों के जन्म पर नामकरण संस्कार, सोहर व ललना गाने का चलन हो या उपनयन, बरछिया पद्धति हो या गृह-प्रवेश या फिर अंतिम यात्रा का क्षण सभी जगह भारतीय रीति-रिवाजों और परंपराओं का पूरी तन्मयता से पालन किया जाता है। हाईटेक होती संस्कृति के बीच शादी-विवाह के रंग-ढंग भले बदले हों, पर भोज आज भी केले के पत्तों पर पूड़ी व साग-सब्जी के साथ ही होता है। माटी कोड़ाई, इमली घोटाई, कंगना खिलाई, तिलक, हल्दी से लेकर अग्नि के भांवर आदि रस्मों का निर्वाह भारतीय संस्कृति और पद्धति के अनुरूप ही होता है। गांवों में बिरहा और हरपरौरी जैसे लोक गायन सुनने को मिलते हैं। मॉरीशस की युवा पीढ़ी फ्रेंच और अंग्रेजी गाने सुन तो लेती है, लेकिन गुनगुनाने के लिए उनकी प्राथमिकताएं हिंदी, भोजपुरी गीत और उर्दू गजलें ही हैं।
थाईलैंड: दिनचर्या में बसा भारत
थाईलैंड अथवा इसके पूर्व के स्यामवासियों के जीवन पर भारतीयता का गहरा प्रभाव रहा है। दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया के इतिहासविद जानते हैं कि खोम साम्राज्य, जिसके अंतर्गत आज के कंबोडिया, मध्यवर्ती थाईलैंड तथा लाओस व वियतनाम के बहुत से भागों को शामिल किया जा सकता है, वैदिक मूल्यों तथा ब्राह्मणवाद से अत्यंत प्रभावित था। लगभग 1000 ई.पू. में दक्षिण थाईलैंड से श्री विछाया साम्राज्य, जिसके मुख्यालय छाया और सुमात्रा (अब इंडोनेशिया) थे, में बौद्ध धर्म के महायान मत का प्रभाव फैला। कुछ समय के लिए लोफूरी राज्य में भी महायान का बोलबाला रहा, परंतु उसके कुछ समय बाद संपूर्ण थाईलैंड में बौद्ध धर्म के दूसरे मत हीनयान का वर्चस्व कायम हो गया।
मूलत: भारत में जन्मा यही हीनयान आज थाईलैंड का राज्यधर्म भी है। इस प्रकार वैदिक तथा बौद्ध मान्यताओं की अंगुली थामे भारतीय संस्कृति हजारों वर्ष पूर्व थाईलैंड पहुंची थी। भारतीय संस्कृति ने वहां के परिवेश और उनके दिन-प्रतिदिन के व्यवहारों को इस तरह प्रभावित किया कि वह आज उनके जीवन का स्थायी भाव एवं दिनचर्या का महत्वपूर्ण अंग बन चुकी है।
यहां के 95 प्रतिशत नागरिक बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं। यहां बौद्ध मंदिरों की खूबसूरती देखते ही बनती है। वहां की भाषा में इन मंदिरों को ‘वाट’ कहा जाता है। पूरे थाईलैंड में वाट यानी बौद्ध मंदिरों की संख्या 18 हजार से भी अधिक है। इन मंदिरों में विभिन्न प्रस्तरों वाली छतें बनाई जाती हैं। उनमें से कई मंदिरों के गुंबद स्वर्णमंडित हैं।
बौद्ध मान्यताओं का केंद्र बिंदु करुणा है और थाई जीवन पर इसका अमिट प्रभाव है। पंचशील, त्रिरत्न, कर्मसिद्धांत, गृहस्थी के लिए चार नियम, चार ब्रह्मविहार, समाज में एकता के लिए चार नियम, समस्त जीवन के लिए 38 नियम, इसी प्रकार शासक के लिए नियम या गुण, सम्राट के लिए नियम या गुण तथा मध्य मार्ग आदि इसके उदाहरण हैं। थाईलैंड के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति प्रीदी कासेमसप वहां ऑरिएंटल कल्चरल अकादमी (प्राच्य संस्कृति प्रतिष्ठान) चलाते हैं। महात्मा गांधी एवं गुरुदेव रबीन्द्र नाथ टैगोर के चित्र उनके कक्ष में लगे हैं। उन्होंने बताया कि भारतीय संस्कृति के आधार स्तंभों, वेद, उपनिषद, गीता, पुराण तथा अन्य शास्त्रों के विधिवत अध्ययन के लिए अकादमी द्वारा चीनी व थाई भाषा के बाद संस्कृत भाषा का पाठ्यक्रम भी शुरू किया गया है।
थाईलैंड यात्रा में रामायण, श्रीराम तथा रामलीला से जुड़ी बहुत-सी बातें वहां जाने वाले को देखने को मिलती हैं। थाईलैंड की थम्मासाट यूनिवर्सिटी के इंडिया स्टडीज सेंटर की निदेशक प्रो. नोंगलुक्साना थिपासवासदी बताते हैं कि थाईलैंड में भी एक अयोध्या है। यही नहीं, यहां श्रीराम के पुत्र लव के नाम पर लवपुरी (लोपबुरी) भी है।
थाईलैंड के नागरिकों का यह गहरा विश्वास है कि रामायण की कई घटनाएं उनके अपने देश में घटी थी। थाईलैंड की एक नदी का नाम भी सरयू है। दिलचस्प बात यह है कि भारत की तर्ज पर ही वहां भी सरयू अयोध्या के निकट ही बहती है। वस्तुत: थाईलैंड की सांस्कृतिक जीवनधारा श्रीराम की जीवनदृष्टि में पूर्णत: समाहित है।
भगवान बुद्ध के प्रभाव वाले इस देश में राम और बुद्ध के बीच कोई विभाजन रेखा दिखाई ही नहीं देती। इसका सबसे बड़ा प्रमाण बैंकाक स्थित शाही बुद्ध मंदिर है। जिसमें नीलम की मूर्ति है। यह मंदिर थाईलैंड के सुप्रसिद्ध मंदिरों में से एक है तथा दूर-दराज से श्रद्धालु यहां दर्शनार्थ आते हैं। इस मंदिर की दीवारों पर संपूर्ण रामकथा चित्रित है।
यही नहीं, थाईलैंड की अपनी स्थानीय रामायण भी है। जिसे ‘रामकियेन’ के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के रचियता नरेश राम प्रथम थे। उल्लेखनीय है कि उन्हीं के वंशज आज भी थाईलैंड में शासक हैं। थाईलैंड के विश्व प्रसिद्ध नेशनल म्यूजियम में भी श्रीराम के दर्शन सुगमतापूर्वक किए जा सकते हैं। वहां खड़े धनुर्धारी राम की आकर्षक प्रतिमा आगंतुकों को मंत्रमुग्ध करती है। वहां प्रस्तुत होने वाले शास्त्रीय नृत्यों में भी राम कथा के अनेक प्रसंग प्रदर्शित किए जाते हैं। यहां रहने वाले भारतीय नागरिकों में भारतीय त्यौहारों के प्रति जितनी आस्था और विश्वास है, वह उनके आयोजनों के माध्यमों से साफ पता चलता है।
कंबोडिया: भगवान विष्णु का सबसे बड़ा मंदिर है अंगकोर वाट
विश्व में भगवान विष्णु का सर्वाधिक विशाल मंदिर ‘अंगकोर वाट’ कंबोडिया में ही है। यह भारत और कंबोडिया के सांस्कृतिक सौहार्द का प्रतीक है। विचार, संकल्पना और शैली में पूरी तरह भारतीय इस मंदिर के नियोजन व निर्माण का कार्य खमेर शिल्पियों ने किया था। यह मंदिर विश्व धरोहर होने के साथ-साथ करोड़ों लोगों की आस्था का भी केंद्र है। अंगकोर वाट मंदिर के जीर्णोद्धार व प्रबंधन का जिम्मा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के पास है। इस मंदिर के दर्शन के लिए दुनिया भर से लाखों सैलानी हर साल आते हैं। इन्हें भारतीय आध्यात्मिक मूल्यों को जानने और समझने का अवसर भी यहां मिलता है।
अंगकोर वाट मंदिर का निर्माण अंगकोर नरेश सूर्य बर्मन द्वितीय 1113-50 ने शुरू किया था। कंबोडिया में हिंदू राजवंश की स्थापना दूसरी शताब्दी में हो गई थी। हिंदू राजवंश की स्थापना यहां कौंडिन्य नामक भारतीय ब्राह्मण ने स्थानीय राजकुमारी से विवाह के बाद की थी। यहां भगवान बुद्ध, शिव और श्रीराम की मूर्तियां भी प्रतिष्ठित हैं। भगवान विष्णु के अंगकोर वाट के बाद कंबोडिया में श्रीराम वहां की लोक संस्कृति के नायक हैं। अंगकोर वाट में रामायण के कई प्रसंगों को सुंदर ढंग से दीवारों पर उकेरा गया है। इन प्रसंगों में सीता की अग्नि परीक्षा, अशोक वाटिका में हनुमान का आगमन, लंका में श्रीराम-रावण युद्ध, बाली-सुग्रीव युद्ध तथा रावण के दरबार में अंगद द्वारा पैर जमाने के दृश्यों की सजीवता देखते ही बनती है। कंबोडिया की रामायण को ‘रामकेर’ के नाम से जाना जाता है।
फिजी: भारत की धुनों पर थिरकता
फिजी में पहुंचे आप्रवासी भारतीयों ने न सिर्फ अपनी सभ्यता और संस्कृति को संरक्षित करके रखा, अपितु विविध क्षेत्रों में कामयाबी के परचम भी फहराए। मॉरीशस के बाद फिजी ही ऐसा देश है, जहां भारतीय मूल के नागरिक वहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था के सर्वोच्च पद ‘प्रधानमंत्री’ तक पहुंचे। फिजी में भारतीय और वहां के मिश्रित संगीत पर मौलिक धुनें जनमानस के व्यवहार का सामान्य हिस्सा हैं। भारतीय घरों में आरती और हनुमान चालीसा के पाठ आम तौर पर सुने जा सकते हैं। अन्य देशों की तरह भव्यता एवं वैभव की प्रतीक दीपावली यहां भी पूरी आस्था और निष्ठा से मनाई जाती है। इस त्यौहार को धार्मिक मान्यताओं के साथ-साथ सांप्रदायिक सौहार्द के रूप में भी मनाया जाता है।
फिजी में चलने वाले अनेक स्कूलों में भारतीय तौर-तरीकों से पढ़ाई की व्यवस्था है। भारत की कई आध्यात्मिक-सामाजिक संस्थाओं की वहां सक्रिय शाखाएं हैं। आर्य समाज का यहां के भारतीय जनजीवन में अभूतपूर्व योगदान है। आर्य समाज द्वारा संचालित संस्थाएं यहां की शैक्षिक गतिविधियों में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं। सन् 1904 से यहां आर्य समाज अपने विभिन्न आयोजनों द्वारा भारतीयता की अलख जगाए हुए है। वैदिक तौर-तरीकों से यहां के प्रत्येक संस्कार संपन्न किए जाते हैं। फिजी की कुल आबादी का 38 प्रतिशत भारतीय समुदाय है। फिजी में आप भारत के साक्षात दर्शन कर सकते हैं।
कैनेडा में भी है भारत की खुशबू
कैनेडा के कुछ हिस्से आने वाले समय में भारतीय संस्कृति के सहोदर बन जाएंगे, तीन पीढि़यों से वहां बसे भारतीय परिवारों का ऐसा मानना है। क्योंकि अब कैनेडा की शादियों में बारात के आगे घोड़ी पर न सही, लिमोजीन गाड़ी में बैठे दूल्हे के आगे ढोल-नगाड़ों पर भारतीय और कैनेडा के मूल फ्रेंच निवासियों को उसी शिद्दत से नाचते-गाते देखा जा सकता है। मक्के की रोटी और सरसों के साग और मिट्ठी लस्सी से अब वो उतने ही वाकिफ हैं जितने कि भंगड़े और गिद्दे नाच से।
कैनेडा में लगभग एक सदी से तमाम भारतीय
परिवार बसे हैं। तीन पीढि़यों से सरी में बसे हरनेक चांदी कहते हैं, ‘मेरे बाबा यहां 1960 में आए थे। जब शायद वीजा जैसी औपचारिकताएं भी नहीं होती थीं। एक कंपनी में नौकरी करते थे। उनसे कहा गया किसान परिवार से हो तो जितनी चाहो जमीन ले लो और खेती करो।’ शायद यहां जमीन के बदले मनुष्यों का अनुपात बहुत कम है। फिर देखते ही देखते 400 परिवार यहां पंजाब के जालंधर से आ बसे थे। आज यहां वे हर पर्व वैसे ही मिलकर मनाते हैं जैसे भारत में।
ये लोग शादी-ब्याह के समय वैसे ही चौक पूरते हैं। वैसे ही हाथ में घुंघरू बंधा डंडा लिए हर द्वार पर खड़काते हुए सिर पर रख कर जागो निकाली जाती है। भारत के पर्व भी जमकर मनाते हैं। चाहे बैसाखी हो या लोहड़ी, दीवाली हो या नवरात्र, त्योहारों के अवसर पर वहां भारतीय परिधानों के प्रति लोगों का प्रेम भी देखते ही बनता है। इसका जबर्दस्त उदाहरण है सरी शहर। इसकी सड़कों के किनारे भारतीय कपड़ों से सजी तमाम दुकानें दिखती हैं।
वैंकूवर के अकाली सिख टेंपल (यहां गुरुद्वारा को टेंपल कहते हैं) में हर तीज-त्योहार मनाया जाता है। घनी आबादी वाले व्यावसायिक शहर टोरंटो में भगवान राम, शिव, गणेश एवं मां काली के कई मंदिर हैं। कैनेडा के ब्रैंप्टन, मिसिसागा, मारकहम, नॉर्थ यॉर्क, ओकविले, रिचमंडहिल, स्केरबरो आदि कई शहरों में कई हिंदू मंदिर हैं। इनमें सरी में ही स्थित जय दुर्गा देवस्थानम की अपनी अनूठी शान है। यहां मंदिरों में शनिवार, रविवार के दिन भारत से आए पुरोहित विधि-विधान से पूजा कराते हैं, व्याख्यान होते हैं, प्रचार होता है। लोग बच्चों के नामकरण, जन्मदिन, शादी-ब्याह की रस्में तथा अन्य संस्कार पूरी निष्ठा और विधि-विधान से कराते हैं। नवरात्रों में तो सारा वातावरण कृष्णमय से जाता है। गोपियों और कृष्ण की रासलीला का आनंद गरबे के नाच में इसे चार चांद लगा देता है। पंजाबियों की बल्ले बल्ले और गुजराती भाइयों की गरबा की गूंज ने विदेश को भी बहुत सुगमता से अपना घर बना लिया है।
नेपाल: भारतीय अध्यात्म का गढ़
हमारे पड़ोसी देश नेपाल में भारतीय आध्यात्मिकता एवं संस्कृति की जड़ें साफ दिखाई देती हैं। पूरे नेपाल में आप चाहे कहीं भी चले जाएं, हर जगह आपको ऐसा ही महसूस होगा कि जैसे भारत के ही किसी गांव या शहर में आप घूम रहे हों। बागमती नदी के समीप स्थित हिंदुओं का प्रसिद्ध पशुपतिनाथ मंदिर है। यहां के दुर्लभ रुद्राक्ष की पूरे विश्व में मान्यता है। यहां भगवान शिव की मूर्ति है, इस विश्वप्रसिद्ध मंदिर में साधुओं, हिन्दू धर्मावलंबियों के अलावा देश-विदेश के लाखों लोग दर्शनार्थ आते हैं। इस मंदिर के बाहर भगवान शिव की सवारी कहे जाने वाले नंदी विराजमान हैं। नेपाल में भारतीयों के विश्वास और श्रद्धा के अनेक केंद्र स्थित हैं।
नेपाल में स्थित हनुमानढोका वहां रहने वाले भारतीयों एवं अन्य नेपालियों की आस्था का केंद्र है। यहां प्रतिष्ठित हनुमान जी की मूर्ति देखने लायक है। भारत में मनाए जाने वाले सभी तीज-त्योहारों की झलक नेपाल में देखी जा सकती है।
इंडोनेशिया: कण-कण में है हिंदू संस्कृति
भारत के निकटवर्ती देशों में इंडोनेशिया एक ऐसा देश है, जिसका बाली द्वीप हिंदू संस्कृति की खुशबू से सराबोर है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन उड़ीसा के मछुआरा समुदाय की महिलाएँ केले की खोखली छाल पर दीया रखकर बंगाल की खाड़ी में उसे बाली जाने के लिए प्रवाह दे देती हैं। इस प्रथा को बाली जात्रा के नाम से जाना जाता है। सदियों से यह प्रथा चली आ रही है। 3000 किमी. की इस समुद्र यात्रा पर, जहां व्यवसायी भी समुद्री जहाज की यात्रा करते कतराते हैं, वहां प्रेम, आस्था एवं विश्वास के दीये सांस्कृतिक यात्रा का प्रतिनिधित्व करते हैं। वैसे इस प्रथा के बारे में बाली के लोगों को भी पहले जानकारी नहीं थी। उन्हें यह जानकारी 1979 में उड़ीसा के मुख्यमंत्री बीजू पटनायक ने अपनी बाली यात्रा के दौरान दी।
ऐतिहासिक द्वीप बाली की संस्कृति पूरे विश्व के पर्यटकों को आकर्षित करती है। बाली ने अपने आंचल में बहुत-सी सांस्कृतिक धरोहरों को समेटा हुआ है। भारत की हिंदू सभ्यता यहां पूरी तरह जीवंत है। बाली में हिंदुत्व की नींव छठीं-सातवीं शताब्दी में ऋषि मारकंडेय ने रखी थी। बालीवासी भारतीय विद्वान डॉ. सोमवीर बताते हैं कि ऋषि मारकंडेय यहां जावा से आए थे। उन्होंने बाली में शिव मंदिर की स्थापना की, जो वासुकी मंदिर के नाम से जाना गया। अब इसे बेसाकी कहा जाता है। आज भी इस शिवालय केआसपास सांप रहते हैं। ऋषि ने बाली द्वीप के चारों कोनों पर मंदिरों का निर्माण करवाया, जो देवताओं और असुरों के समुद्र मंथन की कथा को मूर्त करता है। बाली को उसके अमृत रूप की मान्यता प्राप्त है।
बाली में समुद्र के किनारे पहाड़ी पर स्थित टनाह लोट मंदिर आस्था का एक और केंद्र है। वैसे तो यह मंदिर शिव का है, पर इसमें कोई मूर्ति नहीं है। इस मंदिर में प्रवेश आम पर्यटक के लिए आसान नहीं है। इसमें जाने के लिए ऐसे कपड़े पहनने होते हैं, जिसमें कहीं सिलाई न हुई हो। इसलिए साधारण पर्यटक इसके पास स्थित एक रिजॉर्ट में रुक कर मंदिर की भव्यता देख लेते हैं।
बाली के मंदिरों में मूर्ति का न होना सबको आश्चर्यचकित करता है। वैसे बाली के हर गांव में तीन मंदिर होते हैं, जो क्रमश: ब्रह्मा, विष्णु और महेश को समर्पित हैं, लेकिन देखने में सभी एक तरह के ही होते हैं। इन मंदिरों की सालगिरह बड़े धूमधाम से मनाई जाती है। यहां धर्म प्रबंधन का तरीका एकदम अलग है। मंदिर का पुजारी गांव के निवासियों के लिए मंदिर में आने की तिथि निर्धारित करता है। वे केवल उसी दिन भगवान से प्रार्थना कर सकते हैं। बाली के मंदिरों में एक टाल होता है, जिसे कबंग कहते हैं। इसमें भी रोज स्थानीय भक्तिगीत गाए जाते हैं। विवाह व अन्य शुभ अवसरों पर यहां भी संस्कृत मंत्रों का उच्चारण किया जाता है। यहां इन प्रथाओं के बिना कोई शुभ कार्य नहीं होता।
पूरे बाली में हनुमान, राम तथा भीम की मूर्तियां देखने को मिलती हैं। इन प्रतिमाओं के निचले हिस्से पर सफेद-काले चेकदार कपड़े पहनाए जाते हैं, जो अच्छाई व बुराई के प्रतीक हैं। यहां राजमार्गो पर महाभारतकालीन घटनाओं की प्रतिमाएं जगह-जगह देखने को मिलती हैं।
बाली में एक परंपरा बड़ी अनोखी है। यहां किसी व्यक्ति की मृत्यु पर खुशी मनाई जाती है तथा शव को तब तक नहीं जलाया जाता, जब तक कि पुरोहित उचित तिथि न बताए। तिथि विशेष पर दाह-संस्कार करने से मोक्ष की प्राप्ति होगी, ऐसी मान्यता है। यहां दाह-संस्कार को सबसे महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है।
रामायण और महाभारत का प्रभाव पूरे दक्षिण पश्चिम एशिया और बाली में है। बाली के लोगों में महाभारत के युद्धस्थल कुरुक्षेत्र को देखने की इच्छा बलवती है। वहां के लोग गंगा में पवित्र स्नान तथा शिव मंदिरों को देखने को अपनी पहली प्राथमिकता में रखते हैं। उन्हें यहां अपने देश जैसा माहौल लगता है।
गुयाना: खूब खाते हैं पेड़े
दक्षिणी अमेरिका के उत्तर-पूर्व में स्थित गुयाना भारतीय मूल्यों एवं संस्कृति के नाते विख्यात है। सामान्यत: इसे ब्रिटिश गुयाना के नाम से अस्तित्व में है, जिसकी कुल आबादी के 33 प्रतिशत नागरिक भारतीय मूल के हैं। भारतीय कैलेंडर के अनुसार पड़ने वाले सभी तीज-त्योहारों को गुयाना में पूरे विधि-विधान से मनाया जाता है। दीवाली पर गुयाना में भी राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया गया है। दीवाली एवं अन्य अवसरों पर भारतीय मूल के लोग नए वस्त्र पहनते हैं, पूजा-प्रार्थना करते हैं तथा दूध और खोया से बनी मिठाइयों का परस्पर आदान-प्रदान किया जाता है। भारत के प्रमुख महानगरों में विलुप्त होने के कगार पर पहुंच रहे पेड़े और खीर गुयाना में आज भी प्राथमिकता के साथ खाए जाते हैं।
दीवाली को गुयाना में स्वस्थ आत्मा-स्वस्थ शरीर का प्रतीक माना जाता है। इस अवसर पर गणेश-लक्ष्मी की विशेष पूजा की जाती है। सभी भारतवंशी इन कार्यक्रमों में बढ़चढ़ कर भाग लेते हैं। वहां के विवाह एवं अन्य संस्कार भी भारतीय पद्धति एवं परंपरा के अनुपूरक हैं।
मलेशिया: जहां सशक्त माध्यम है रामकथा
भारतीय लोग दुनिया में चाहे कहीं भी रहें, उनके जीवन में आस्था की डोर हमेशा रामकथा से बंधी रहती है। इसका एक सशक्त उदाहरण मलेशिया है। वैसे तो ऐसे कई देश हैं जहां के कवियों ने अपने देश में अपने ढंग से रामकथा रची और उसमें स्थानीय रंगों का सम्मिश्रण कर उन्हें और भी लोकप्रिय बनाया। भारतीय रामायण के चरित्रों में इतना अधिक आकर्षण है कि मलेशिया के लोकजीवन में नगरों, व्यक्तियों, नदियों तथा अन्य स्थानों के नाम रामायण से लिए गए लगते हैं। मलेशिया के जनजीवन में रामायण मनोरंजन व प्रेरणा का सशक्त माध्यम बनकर उभरी है। यहां चमड़े की पुतलियों द्वारा रात को रामयण के प्रसंगों का मंचन किया जाता है, जिनमें भारतीय मूल के लोग पूरी साज-सज्जा एवं तैयारी के साथ सपरिवार शामिल होते हैं। भारतीय मूल के लोगों के अतिरिक्त मूल मलय लोगों में भी भारतीय संस्कृति के प्रति गहरा रुझान है।
मलेशिया में रामायण को ‘हेकायत सेरीरामा’ के नाम से जाना जाता है। उसमें भारतीयता का पुट अपने वर्चस्व के साथ विराजमान है। मलेशिया अपनी विविधता के लिए पूरे विश्व में विख्यात है। मलेशिया में हिंदू समुदाय की आबादी 8 प्रतिशत है। यहां रहने वाले भारतीय मूल के लोगों में सबसे ज्यादा संख्या दक्षिण भारतीयों की है। शायद यही वजह है कि यहां मनाए जाने वाले भारतीय तीज-त्योहारों पर दक्षिण के रंग-ढंग का साफ असर दिखाई देता है। हिंदू देवताओं में भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय के मंदिर यहां सर्वाधिक प्रतिष्ठित हैं। दीवाली महोत्सव की तैयारियां महीनों पूर्व शुरू हो जाती हैं। दीवाली पर परंपरागत तौर से घरों के बाहर रंगोली बनाने का रिवाज है। तिल के तेल तथा शुद्ध घी के दीयों द्वारा लक्ष्मी का आवाहन किया जाता है। मलेशिया में दीवाली के दिन राष्ट्रीय अवकाश रखा जाता है तथा बड़े बुजुर्ग इस दिन घर-घर जाकर युवाओं को आशीर्वाद और उपहार देते हैं। भारत के अन्य त्यौहारों एवं परंपराओं के प्रति भी मलेशिया के भारतीय जनसमुदाय में विशेष आस्था एवं विश्वास है।