आर्य-द्रविड़ सिध्दान्त को प्रमाणों के आधार पर नकारता आईआईटी खड़गपुर का कैलेंडर, वामपंथियों को लगी मिर्ची
‘पश्चिमी आक्रांता चाहते थे वैदिक युग को नीचा दिखाना
ऑप इंडिया की पोस्ट:
लेख – अनुपम कुमार सिंह
IIT खड़गपुर ने आर्य-द्रविड़ थ्योरी की पोल खोली, जारी किया कैलेंडर….
वामपंथी इतिहासकारों ने भारतीयों को, खासकर हिन्दुओं को नीचा दिखाने के लिए एक झूठी थ्योरी गढ़ी। उन्हें बाहरी होने का एहसास कराने के लिए कहा गया कि आर्य बाहर से आए थे और द्रविड़ यहाँ के मूल निवासी थे।
इस्लामी आक्रांताओं का बचाव करने के लिए हजारों पन्नों की हजारों पुस्तकें लिखने वाले इन इतिहासकारों को अब विज्ञान भी गलत ठहराता है, जिन्होंने हिन्दुओं में खुद के प्रति ही हेय भाव भरने के लिए ईरान से आर्यों के आने और यहाँ के नगरों का विध्वंस करने की कहानी गढ़ी।
अब IIT खड़गपुर ने अपना 2022 का जो कैलेंडर जारी किया है, उसमें आर्य-द्रविड़ थ्योरी के सारे सबूतों को संकलित किया गया है। इसमें बताया गया है कि कैसे आर्यन इन्वेजन थ्योरी एक मिथ है, ये झूठ है। इसमें तस्वीरों के जरिए हर महीने नई-नई जानकारी देकर भारत के इतिहास की बात की गई है।
वैज्ञानिक और ऐतिहासिक सबूतों के साथ-साथ हिन्दू साधु-संतों व दार्शनिकों के उद्धरण भी पेश किए गए हैं।
आइए, हम आपको बताते हैं कि इस कैलेंडर में क्या है। वामपंथी इस कैलेंडर से चिढ़े हुए हैं।
आर्य-द्रविड़ थ्योरी (Aryan Invasion Theory Myth) का खंडन करता IIT खड़गपुर का कैलेंडर
जनवरी 2022 के कैलेंडर में कैलाश पर्वत का चित्र है और इसे भारत का एक पवित्र जगह बताया गया है। बताया गया है कि कैलाश पर्वत का जो ग्लेशियर है, वो ऐसी महत्वपूर्ण नदियों का स्रोत रहा है जिसके किनारे भारत की कई सभ्यताएँ फली-फूलीं।
7000 ईसा पूर्व से पहले, जिसे ‘Pre Harrapan’ भी कहते हैं, सिंधु घाटी सभ्यता वाली सिंधु नदी का स्रोत भी यही है।
1000 ईसा पूर्व में हड़प्पा के बाद की सभ्यता भी यहीं पनपी।
वहीं पूर्व में भारत की सबसे लम्बी ब्रह्मपुत्र नदी का स्रोत भी इसी कैलाश पर्वत का ग्लेशियर रहा।
ऋग्वेद में सिंधु की कई सहायक नदियों का भी जिक्र है, जिनके स्रोत मध्य-पूर्वी हिमालय में स्थित शिवालिक की पहाड़ियाँ हैं। पूर्वी हिमालय से लेकर पश्चिमी नदी घाटी तक ये नदियाँ हैं – व्यास, झेलम, चेनाब, रावी और सतलुज। पूर्वी साँपो नदी (Sanpo River) ही वो जगह है, जहाँ एक खास प्रकार के जंगली घोड़े (Proto-Paleolithic Riwoche Horses) के पाए जाने की बात कही जाती है। इसे ‘आर्य आक्रमण’ काल के पहले पाए जाने की बात कही जाती है।
सिंधु से और पूर्व की तरफ गंगा-गोमती-घाघरा सभ्यता पनपी। ऋग्वेद के आठवें मंडल में गोमती नदी का भी जिक्र है।
ऋग्वेद में 1.8.8 संख्या श्लोक को देखिए – ‘ए॒वा ह्य॑स्य सू॒नृता॑ विर॒प्शी गोम॑ती म॒ही। प॒क्वा शाखा॒ न दा॒शुषे॑॥’, जिसमें गोमती नदी का जिक्र है।
ऋषियों के निवास स्थान के रूप में लोकप्रिय रहा जंगल ‘नैमिषारण्य’ इसी नदी के किनारे बसा हुआ था। उपनिषदों में इसका जिक्र है।
ऐतिहासिक लक्ष्मणपुर (उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ) और इसके आसपास ये स्थित रहा था।
IIT खड़गपुर का अध्ययन इस बात की ओर इशारा करता है कि कैसे अंग्रेजी इतिहासकारों ने भारतीय प्राचीन सभ्यता के पूर्वी और पश्चिमी छोर को नज़रअंदाज़ किया। उन्होंने 2000 ईसा पूर्व से पहले की वैदिक सभ्यता को नीचा दिखाने के लिए उन्होंने यूरेशिया के मैदानों से आर्यों के आने की बात कही। इसका परिणाम ये हुआ कि सिंधु घाटी सभ्यता के पुरातत्व अध्ययन में गड़बड़ी हुई।
उन्होंने ये कह दिया कि आर्य ने बाहर से आकर द्रविड़ों को मारा और यहाँ कब्ज़ा कर लिया।
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इसके बाद आ जाते हैं फरवरी महीने पर।
फरवरी 2022 के कैलेंडर में क्या जानकारी दी गई है, अब इसे समझिए। इसमें पवित्र स्वस्तिक चिह्न के सहारे समय के चक्र और पुनर्जन्म को समझाया गया है।
स्वस्तिक का पैटर्न नॉन-लीनियर है और साइक्लिक है। आगे का भविष्य की तरफ इशारा करता है और पीछे का भूतकाल की तरफ का। ऋग्वेद के 7.1.20 के “नू मे॒ ब्रह्मा॑ण्यग्न॒ उच्छ॑शाधि॒ त्वं दे॑व म॒घव॑द्भ्यः सुषूदः। रा॒तौ स्या॑मो॒भया॑स॒ आ ते॑ यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥” श्लोक में स्वस्तिक का जिक्र आता है।
पूरा वैदिक विज्ञान के मूल में ही है समय, अंतरिक्ष और कारणों का पता करना। कार्य सम्बन्धी सिद्धांत परस्पर निर्भरता के सिद्धांत पर आधारित है, जो कि किसी भी कार्य के ‘फ्लो और वैल्यू’ के एक्शन-रिएक्शन पर आधारित होता है। इसका परिणाम पुनर्जन्म के रूप में निकलता है, जिसे कॉस्मिक स्तर पर एक शरीर से आत्मा का निकल कर दूसरे शरीर में जाना कहते हैं (Transmigration & Metempsychosis), जिसे ‘जन्मांतरवाद’ नाम दिया गया है।
इसके लिए ऋग्वेद अग्नि के जीवन सिद्धांत का उदाहरण भी देता है। भारतीय आध्यात्मिकता ही गुरुवाद और अवतारवाद पर आधारित है। वहीं पश्चिमी जगह के लिए भारतीय आध्यात्मिक का रहस्य ज्ञान एक अनजान चीज है, जिसमें वो कभी उतरे ही नहीं।
मध्य-पूर्व दुनिया के साहित्य में भी ये चीज गायब है। इसीलिए, आर्यों के आक्रमण वाली थ्योरी को भारतीय कॉस्मोलॉजी नकारती है।
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मार्च महीने के कैलेंडर में स्पेस-टाइम और कार्य के सिद्धांत को समझाया गया है।
सबसे बड़ी बात तो ये है कि सिंधु घाटी सभ्यता के जो सील मिले हैं, वो आर्य ऋषियों द्वारा प्रतिपादित किए गए ‘योग-क्षेम’ के सिद्धांत से मिलता-जुलता है। ऋग्वेद (10.167.1) में ‘योगक्षेम विषय कर्म’ और फिर 7.36 में ‘योगेभी कर्मभिः’ का जिक्र है। 5.81.1 में योग को और अच्छे से समझाया गया है। इसमें बताया गया है कि कैसे योगी अपने मन एवं बुद्धि पर नियंत्रण रखते हैं। ‘होने और हो रहे (धार्यते आईटीआई धर्मः)’ के जरिए कॉस्मोलॉजी की वास्तविकता का भान कराया गया है।
चिंतन, ध्यान और सारी चीजों से ऊपर उठ जाने को योग समाधि नाम दिया गया है। इसे प्राप्त करने वाले ही योगी है। ये ‘कृष्ण (अंधकार)’ है। योग को सभी वैदिक कर्मकांड का मुख्य लक्ष्य माना गया है। इसी तरह ‘शुक्ल (उजाला)’ का भी सिद्धांत है। क्षेम या तंत्र उसे कहा गया है, जहाँ योगी को परम ज्ञान मिल जाता है और वो महायोगी हो जाता है। सप्तर्षि इसे प्राप्त कर चुके हैं। यूरोप और यूरेशिया के आक्रांताओं को ये चीजें पता नहीं थीं। आर्य आक्रमण थ्योरी यहाँ भी गलत साबित होती है।
इसी तरह ‘नॉन-लीनियर फ्लो’ और ‘चेंज’ का जो वैदिक सिद्धांत है, वो भी सिंधु घाटी सभ्यता से मिलता है। ऋग्वेद और पूरा का पूरा यजुर्वेद ही ‘क्रिया (Flow)’ को एक साइक्लिक चेंज के रूप में परिभाषित करता है। व्यक्तिगत स्तर पर ये विकास की प्रक्रिया के रूप में बताए गए हैं और कॉस्मिक स्तर पर ये प्रक्रियाएँ होती हैं। मौसम के चक्र को भी इससे जोड़ा गया है। चीन के दर्शन में भी ये सिद्धांत है। भारतीय ऋषियों ने चतुष्कोणीय बदलावों की व्यवस्था दी।
उन्होंने ऋतु चक्र को 6 भागों में बाँटा।
उन्होंने बाकी 4 ऋतुओं के अलावा शरद ऋतु और मानसून को भी परिभाषित किया। ये मौसम और संस्कृति का भारतीय इकोसिस्टम है। वेदों में जीवन के सिद्धांत को ‘एक श्रृंग’ से भी जोड़ा गया है, जो बौद्ध धर्म में भी मिलता है और सिंधु घाटी से मिले एक सींग वाले जानवर की सील भी इसी ओर इशारा करता है। अगर कोई आर्य बाहर से आया, तो उसे इन चीजों का भान नहीं था। ये बताता है कि आर्य-द्रविड़ वाली थ्योरी गलत थी।
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मई 2020 के IIT खड़गपुर के कैलेंडर में स्वामी विवेकानंद का एक उद्धरण है, इसी विषय को लेकर। उन्होंने कहा था कि विदेशी विद्वान ये कहते हैं कि बाहरी भूमि से आर्य यहाँ आए और यहाँ के मूलनिवासियों की जमीनें छीन लीं, उन्हें अपने अधीन कर के भारत में बस गए – ये बेतुका है, मूर्खता भरी बातें हैं। उन्होंने इस पर दुःख जताया था कि हमारे छात्रों को इतना बड़ा झूठ फैलाया जा रहा है और भारतीय विद्वान इसकी काट नहीं खोज रहे। उन्होंने पूछा था कि वेद के किस सूक्त में ऐसा लिखा है कि आर्य बाहर से आए?
उन्होंने पूछा कि ये कहाँ लिखा है कि आर्यों ने भारत में आकर यहाँ के नगरों को तबाह किया? उन्होंने सवाल किया था कि इस तरह की बेतुकी बातें करने वालों को इससे क्या फायदा होता है? उन्होंने कहा था कि रामायण ठीक से पढ़ने वाला इस तरह का झूठ नहीं फैला सकता। उन्होंने आरोप लगाया था कि भारत में बने रहने के लिए यूरोपीय ताकतें ऐसा कर रही हैं। उन्होंने बताया था कि आर्यों का हमेशा लक्ष्य रहा है कि सभी को खुद के स्तर तक लेकर आएँ, खुद से भी ऊपर उठाएँ।
उन्होंने कहा था कि जहाँ यूरोप में मजबूर हमेशा विजेता बन कर रहते हैं और कमजोर हमेशा दुर्बल बन कर, बल्कि भारत भूमि में सारे नियम-कानून पिछड़ों के लिए बने हैं।
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मई के कैलेंडर में ‘द मैट्रिक्स’ के बारे में बात करते हुए इसे कॉस्मिक क्रियाकलापों का गर्भाशय बताया गया है। यही बात सिंधु घाटी की कलाकृतियों में भी प्रतिलक्षित होती है। ऋग्वेद का सूक्त 1.164.46 विविधता में एकता के सिद्धांत को आगे बढ़ाता है, ‘यम’ के रूप में मृत्यु के सिद्धांत का भी प्रतिपादन किया गया।
देवी सूक्त (10.145) और रात्रि सूक्तम (10.127) कॉस्मो के निर्माण और विनाश को लेकर शुक्ल-कृष्ण के सिद्धांत को आगे बढ़ाता है। हमेशा से आर्य ऋषियों ने दिव्य शक्ति को बिना शर्त प्रेम के रूप में देखा। वेदों में ‘आदित्य’ और ‘इला, सरस्वती और भारती’ के रूप में प्रतिबिम्बों का विवरण भी उस समय दिया गया था। आचार्य अवनीन्द्रनाथ ठाकुर का ‘भारत माता’ का सिद्धांत इसी प्राचीन क्रम को आगे बढ़ाता है। जबकि पश्चिम में देशों को पितृसत्तात्मक रूप से देखा जाता रहा है, इसीलिए बाहर से कोई आर्य आया रहता तो उसकी सोच भी यही रहती।
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जून महीने के कैलेंडर में वैदिक साहित्य में मिले एक सींग वाले घोड़े और हड़प्पा में एक सींग वाले जानवर की तुलना की गई है। रामायण में ऋष्यश्रृंगा की चर्चा है, जिनका जन्म हिरन के सींग से हुआ था। सिंधु घाटी सभ्यता में भी एक सींग वाले जानवर की चर्चा है, जिसे शक्ति, और उसके सींग को ईश्वर के तलवार का प्रतीक माना गया है। यूनिकॉर्न का सिद्धांत ईसाई और चीन में भी था। ये भारत से बाकी जगह फैला था, बाहर से यहाँ नहीं आया।
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जुलाई महीने के कैलेंडर में बताया गया है कि कैसे पाश्चात्य अध्ययन ने शिव को गैर-आर्य देवता बताने की कोशिश की, जबकि वेदों में उनका जिक्र है।
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अगस्त महीने के कैलेंडर में ‘Oscillation’ के सिद्धांत के प्रतीक अश्विनीयों की चर्चा की गई है। उनके बारे में लिखा था कि वो मधु देते हैं, जिससे मृत्यु पास भी नहीं फटकती। एशिया पैसिफिक और प्राचीन ग्रीस में भी इसी तरह दो देवताओं के साथ रह कर विचरण करने वाला सिद्धांत सामने आया। आधुनिक विज्ञान भी इस ‘Duality’ की बात करता है। मनुष्य के दिमाग के भी ‘Analytical’ और ‘Intuitive’ वाले दो हिस्से हैं।
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सितम्बर महीने के कैलेंडर में बताया गया है कि कैसे महर्षि अरविन्द ने भी सिद्धांत को नकार दिया है।
असल में जो पुर्तगाली और ब्रिटिश आक्रांता थे, वो भारतीय और यूरोपीय भाषा में कई समान शब्दों को लेकर अचंभित थे। इसीलिए, उन्होंने एक इंडो-यूरोपियन लैंग्वेज सिस्टम के विकास का निर्णय लिया और बुद्ध से पहले आर्य के आक्रमण की सिद्धांत रखी।
उन्होंने लिखा कि भारत पर दूसरी बार 17वीं शताब्दी में उससे एक ‘ऊँची शक्ति’ ने आक्रमण किया। भारतीय, ग्रीक और लैटिन भाषाओं में समानता को लेकर अंग्रेजी विद्वान थॉमस स्टीफेंस ने भी अपने भाई को गोवा से एक पत्र सन् 1583 में लिखा था।
अक्टूबर महीने के कैलेंडर में बताया गया है कि कैसे पाश्चात्य विद्वान ये साबित करने को बेताब थे कि संस्कृति, और ज्ञान-विज्ञान का फ्लो पश्चिम से पूर्व की तरफ हुआ।
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नवंबर के कैलेंडर में मैक्स मुलर, आर्थर दे गोबिनायउ और हॉस्टन स्टीवर्ट चैंबरलेन नामक तीन अंग्रेजी स्कॉलरों के विवरण हैं, जिन्होंने आर्य-द्रविड़ थ्योरी को आगे बढ़ाया। आर्य शब्द को यूरोप ने जैसे परिभाषित किया, वही आगे चल कर कत्लेआम का कारण बना और हिटलर ने
इसी परिभाषा के आधार पर खून बहाया।।
✍🏻साभार ऑप इंडिया