२४ नवम्बर से संसद का शीतकालीन सत्र शुरू हो रहा है जो २३ दिसंबर को समाप्त होगा| यह सत्र सरकार के लिए कई मायनों में ख़ास होगा| समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (यू), जनता दल (एस) जैसे जनता परिवार के पुराने साथी जहां एक छत के तले मोदी विरोध का झंडा उठाएंगे वहीं धर्मनिरपेक्षता के बहाने कांग्रेस, गैर भाजपाई और वाम दलों को साधने का प्रयास करेगी| शीत सत्र में बहस का सबसे बड़ा मुद्दा काले धन का हो सकता है| चूंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनाव पूर्व अपनी जनसभाओं में काले धन के ज़रिए कांग्रेस को बैकफुट पर ला चुके थे, लिहाजा अब कांग्रेस इस मुद्दे को भुनाते हुए दूसरे दलों से सहयोग की अभिलाषी होगी| संख्याबल के हिसाब तो विपक्ष सत्तापक्ष के समक्ष बौना ही है किन्तु जहां बात उसकी ताकत की होगी तो वह निश्चित रूप से सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश करेगा| आर्थिक महत्व को रेखांकित किया जाए तो इस सत्र में कई विधेयकों से संबंधित घटनाक्रमों पर निवेशकों की निगाह रहेगी| इस सत्र में बीमा कानून (संशोधन) विधेयक, भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्वास व पुनर्स्थापना जैसे विधेयकों को पारित करने की कोशिश की जा सकती है| सरकार वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) संविधान संशोधन विधेयक पर भी कदम आगे बढ़ा सकती है| मोदी सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में महिला आरक्षण विधेयक पेश करने को लेकर भी आश्वस्त दिख रही है| अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री नजमा हेपतुल्ला और वेंकैया नायडू ने भी इस बाबत संकेत दिए हैं| हालांकि संप्रग सरकार के समय ही महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा से पारित हो चुका है| गौरतलब है कि भाजपा और विपक्षी कांग्रेस ने विधेयक को अपना समर्थन दिया है, लेकिन कुछ विपक्षी दल इसका विरोध कर रहे हैं| सरकार को उन्हें साधना टेढ़ी खीर साबित हो सकता है| इसके अलावा बर्धमान में हुए बम धमाके में तृणमूल कांग्रेस की संदिग्ध भूमिका और बांग्लादेश पोषित आतंकवाद बहस का मुद्दा बन सकता है| भाजपा के लिए फिलहाल बंगाल और उत्तरप्रदेश जैसे दो बड़े राज्य अहम हैं जहां क्षेत्रीय पार्टियों की सत्ता ने इन प्रदेशों का सर्वाधिक नुकसान किया है| ऐसे में ममता बनर्जी और मुलायम सिंह यादव की पार्टी के लिए यह सत्र अग्निपरीक्षा से कम नहीं होगा|
देखा जाए तो बीते कुछ वर्षों से (संप्रग कार्यकाल) संसद के सामान्य कामकाज में हंगामे के अतिरिक्त कुछ नहीं हुआ है| कमजोर प्रधानमंत्री से लेकर भटके हुए विपक्ष तक ने विभिन्न सत्रों की कार्रवाई जनता के हितों के पोषण से इतर खुद की राजनीतिक चमक को बरकरार रखने में जाया की| वैसे भी सदन के हंगामे को लेकर सभी पार्टियां निशाने पर रहती हैं किन्तु इस बार परिस्थितियां भिन्न हैं| देश में मजबूत सरकार के साथ ही दृढ़ इच्छाशक्ति वाला प्रधानसेवक है जो जनता के हितों को सर्वोपरि मानता है| हालांकि सदन के क्षरण को रोकने की जिम्मेदारी केवल एक पार्टी की जवाबदेही नहीं है, इसे तो सामूहिक सहयोगात्मक रवैये से ही दूर किया जा सकता है| संसदीय लोकतंत्र के क्षरण दौर में सभी दलों की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि इसकी गरिमा बरकरार रखी जाए| अतः यह उम्मीद करना ही होगी कि सोमवार से शुरू हो रहे संसद के शीतकालीन सत्र में सभी राजनीतिक दल अपनी जिम्मेेदारी को समझते हुए इसके जनहिताय बनाने की कोशिश करेंगे| हाल ही में सरकार के मंत्रिमंडलीय विस्तार में जिन सांसदों अथवा नेताओं को मौका मिला है, वे भी इस सत्र में खुद को साबित करना चाहेंगे| सरकार की ओर से अभी तक ऐसी किसी भी रणनीति का खुलासा नहीं हुआ है जिससे यह पता चले कि वह संसद के शीतकालीन सत्र को लेकर क्या भूमिका बना रही है? किन्तु सत्तापक्ष से जुड़े सभी संसद सदस्यों में खुद को इस सत्र हेतु तैयार कर लिया है| प्रधानमंत्री मोदी भी स्वदेश लौट चुके हैं और उनका नजरिया भी देर-सवेर स्पष्ट हो जाएगा| कुल मिलाकर यह शीत सत्र भरोसा जगाता है कि इस बार जनता के हित का कार्य होगा|