पुस्तक समीक्षा : पतंजलि योग-दर्शन ( काव्यानुवाद व्याख्या सहित)
भारत का ज्ञान – विज्ञान अनुपमेय है। ऋषि परंपरा में पला-बढ़ा भारत विश्वगुरु के अपने महत्वपूर्ण और गौरवमय पद पर इसीलिए आसीन हुआ कि उसने समस्त विश्व का ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में सफलता पूर्वक मार्गदर्शन किया। हमारे ऋषियों ने अपने अनुभवजन्य ज्ञान के आधार पर अनेकों ऐसे ग्रंथ लिखे जो कालजयी होकर हमारा आज तक मार्गदर्शन कर रहे हैं उन्हीं में से एक महर्षि पतंजलि का ‘योग-दर्शन’ है।
देश – काल-परिस्थिति के अनुसार भारत का अपने विश्व गुरु के पद से स्खलन हुआ। परंतु हमारे ऋषि प्रदत्त अनेकों ग्रंथ अपने मूल स्वरूप में यथावत बने रहे। कइयों में लोगों ने मिलावट भी की। जिससे उनका मूल स्वरूप विकृत हुआ। यद्यपि पतंजलि जी का योग-दर्शन इसका अपवाद बना रहा। भारत के पराभव के काल में भारत का सार्वत्रिक पतन हुआ। यहां तक कि भाषा के क्षेत्र में भी लोगों ने अनेकों बोलियों को विकसित कर उन्हें ही भाषा मान लिया। जिससे संस्कृत के प्रति उदासीनता छाने लगी। सब भाषाओं की जननी संस्कृत भाषा नेपथ्य में चली गई।
ऐसी स्थिति में संस्कृति प्रेमी लोगों ने संस्कृति की रक्षा के संकल्प के साथ उन ऋषियों के ग्रंथों का समय-समय पर लोक प्रचलित भाषा में सरल शब्दों में अनुवाद किया। जिससे कि जनमानस अपने ऋषि पूर्वजों की अभिनंदनीय विरासत से जुड़ा रहे। ऐसे अनुवादकों का यह प्रयास भारत की वैदिक संस्कृति की पवित्र गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए किया गया भागीरथ प्रयास रहा है।
डॉ मृदुल कीर्ति भारतीय मनीषियों की उस परंपरा का प्रतिनिधित्व करती हैं जिन्होंने समय-समय पर भारत की वैश्विक और पवित्र वैदिक संस्कृति के ग्रंथों का लोक प्रचलित भाषा में काव्यानुवाद करके मां भारती की अनुपम सेवा की है।
महर्षि पतंजलि के योग-दर्शन का व्याख्या सहित काव्यानुवाद करके भी उन्होंने ऋषि परंपरा को हम सबके समक्ष सरल भाषा में लाकर प्रस्तुत कर दिया है।
‘पतंजलि योग-दर्शन’ (काव्यानुवाद व्याख्या सहित) डॉ मृदुल कीर्ति के परिश्रम और पुरुषार्थ को प्रस्तुत और प्रकट करने वाली एक ऐसी ही पुस्तक है। भारत देश से दूर अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में रहकर भी उन्होंने अपनी पवित्र भूमि के साथ आत्मिक लगाव बनाए रखा है। जिससे पता चलता है कि वह अपने देश और अपने देश की माटी के साथ आत्मीय भाव से जुड़ी हुई हैं। इतना ही नहीं, मां भारती के पवित्र संस्कारों को उकेरने का कार्य भी वह सफलतापूर्वक करती ही हैं। जिससे भारत की वैश्विक संस्कृति का प्रचार-प्रसार हो और भारत अपनी आभा को पहचान कर फिर विश्वगुरु के महत्वपूर्ण दायित्व का निर्वाह करे।
भारत के प्रति उनके इस प्रकार के आत्मिक और गहरे लगाव से उनकी देश-भक्ति, संस्कृति-भक्ति और धर्म-भक्ति की त्रिवेणी प्रकट होती है। त्रिवेणी के संगम में स्नान कर भक्ति से सराबोर होकर वह भारत की ज्ञान, कर्म और उपासना की त्रयी-विद्या के अमृत को संसार के पाप-ताप-संताप से झुलसते लोगों के ऊपर डालने का अमृतमयी कार्य कर रही हैं। इसके लिए उनकी जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम है।
‘पतंजलि योग-दर्शन’ के उनके काव्यानुवाद का मैंने आद्योपांत रसास्वादन किया। एक-एक पंक्ति अमृत की बूंद की भांति तृप्त-संतप्त करती चली गई। आत्मिक आनंद में वृद्धि होती गई और उनका वैदुष्य, उनकी चिंतन शैली और भारत-भक्ति हर पंक्ति के साथ प्रभावित करती चली गई।
सामान्यतया देखा जाता है कि लोग हिंदी में लिखते हुए भी हिंदी साहित्य की सेवा नहीं कर पाते। क्योंकि उनकी भाषा में उर्दू के शब्दों की भरमार हो जाती है। इस पुस्तक में हिंदी साहित्य के बहुत ही सुंदर और साहित्यिक शब्दों को समाविष्ट किया गया है। जिससे भाषा की पवित्रता के साथ डॉ मृदुल कीर्ति न्याय करने में सफल रही हैं। हिंदी के प्रति उनका समर्पण देखते ही बनता है।
विदुषी लेखिका ने पतंजलि महाराज के मूल सूक्त का पहले काव्यानुवाद किया है, फिर भावार्थ किया है और उसके पश्चात उसका अंग्रेजी में भी अनुवाद किया है। अनेकों सूक्तों का ‘रामचरितमानस’ की भाषा में काव्यानुवाद किया है जो देखते ही बनता है।जैसे सूक्त 30,अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा:। का काव्यानुवाद करते हुए वह लिखती हैं :-
सत्य अहिंसा अरु अस्तेया,
ब्रह्मचर्य अपरिग्रह श्रेया।
विषय आंतरिक यम के पांचों,
यह आरंभ योग विधि सांचों।।
सरस्वती की विशेष अनुकंपा डॉक्टर मृदुल कीर्ति पर है जिससे उनकी विशिष्ट प्रतिभा का बोध होता है। बहुत ही अहंकारशून्य भाव से विनम्रता के साथ वह अपनी इस प्रतिभा को भी परमपिता परमेश्वर की कृपा और चाह का विस्तार ही मानती हैं। वे लिखती हैं :-
कौन देता लेखनी कर में थमा ?
कौन फिर जाता हृदय तल में समा ?
कौन कर देता है उन्मन चित्त को संसार से?
कौन तज नि:सारता मुझको मिलाता सार से?
कौन भूमा तक मेरे मन मूल को है ले चला?
कौन गहकर बाँह जग से तोड़ता है श्रृंखला ?
कुल मिलाकर डॉ मृदुल कीर्ति की यह कृति जहां उनकी कीर्ति को स्थाई बनाती है वहीं भारत के ऋषियों की कीर्ति को भी घर-घर में फैलाने में सहायक सिद्ध होगी, ऐसा मेरा विश्वास है।
इस पुस्तक के प्रकाशक प्रभात प्रकाशन , 4/19 आसफ अली रोड, नई दिल्ली 110002 हैं। पुस्तक कुल 215 पृष्ठों में तैयार हुई है। पुस्तक का मूल्य ₹400 है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत