रानी पद्मिनी और उनकी हजारों वीरांगना सहेलियों का बलिदान
गोरा-बादल और रानी पद्मिनी हमारे नायक
मेवाड़ की भूमि का कण-कण गोरा बादल और रानी पद्मिनी की वीरता का गुणगान आज लगभग सात सौ वर्ष पश्चात भी कर रहा है। वास्तव में इतिहास के नायक वही लोग हुआ करते हैं जिनके बलिदानों को और महान कार्यों को आने वाली पीढिय़ां स्वभावत: स्मरण रखें और बिना किसी दबाब के अपने नायक को अपनी श्रद्घांजलि अर्पित करने के अभ्यासी हों। हमारे प्रचलित इतिहास ने चाहे जितना ही अलाउद्दीन खिलजी को एक ‘नायक’ सिद्घ करने का प्रयास क्यों न किया हो, परंतु वह स्थानीय लोगों के लिए आज भी सम्मान का पात्र नही है, लोग आज भी अपने ‘नायकों’ को ही नमन करते हैं।
एक रोमांचकारी चित्रण
गोरा-बादल के युद्घ का एक रोमांचकारी और हृदयस्पर्शी चित्रण बी.एस. शेखावत ने करते हुए लिखा है-”यों तो सभी राजपूत दिल खोलकर युद्घ में लड़ रहे थे, परंतु गोरा की बात ही निराली थी। भूखे सिंह की भांति गर्जना करता हुआ जिधर भी नंगी तलवार लेकर वह घुसता वहीं त्राहि-त्राहि मच जाती थी, यहां तक कि उसके रौद्ररूप को देखकर यवन सैनिकों को हाथों में कंपन के कारण तलवारें नीचे गिर जातीं। वे सिंह के समक्ष बकरे की स्थिति में आ गये, वह वीरता का अवतार था। धीरे-धीरे राजपूत वीरगति को प्राप्त होते गये। लहुलुहान गोरा का सिर चकरा गया, और वह गश खाकर भूमि पर गिर गया। अपनी जन्मभूमि को याद करता हुआ हमेशा के लिए चिरनिद्रा में सो गया। धन्य है उसकी वीरता, स्वामी भक्ति और कत्र्तव्यपरायणता। मेवाड़ का एक बहादुर शेर रक्त रंजित भूमि में लेट गया। मेवाड़ के अनेक बहादुर नक्षत्रों में से एक दैदीव्यमान नक्षत्र अस्त हो गया।”
गोरा और गीता का ज्ञान
गोरा जैसे आत्मबलिदानियों के लिए गीता (32) का ये उपदेश युद्घभूमि में सदा ही मार्गदर्शक रहा है कि ”हे पार्थ! ये युद्घ एक स्वर्गद्वार है, जो तेरे लिए अपने आप खुल गया है, क्योंकि तुम भाग्यवान हो।”
इससे अगले श्लोक में कहा गया है-”यदि तुम यह धर्म युद्घ नही लड़ोगे तो स्वधर्म और कीर्ति खोकर पाप के भागीदार बनोगे (द्वितीय-अध्याय) इससे पूर्व श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं-अपने धर्म को देखो (दुष्ट आततायी शत्रु से प्रजा की रक्षा करना) भय करना कोई योग्यता नही है, धर्मयुक्त युद्घ से बढक़र दूसरा कोई कल्याणकारक कत्र्तव्य क्षत्रिय के लिए नही है। (31 द्वितीय अध्याय ) श्रीकृष्ण (गीता 37 द्वितीयोध्याय) यह भी कहते हैं कि-”युद्घ करना तेरे लिए सब प्रकार से अच्छा है, क्योंकि मर कर या तो स्वर्ग में जाएगा या युद्घ जीतकर पृथ्वी को भोगेगा। इसलिए हे पार्थ! युद्घ के लिए निश्चय के साथ खड़ा हो।”
गोरा ने गीता के इस ज्ञान को मानो हृदयंगम कर लिया था, उसकी राष्ट्रभक्ति मचल रही थी, वह आज आततायी को कठोर से कठोर दण्ड देकर भारतीयों की तलवार का लोहा मनवा देना चाहताा था। अत: पूर्णत: अदम्य साहस और शौर्य के साथ उसने युद्घ किया और वीरगति प्राप्त कर स्वर्ग का अधिकारी बना।
यही स्थिति उसकी पत्नी की थी। उस वीरांगना ने वेद धर्म के अनुसार अपने वीरपति की वीरगति पर हर्ष व्यक्त किया और जब वह पूर्णत: आश्वस्त हो गयी कि पतिदेव ने प्राणों की तनिक भी परवाह न करते हुए युद्घ किया और वीरगति प्राप्त की है, तो उसने धर्म की रक्षार्थ स्वयं को अग्नि के समर्पित करने में भी देरी नही की।
अत्याचारों की लगा दी झड़ी
अलाउद्दीन अपने आप में एक अत्यंत क्रूर सुल्तान था। उसने अपनी क्रूरता का परिचय अपने चाचा और ससुर जलालुद्दीन की हत्या करके भी दिया था, परंतु हिंदुओं के प्रति तो उसकी क्रूरता और भी निदंनीय और घृणास्पद स्तर की थी। इलियट एण्ड डाउसन ग्रंथ 3 के पृष्ठ संख्या 164-165 से हमें ज्ञात होता है कि-”हत्यारों की पत्नियों का अपमान करके उनके साथ भयंकर दुव्र्यवहार किया जाए, (ऐसी आज्ञा अलाउद्दीन के संकेत को समझकर उसके सेनापति नुसरतखां ने अपने भाई की हत्या का प्रतिशोध लेने के लिए गुजरात अभियान के समय दी थी) तदुपरांत उन लोगों को दर-दर भटकने वाली वैश्या बनाने के लिए दुष्ट पुरूषों को सौंप दिया जाए। उसने बच्चों को उनकी माताओं के सिर पर रखकर कटवा डाला। इस प्रकार का अपमान किसी भी धर्म या मत में कभी नही हुआ है।”
इस दृश्य को देखकर बरनी जैसे मुस्लिम इतिहासकार को भी दुखी होकर लिखना पड़ा-”इस्लाम को छोडक़र किसी अन्य धर्म में मातृत्व का ऐसा अपमान कभी नही हुआ। लाखों नागरिकों की आंखों के सामने खुले मैदान में उनके सिर पर उनके बच्चों को रखकर काट डालना।” ऐसी वीभत्स बर्बरता के विषय में पी.एन. ओक लिखते हैं कि ऐसा करना केवल अलाउद्दीन या नुसरत खां की ही विशेषता नही थी, अपितु हिंदुस्तान के मुस्लिम शासन काल के हजार वर्षों में से एक दिन भी ऐसा नही आया जब दिन में सूर्य ने तथा रात्रि में तारों ने इन पाशविक अत्याचारों को न देखा हो। (संदर्भ भारत में मुस्लिम सुल्तान, भाग 1 पृष्ठ 230)
इतने असीम कष्टों को झेलने वाले और झेलकर भी अपने धर्म को न त्यागने वाले हमारे पूर्वजों के साहस को शत-शत नमन।
नुसरत खां को मौत की नींद सुलाया था-रणथम्भौर ने
रणथम्भौर की वीरता का उल्लेख हम पूर्व पृष्ठों पर करके आये हैं। 1301 में जब अलाउद्दीन ने रणथम्भौर का पुन: घेराव किया तो नुसरत खां ने किले की प्राचीर पर चढऩे के लिए किले की दीवार के साथ मिट्टी का ऊंचा टीला बनाने का प्रयास किया, जब नुसरत खां अपनी इस योजना को सिरे चढ़ाने के दृष्टिकोण से किले के निकट आया, तब हमारे देशभक्त हिंदू सैनिकों ने उस धर्मभ्रष्ट सेनापति से उसके सारे पापों का प्रतिशोध लेते हुए दुर्ग से एक विशाल चट्टान लुढक़ा कर उसका अंत कर दिया। कहते हैं कि नुसरत खां दो दिन मूचर््िछत रहकर संसार से चला गया।
हिंदू वीरों के ऐसे उल्लेखनीय वीरतापूर्ण कृत्यों से लोगों में उत्साह उत्पन्न होता रहता था। एक ऊर्जा मिलती थी और लोग और अधिक साहस से अपने लक्ष्य के प्रति कार्य करने की प्रेरणा लेते थे।
लालकिला तब भी था
भारत की स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण है लालकिला। इस दुर्ग के निर्माण का श्रेय मुगल बादशाह शाहजहां को दिया जाता है। परंतु ‘तारीखे फिरोजशाही’ का लेखक (इलियट एण्ड डाउसन, गं्रथ-3 पृष्ठ 160) हमें बताता है कि-”1296 ई. के अंत में अलाउद्दीन ने एक बड़ी सेना लेकर बड़ी भव्यता के साथ दिल्ली में प्रवेश किया। वह लालभवन (लालकिला) की ओर बढ़ा, जहां उसने निवास किया।”
1296 ई. में दिल्ली में कोई लालभवन या लालकिला कहीं अन्य होने का कोई प्रमाण नही है। इसलिए वर्तमान लालकिले के निर्माण का श्रेय शाहजहां को दिया जाना पूर्णत: अतार्किक है।
चित्तौड़ पर पुन: आक्रमण
चित्तौड़ ने भारत के गौरव को बढ़ाने में अग्रणी भूमिका निभाई है। इस राजवंश के राणा भीमसिंह और उनकी पत्नी पद्मिनी के विषय में पूर्व में हम उल्लेख कर चुके हैं कि रानी को लेने के लिए अलाउद्दीन ने यद्यपि हर प्रकार का छलबल अपनाया परंतु वह अपनी योजना में सफल नही हो सका। अंत में उसे लज्जित होकर दिल्ली लौटना पड़ गया। अलाउद्दीन खिलजी को इस पराजय से उपजे अपमान भाव ने जीने नही दिया और वह पुन: चित्तौड़ पर आक्रमण करने की योजना बनाने लगा। वह शीघ्र ही अपने अपमान का प्रतिशोध लेना चाहता था।
अंत में उसके लिए वह क्षण आ ही गया कि जब चित्तौड़ विजय के लक्ष्य को दृष्टिगत करते हुए वह एक विशाल सेना के साथ दिल्ली से चित्तौड़ के लिए चल दिया। फरिश्ता के अनुसार दूसरी बार तातार सेना के चित्तौड़ में पहुंचते ही एक भयानक आतंक छा गया। कर्नल टॉड लिखते हैं कि चित्तौड़ में शूरवीर पहले युद्घ में ही बहुत बड़ी संख्या में समाप्त हो गये थे, इसलिए अब नई सेना का संगठन करना कठिन कार्य था। पर वीर सामंतों ने और सरदारों ने वीरता के साथ युद्घ की तैयारियां करनी आरंभ कर दीं।
राणा के पुत्र ने किया युद्घ का संचालन
इस बार के युद्घ में चित्तौड़ के राणा के ज्येष्ठ पुत्र अरिसिंह ने युद्घ क्षेत्र में जाकर सेना का संचालन करने का निर्णय लिया। अरिसिंह एक वीर और साहसी राजकुमार था, तो स्वराष्ट्र की रक्षार्थ विदेशी आक्रांता से भिडऩा अपने लिए सौभाग्य की बात मानता था। इसलिए उसने सुल्तान की सेना का सामना युद्घ क्षेत्र में किया।
कहा जाता है कि इस बार तीन दिन तक हिंदू वीर राजपूतों और विदेशी आक्रांता सेना के मध्य भयंकर युद्घ हुआ। कोई सा भी पक्ष पीछे हटने का नाम नही लेता था। राजपूतों के लिए युद्घ प्रतिष्ठा का प्रश्न था, उन्हें पराजय किसी भी मूल्य पर स्वीकार नही थी। यही स्थिति अलाउद्दीन की थी। वह यह भी जानता था कि यदि इस बार पराजय मिल गयी तो पुन: कभी चित्तौड़ पाने की इच्छा पूर्ण नही हो पाएगी, और अपमान का प्रतिशोध लेने का उसका सपना या संकल्प भी पूर्ण नही हो पाएगा। अत: तातार सेना भी युद्घ को येन केन प्रकारेण जीत लेना चाहती थी। उसके यहां भी पराजय के लिए इस बार कोई स्थान नही था।
राजकुमार ने प्राप्त की वीरगति
युद्घ के चौथे दिन एक दुर्भाग्य पूर्ण घटना घटित हुई। राजकुमार अरिसिंह युद्घ करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गया। यह हिंदू सेना के लिए एक वज्रपात के समान हुई घटना थी। जिससे सैन्यदल को आघात लगा। परंतु उसके उपरांत भी हमारे कुशल रणनीतिकारों ने व्यवस्था को संभाला और अरिसिंह के अनुज अजय सिंह ने स्वयं को युद्घ के लिए प्रस्तुत कर दिया। कहते हैं कि अजय सिंह से राणा भीमसिंह का अनुराग अधिक था, इसलिए वह उसे युद्घभूमि में भेजने के पक्षधर नही थे। फलस्वरूप राणा ने अजय सिंह के लघु भ्राताओं को युद्घ के लिए भेजना उचित समझा। राणा ने समय को पहचाना नही, वह युद्घ संचालन में अक्षम और अनभिज्ञ राजकुमारों को भेजता रहा और राजकुमार अपना बलिदान देकर अपनी राष्ट्रभक्ति का परिजय देते रहे, पर विजयश्री नही मिली। कहते हैं कि राणा के कुल ग्यारह लडक़े युद्घ भूमि में शत्रु से युुद्घ करते-करते बलिदान हो गये। अजय सिंह ही शेष रहा। अंत में राणा भीमसिंह ने युद्घ में स्वयं जाने का निर्णय लिया।
अंत में राणा भीमसिंह ने किया युद्घ
राणा भीमसिंह के युद्घ में जाने का अभिप्राय था कि युद्घ आज आर-पार का होना था, आज या तो युद्घ का निर्णय विजय श्री के साथ चित्तौड़ के पक्ष में आना था, या शत्रु के पक्ष में जाना था। इसलिए पूरी तत्परता से और पूर्ण मनोयोग से राणा युद्घ के लिए निकले।
जब राणा युद्घ के लिए प्रस्थान कर रहे थे, तभी किले की वीरांगनाओं ने विशाल चिता जलाने के लिए सामग्री एकत्र कर ली। किले के मध्य में जौहर की होली सजने लगी। कर्नल टॉड ने लिखा है:-”चित्तौड़ में राणा भीमसिंह एक ओर युद्घ में जाने की तैयारी कर रहे थे, तो दूसरी ओर महलों में जौहर व्रत पालन की व्यवस्था हो रही थी। रानियों और राजपूत बालाओं ने इस बात को समझ लिया था कि चित्तौड़ पर भयंकर संकट आ गया है, और चित्तौड़ की स्वतंत्रता के नष्ट होने के समय राजपूत रमणियों को अपने सतीत्व एवं स्वातंत्रय को सुरक्षित रखने के लिए जौहर व्रत का पालन करना है। चित्तौड़ की पुरानी प्रणाली के अनुसार शत्रु के आक्रमण करने पर जब राज्य की रक्षा का कोई उपाय न रह जाता था, तो सहस्रों की संख्या में राजपूत बालाएं जौहर व्रत का पालन करती हुई एक साथ आग की होली में बैठकर अपने प्राणों का उत्सर्ग करती थीं। उसी जौहर व्रत की तैयारी इस समय आरंभ हुई।
आ गयी रानी पद्मिनी की परीक्षा की घड़ी
आज रानी पद्मिनी के लिए भी परीक्षा की घड़ी आ गयी थी। वैसे उस शेरनी वीरांगना के लिए जौहरव्रत को परीक्षा की घड़ी कहना उसकी वीरता और दृढ़ इच्छा शक्ति का अपमान करना होगा, क्योंकि रानी इससे भी कठिन परीक्षा से पूर्व में निकल चुकी थी। जब वह अपने प्राणनाथ राणा भीमसिंह को अलाउद्दीन खिलजी के शिविर से सुरक्षित निकालकर लाने में सफल हुई थी। आज का जौहर रानी को अपने लिए कहीं अधिक सुरक्षित लग रहा था। इसलिए रानी ने आज अपने प्राणनाथ राणा भीमसिंह को देश रक्षा के लिए अंतिम विदाई दी और स्वयं सखियों के साथ जौहर का मंगल गान गाने लगी।
अदभुत शौर्य के क्षण थे वह
अदभुत शौर्य और अनुपम वीरता के क्षण थे चित्तौड़ के लिए जब राणा युद्घ क्षेत्र में मरने के लिए किले से बाहर निकले और आज उनका लक्ष्य केवल या तो विजय श्री का वरण करना था या उसकी खोज में सीधे स्वर्गलोक में पहुंच जाना था। उससे भी बड़ी बात थी कि रानी आज अपनी सहेलियों के साथ मिलकर अपने ग्यारह पुत्रों की मृत्यु पर शोक में रूदन न करके पति को युद्घ के लिए प्रसन्नता से भेजकर स्वयं सखियों के साथ वैसे ही मंगलगान करती जा रही थीं, जैसे कुछ सहेलियां अपनी किसी सहेली को श्वसुरालय (ससुराल) भेजने के समय मंगलगान गाया करती हैं। है किसी देश की नारियों की इतनी वीरतापूर्ण कहानियां, जिनमें हर क्षण और हर कण से केवल वीर रस टपकता है और वही वीर रस किसी समाज या देश की युवा पीढ़ी के लिए अमृत रस बन जाता है, जो उसे सदियों तक के लिए जीवन प्रदान करता है।
कर्नल टॉड ने किया है रोमांचकारी वर्णन
कर्नल टॉड ने रानी और उसकी सखियों के द्वारा जौहर के लिए प्रस्थान करने के क्षणों को बड़े ही रोमांचकारी शब्दों में वर्णित किया है। वह लिखते हैं-”राजप्रासाद के मध्य में पृथ्वी के नीचे भीषण अंधकार में एक लंबी सुरंग थी। दिन में भी उस सुरंग में भयानक अंधकार रहता था। इस सुरंग में बहुत सी लड़कियां पहुंचाकर चिता जलाई गयी। उसी समय चित्तौड़ की रानियां, राजपूत बालाएं और सुंदर युवतियां अगणित संख्या में प्राणोत्सर्ग करने के लिए तैयार हुईं। सुरंग के भीतर आग की लपटें तेज होने पर वे सभी बालाएं अपने बीच में पद्मिनी को लेकर सत्य सतीत्व और स्वाधीनता के महत्व के गीत (एक विदेशी जिन्हें सत्य, सतीत्व और स्वाधीनता के गीत कहता है, पर हमारे इतिहास में उन्हें हमारी कायरता के रूप में प्रदर्शित कर दिया है) गाती हुई सुरंग की ओर चलीं। सुरंग में प्रवेश करने के लिए नीचे उतरने लगीं। सीढिय़ों के भीतर जाने पर भयानक आवाज के साथ लोहे का बना हुआ सुरंग का मजबूत दरवाजा बंद हुआ और कुछ क्षणों के भीतर हजारों राजपूत बालाओं के शरीर सुरंग की प्रज्ज्वलित आग में जलकर ढेर हो गये।”
”स्वाधीनता की इतनी बड़ी साधना
किस देश ने की है ऐसी उपासना,
कोई इतिहास का एक पृष्ठ तो उठाये,
इतिहास की एक पंक्ति पढक़र सुनाये,
हर पंक्ति में मिलेंगे स्वर्ण के ढेर,
पढ़ेगी पीढ़ी तो युवा बनेंगे शेर।”
राणा भीमसिंह को अपनी और चित्तौड़ की स्वाधीनता की अब कोई आशा नही रह गयी थी, इसलिए अंतिम प्रस्थान से पूर्व वीरता का इतना बड़ा रोमांचकारी तांडव रचा गया था। जब सुरंग का लौहद्वार बंद हो गया, तो राणा को अपनी चित्तौड़ की अस्मिता के प्रति निश्चय हो गया कि यदि उनके उत्सर्ग के पश्चात शत्रु सेना दुर्ग में प्रवेश भी कर गयी तो उसे यहां कोई नही मिलेगा और शत्रु से हमारे सम्मान की रक्षा हो जाएगी।
घटना को लें सही संदर्भ में
घटना को सही संदर्भ में लिया जाए तो पता चलता है कि निज धर्म, स्वतंत्रता और आत्म सम्मान की सुरक्षा उस समय हमारे देशवासियों के लिए पहली प्राथमिकता हो गयी थी, इसलिए प्रत्येक नर-नारी इनके लिए ही संघर्ष कर रहा था। यदि इनके लिए प्राणोत्सर्ग भी करना पड़े तो वह उससे पीछे नही हटता था। प्राणों से खेलना हमारा राष्ट्रधर्म बन गया था। इसके लिए देश की वीरांगनाओं ने आपात जौहर धर्म का अत्यंत हृदय स्पर्शी मार्ग अपनाया, जो विश्व इतिहास की एक अनूठी और रोमांचकारी परंपरा है। इस परंपरा में वीरता और देशभक्ति की पराकाष्ठा है।
यह कितना रोमांचकारी दृश्य है कि जिस राजा के ग्यारह पुत्र युद्घ की बलि चढ़ गये हों, हजारों की संख्या में आज वीर सैनानी बलिदान हो चुके हों, परिवार की महिलाएं ‘जौहर धर्म’ से आंखों के सामने अपनी जीवन लीला समाप्त कर रही हों, वह राजा आज भी शोक, पश्चाताप या शत्रु से संधि की बात नही कर रहा है, शत्रु को कुछ मनोवांछित वस्तुएं देकर विदा करने की बात नही कर रहा है, शत्रु के धर्म को अपनाने की बातें नही कर रहा है। वह बातें कर रहा है देशभक्ति की और देशभक्ति एवं स्वाधीनता की रक्षार्थ आज अंतिम युद्घ कर स्वर्गारोहण की। देशभक्ति और स्वाधीनता के प्रति समर्पण भाव भी पराकाष्ठा थी यह। विश्व इतिहास के ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जब शासक थोड़ी सी विषमताओं में घिरा तो उसने शत्रु के सामने समर्पण कर दिया। पर यहां समर्पण नही था, यहां आत्मोत्सर्ग था, बलिदान था, देशभक्ति थी और वीरता थी।
राणा के जितने सामंत और सरदार बचे थे सबने युद्घ के लिए प्रस्थान किया, आज वह अपने जीवन का अंतिम युद्घ करने के लिए निकले थे-एक बलिदानी जत्थे के रूप में। उनके जीवन का ही नही अपितु अलाउद्दीन की सेना के साथ चित्तौड़ का ही यह अंतिम युद्घ सिद्घ होने वाला था, जिसके लिए स्वतंत्रता के ये दीवाने चल दिये थे सिर पर केसरिया साफा बांधकर।
रानी पद्मिनी अपनी हजारों सहेलियों के साथ अपना बलिदान दे चुकी थी। वह इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ बन चुकी थी, चित्तौड़ की मर्यादा के अनुसार उसने राष्ट्र सेवा की। उन सारी वीरांगनाओं को हमारा शत्-शत् नमन।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत