प्राचीन काल में मास का आरम्भ अमा के उपरान्त प्रथम चन्द्रदर्शन से किया जाता था। चन्द्रदर्शन की प्रथम रात्रि ही शुक्ल प्रतिपदा कहलाती थी। शुक्ल पक्ष १४ रात्रियों का होता था जिसकी अन्तिम १४वीं रात्रि पूर्णिमा कहलाती थी। कृष्ण पक्ष १५-१६ रात्रियों का होता था और चन्द्रप्रकाश से रहित इसकी अन्तिम तीनों रात्रियों का समुच्चय अमा कहलाता था अर्थात् मास अमान्त होते थे।
मा का अर्थ है – माप। चन्द्र के प्रकाशित भाग की माप से तिथिज्ञान किया जाता था। अमा और पूर्णिमा चन्द्र के प्रकाशित भाग के अभाव और पूर्णत्व की सूचक हैं। अमा की तीनों रात्रियाँ सूर्य-चन्द्र के सहवास की मानी जाती थीं। भारत में सूर्य को शिव तथा चन्द्र को पार्वती का प्रतीक मानकर शिवरात्रि मनायी जाती थी। कालान्तर में जाना गया कि अमा की तीनों रात्रियों में से वस्तुतः द्वितीय में ही सूर्य-चन्द्र का सहवास होता है अर्थात् दोनों समान नक्षत्र में होते हैं। तब प्रथम व तृतीय रात्रियाँ क्रमशः कृष्ण चतुर्दशी व शुक्ल प्रतिपदा कहलाने लगीं और केवल द्वितीय रात्रि का नाम ही अमा रह गया। अब पूर्णिमा शुक्ल पक्ष की १५वीं रात्रि हो गयी। कालान्तर में मासों का नक्षत्राधारित नामकरण हुआ जिसके लिए पूर्णिमा को आधार बनाया गया। यथा चित्रा नक्षत्र में पूर्णिमा हो तो चैत्र मास।
ग्रहादिक पश्चिम से पूर्व की ओर गति करते हैं अतः अश्विनी-भरणी आदि नक्षत्रक्रम भी पश्चिम से पूर्व की ओर ही है। ऋतुयें संपातों से नियन्त्रित होती हैं। क्रान्तिवृत्त विषुवत् वृत्त को जिन दो बिन्दुओं पर काटता है, वे संपात हैं। संपात पूर्व से पश्चिम की ओर गति करते हैं अतः शनैः शनैः प्रत्येक ऋतु अपने वर्तमान मास से पहले ही आरम्भ होने लगती है। प्रायः १००० वर्ष उपरान्त कोई ऋतु एक पक्ष पहले आरम्भ होने लगती है। १००० वर्ष बीतने पर यदि मासों का आरम्भ ही एक पक्ष पहले कर लिया जाय तो ऋतुओं के मास वही बने रहेंगे। उत्तरी भारत में यही किया गया अर्थात् मास पूर्णिमान्त बना दिये गये।
दक्षिणी भारत में ऐसा नहीं किया गया जिसका प्रमुख कारण यह था कि उत्तरायणान्त रेखा (२३°.५ उत्तर अक्षांश) के दक्षिण में ऋतुओं में अधिक तीव्रता नहीं होती। यदि शीत ऋतु में पञ्जाब से तामिलनाडु की ओर यात्रा करें तो उत्तरायणान्त रेखा पार करते ही अपने स्वेटर, जैकेट आदि उतारने पड़ेंगे। ऋतुओं के एक पक्ष पूर्व आरम्भ होने से दक्षिणी भारत में किसी विशेष परिवर्तन को अनुभव नहीं किया गया अतः वहाँ मासों को एक पक्ष पूर्व आरम्भ कर लेने हेतु कोई प्रेरण नहीं था।
एक पक्ष पूर्व मासों का आरम्भ कर लेने का कृत्य वस्तुतः अनुचित और ज्योतिषविरुद्ध था। मासों के साथ कोई छेड़-छाड़ नहीं करनी चाहिए थी क्योंकि ऐसा करने पर भी दीर्घकालपर्यन्त ऋतुओं के वही मास बनाये नहीं रखे जा सकते। संपातचलन तो होता ही रहेगा और अधिमास का निर्णय भी अमान्त मास से ही होता है, पूर्णिमान्त से नहीं!
“वर्ष” शब्द में एक भ्रम व एक तथ्य अन्तर्निहित है।
तथ्य — ऋतुएँ एक निश्चित क्रम से आती हैं जिससे वर्ष नामक एक चक्र बनता है जिसका मान निर्धारित है। इस चक्र में आधारभूत 4 बिन्दु हैं अर्थात् इस चक्र के आरम्भ के 4 विकल्प हैं —
1. सबसे बड़ा दिन (इसी दिन से वर्ष/वर्षा का आरम्भ मनाया जाता था क्योंकि भारत“वर्ष" कृषिप्रधान था)
2. शरद् में दिन-रात की अवधि समान (कालान्तर में इसी दिन से वर्ष का आरम्भ मनाया जाने लगा क्योंकि यह पितृविसर्जन के निकटवर्ती था)
3. सबसे छोटा दिन (केरल आदि कुछ दक्षिणी प्रदेशों को छोड़कर इस दिन से कभी भी सम्पूर्ण भारतवर्ष में वर्ष का आरम्भ नहीं मनाया गया)
4. वसन्त में दिन-रात की अवधि समान (वैष्णवों व योरोपवासियों के प्रभाव से इस दिन से वर्ष का आरम्भ मनाया जाने लगा)
भ्रम — एक वर्ष (ऋतुचक्र) में पृथ्वी सूर्य का एक परिक्रमण पूर्ण कर लेती है।
पूर्ण परिक्रमण को “नाक्षत्र वर्ष" संज्ञा प्रदान की गई है जिसकी अवधि वर्ष (ऋतुचक्र) से लगभग 20 मिनट अधिक होती है।
प्रचलित ग्रेगोरियन कैलेण्डर “नाक्षत्र वर्ष" का नहीं अपितु वर्ष (ऋतुचक्र) का द्योतक है किन्तु ऋतुचक्रदृष्ट्या भी इसमें 2 दोष रह गए हैं —
प्रथम दोष — इसमें 30 दिन के 4 माह, 31 दिन के 7 माह एवं एक माह 28/29 दिन का है जबकि 30 दिन के न्यूनातिन्यून 6 माह अवश्य होने चाहिए।
निवारण — 30 दिन के 11 माह एवं 35/36 दिन का 12वाँ माह होना चाहिए।
द्वितीय दोष — वर्ष के आरम्भ में 11 दिन का विलम्ब है क्योंकि सूर्य के उत्तरगोलवासारम्भ (21 मार्च) के 11 दिन पश्चात् 1 एप्रिल आता है।
प्रथम निवारण — किसी 21 मार्च को सीधे 1 एप्रिल घोषित कर दिया जाय।
द्वितीय निवारण — ऋतुचक्र-आधारित ग्रेगोरियन कैलेण्डर के साथ ही “नाक्षत्र वर्ष"-आधारित कैलेण्डर भी चलाया जाय। एतदर्थ जूलिअन कैलेण्डर को नाक्षत्र वर्ष का कैलेण्डर बनाना समीचीन होगा।
नक्षत्र अचल किन्तु ऋतुचक्र चल है किन्तु ऋतुचक्र-आधारित ग्रेगोरियन कैलेण्डर में नक्षत्र-आधारित मकर संक्रान्ति आदि घटनाएँ लगभग 71 वर्ष व्यतीत होने पर एक दिनांक आगे बढ़ती रहेंगी अर्थात् कालान्तर में मकर संक्रान्ति का दिनांक क्रमश: 15/16 जैन्युअरि, 16/17 जैन्युअरि, 17/18 जैन्युअरि होता जाएगा।
यदि “नाक्षत्र वर्ष" पर आधारित कैलेण्डर चलाया जाय तो मकर संक्रान्ति का दिनांक स्थिर ही रहेगा और तब ऋतुचक्र के चारों बिन्दु अर्थात् उत्तरायणारम्भ, वसंत विषुव, दक्षिणायनारम्भ एवं शरद् विषुव लगभग 72 वर्ष व्यतीत होने पर एक दिनांक पिछड़ते रहेंगे अर्थात्
उत्तरायणारम्भ का दिनांक क्रमश: 21 डिसैम्बर, 20 डिसैम्बर, 19 डिसैम्बर, 18 डिसैम्बर आदि होता जाएगा ;
वसंत विषुव का दिनांक क्रमश: 20 मार्च, 19 मार्च, 18 मार्च, 17 मार्च आदि होता जाएगा ;
दक्षिणायनारम्भ का दिनांक क्रमश: 20 ज्यून, 19 ज्यून, 18 ज्यून, 17 ज्यून आदि होता जाएगा तथा
शरद् विषुव का दिनांक क्रमश: 22 सैप्टैम्बर, 21 सैप्टैम्बर, 20 सैप्टैम्बर, 19 सैप्टैम्बर आदि होता जाएगा।
नाक्षत्र वर्ष के कैलेण्डर में ऋतुचक्र का दिनांक पिछड़ना नितान्त समीचीन ही होगा क्योंकि यह 20 मिनट की वार्षिक दर से वस्तुत: पिछड़ ही रहा है।
वर्षमीमांसा !
ज्योतिषीय साक्ष्य (astronomical evidence) कालज्ञान के लिए परम प्रमाण होता है। यह प्रमाण जिन बातों से बनता है वे हमें प्रथमदृष्ट्या असुविधाजनक ही प्रतीत होती हैं।
यद्यपि पूर्वकाल में भारतीय ज्योतिषी बहुत प्रकार के वर्षों का व्यवहार करते थे तथापि वर्तमान काल के योरोपियन ज्योतिषी भी न्यूनातिन्यून 4 प्रकार के वर्षों को अनिवार्य मानते हैं —
1. नाक्षत्र वर्ष (Sidereal year)
2. ऋतुवर्ष (Tropical year)
3. दीर्घाक्ष वर्ष (Anomalistic year)
4. राहु वर्ष (Eclipse year)
नाक्षत्र वर्ष — भचक्र के किसी निश्चित तारेे की सीध में सूर्य की स्थिति से आरम्भ करके पुन: उसी तारे की सीध में सूर्य की स्थिति तक का समय एक “नाक्षत्र वर्ष” कहलाता है। यही पृथ्वी द्वारा सूर्य के “पूर्ण परिक्रमण” की अवधि है। इसका मान है —
365·256363 दिन अथवा
365 दिन 6 घण्टे 9 मिनट 9·8 सेकण्ड।
ऋतुवर्ष — वर्ष में 2 संपात होते हैं – वसन्त संपात (Vernal equinox) व शरद् संपात (Autumnal equinox)। परिक्रमण-पथ के जिन बिन्दुओं पर पृथ्वी के उत्तरी व दक्षिणी ध्रुव सूर्य से समान दूरी बनाते हैं, वे संपात कहलाते हैं।
सूर्य की किसी एक संपात में स्थिति से आरम्भ करके पुन: उसी संपात में स्थिति तक का समय एक “ऋतुवर्ष” कहलाता है। यही वास्तविक वर्ष है। पृथ्वी का लगभग 23·5 अंश नत ध्रुवाक्ष पूर्व से पश्चिम की ओर डोलन कर रहा है, फलत: संपात भी पश्चिम की ओर गति कर रहा है जबकि पृथ्वी पूर्व की ओर गति कर रही है। अत: किसी संपात में सूर्य की पुनर्स्थिति परिक्रमण पूर्ण होने से लगभग 20·4 मिनट पूर्व ही हो जाती है अर्थात् ऋतुवर्ष का मान नाक्षत्र वर्ष से न्यून होता है। इसका मान है —
365·242190 दिन अथवा
365 दिन 5 घण्टे 48 मिनट 45·2 सेकण्ड।
दीर्घाक्ष वर्ष — पृथ्वी का परिक्रमण-पथ दीर्घवृत्ताकार है तथा सूर्य इस दीर्घवृत्त के दीर्घाक्ष के मध्य-बिन्दु पर न होकर उससे एक ओर हटा हुआ है। अत: दीर्घाक्ष का एक शीर्ष सूर्य के निकट है जो उपसौर शीर्ष कहलाता है तथा दूसरा शीर्ष दूर है जो अपसौर शीर्ष कहलाता है। उपसौर तथा अपसौर शीर्ष में पृथ्वी की स्थिति क्रमश: “उपसौरिका” (Perihelion) तथा “अपसौरिका” (Aphelion) कहलाती है।
उपसौरिका से पुन: उपसौरिका तक का समय एक “दीर्घाक्ष वर्ष” कहलाता है। परिक्रमण-पथ का दीर्घाक्ष पश्चिम से पूर्व की ओर घूर्णन कर रहा है, अत: दीर्घाक्ष वर्ष का मान नाक्षत्र वर्ष से लगभग 4·7 मिनट अधिक है। इसका मान है —
365·259633 दिन अथवा
365 दिन 6 घण्टे 13 मिनट 52·5 सेकण्ड।
राहु वर्ष — चन्द्रमा का पृथ्वी-परिक्रमण-पथ (चन्द्र-पथ) पृथ्वी के सूर्य-परिक्रमण-पथ (पृथ्वी-पथ) के समानान्तर (0 अंश पर) न होकर उससे लगभग 5·15 अंश का कोण बनाता है, अत: केवल 2 बिन्दुओं पर ही चन्द्र-पथ पृथ्वी-पथ से मिलता है, इन बिन्दुओं को क्रमश: राहु (ascending node) व केतु (descending node) कहते हैं। फलत: जिस पूर्णिमा में चन्द्रमा राहु अथवा केतु में होता है, उसी पूर्णिमा को चन्द्र-ग्रहण होता है। इसी प्रकार जिस अमावास्या में चन्द्रमा राहु अथवा केतु में होता है, उसी अमावास्या को सूर्य-ग्रहण होता है। यदि चन्द्र-पथ सूर्य-पथ के समानान्तर होता तो प्रत्येक पूर्णिमा को चन्द्र-ग्रहण तथा प्रत्येक अमावास्या को सूर्य-ग्रहण होता।
राहु व केतु को मिलाने वाली रेखा वर्ष में 2 बार सूर्य की ओर संकेत करती है। एक बार राहु सूर्य की ओर एवं केतु सूर्य के परे होता है तथा दूसरी बार राहु सूर्य के परे एवं केतु सूर्य की ओर होता है। संपातों की भाँति ये स्थितियाँ भी परिक्रमण-पथ पर पश्चिम की ओर गति करती हैं। इन दोनों स्थितियों में से किसी एक से आरम्भ करके उसकी पुनरावृत्ति में लगा समय एक “राहु वर्ष” होता है। इसका मान है —
346·620076 दिन अथवा
346 दिन 14 घण्टे 52 मिनट 52·5 सेकण्ड।
इन चारों प्रकार के वर्षों के स्वरूप-भेद के कारण ही किसी घटना के अनेक पक्ष हो जाते हैं जिन्हें ज्योतिषीय साक्ष्य (astronomical evidences) कहा जाता है। अत: इन चारों में से जितने अधिक प्रकार के वर्षों के सापेक्ष किसी घटना का विवरण अंकित कर दिया जाएगा उतनी ही प्रामाणिकता से उस घटना का ठीक-ठीक काल बताना भी सम्भव हो पाएगा। अत: केवल एक ही अथवा एक ही प्रकार का वर्ष मनाया जाए ऐसा आग्रह रखने वाले पुनर्विचार करें कि कहीं वे अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी तो नहीं मार रहे हैं ?
✍🏻प्रचंड प्रद्योत
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इषे त्वा ऊर्जे त्वा ॥ भारत में एक ऋतु दो माह की कही जाती है, उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्र के लिये यही अनुभव में भी है।
इष और ऊर्ज मास शरद ऋतु के मास कहे जाते हैं, भारत की कृषि
वर्षा पर आधारित रही है। वर्षा ऋतु के भी दो मास होना चाहिये,
लेकिन हम पाते हैं कि वर्षा ऋतु को चौमासा कहा जाने लगा है,
वर्षा दो ही मास होती है, फिर चार मास कैसे हो गये?
वर्षारम्भ पर किसान आनन्दित होता है, अन्य जन लेखक कवि बाल युवा युवती भी आनन्दित होते हैं लेकिन इनका आनन्दित होना अभौतिक है।
किसान का आनन्दित होना ही वास्तविक आनन्द है, अन्नदा धरती, अन्नद कृषक और इसमें हेतु होती है वर्षा ।
क्वांर और कार्तिक माह वर्षा ऋतु के दो मास होते थे, इसे बरतने वाले लोग परम्परा से इन मासों के साथ वर्षा ऋतु का व्यवहार करते चले आ रहे थे,
४००० – ५००० वर्ष बीत गये
तब लगा कि क्वांर कार्तिक (इष ऊर्ज) से बहुत पहले ही वर्षा होने लगी है, सावन भादों में । सावन से शुरू होकर छिटपुट क्वांर कार्तिक तक …. तो वर्षाकाल सम्बन्धी बातों का समन्वय सावन भादों (श्रावण – श्रविष्ठा) से करते हुये क्वांर कार्तिक को भी स्मृति में बनाये रखा ।
ऋतुचक्र भ्रमणशील है सो यहाँ पर भी वह रुक नहीं सकता था..
और पीछे सरक कर यह आषाढ़ में आया और एक पैर जेठ की ओर उठा दिया।
घाघ कहते हैं कि ऋतु को एक महीना पहले ही आया जानो, जेठ में ही आषाढ़ के कृत्य करो.. जेठ में ही खेत की जुताई कर डालो।
घाघ यह भी कहते हैं कि खेत को दोबार जोतना तभी फसल अच्छी होगी।
तो बात है वर्ष के सबसे बड़े दिन की, जब दक्षिणायनारम्भ होता है
पुराने विवरण यह बताते हैं कि इस दिवस में रात्रि होती है १२ मुहूर्त की और दिन होता है १८ मुहूर्त का यानी १४ घण्टे से भी कुछ अधिक का ।
भारत में दक्षिणायनारम्भ दिवस पर छाया मापन और दिवस प्रमाण ज्ञात करने की प्राचीन परम्परा रही है। यदि आप साढ़े तेइस अंश उत्तरी अक्षांश के दक्षिण में हैं तो ठीक मध्याह्न होने पर आपकी छाया पृथ्वी पर नहीं बनेगी । एक पल के लिये ही सही आप अपने आपको देवता फील कर सकते हैं, क्योंकि देवों की भी छाया नहीं बनती है।
आर्य्यभट, वराहमिहिर ने ऋतु के सरकने की बात पर विचार किया
है , पूर्वाचार्यों और गर्ग तथा नारद जैसे ऋषियों के वचनों को ध्यान में रखकर ही इन दोनों ने अयन की गति और अयन के समायोजन हेतु गणितीय सूत्र दिये । जिनकी चर्चा आगे होगी.
वराहमिहिर और आर्य्यभट से कम से कम पाँच हजार वर्ष पहले से चली आ रही चान्द्रमास और सौरवर्ष पर आधारित व्यवस्था में ऋतुवर्ष का छोटा होना एक समस्या बनकर उभरा । इस पर देश में ही नहीं विदेशों में भी विचार हुआ, विचार विमर्श, विचार और ज्ञान का विनिमय हुआ।
रामायण और महाभारत में विनिमय को आसानी से देखा समझा जा सकता है, विनिमय (exchange) अर्थात् बदले में कुछ पाना । यदि हमारे पास देने के लिये कुछ नहीं है तो पाने की सम्भावना शून्य के निकट होगी।
भगवान् के वचनों में – पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति….
यह सूत्र है कुछ पाने का, Give&Take
✍🏻अत्रि विक्रमार्क
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