आपातकाल के वे काले दिन और उनके काले किस्से

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भूपेंद्र भंडारी

पत्रकार कूमी कपूर ने अपनी किताब ‘द इमर्जेंसी, अ पर्सनल हिस्ट्री’ में संजय गांधी की कार परियोजना के बारे में बहुत गहरी जानकारी दी है। आपातकाल की भयावहता को दोहराते वक्त अधिकांश टीकाकारों ने देश के इतिहास में विकृत पूंजीवाद और भ्रष्टाचार की सबसे निर्लज्ज मानी जा सकने वाली एक दास्तान की अनदेखी कर दी। यह दास्तान थी संजय गांधी की कार परियोजना की। इस परियोजना के चलते बैंकों और निवेशकों को धमकाया गया और ब्लैकमेल किया गया। तत्कालीन नियमों को तोड़ा-मरोड़ा गया। चापलूसी की सारी हदें पार कर दी गईं। यह सारा कुछ हुआ एक व्यक्ति की सनक को पूरा करने के लिए। जब यह सब हो रहा था तब उस व्यक्ति की मां सबकुछ बहुत नरमी से बरदाश्त करती रहीं। वही मां जिसे कुछ समय पहले ही एक राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी तक ने दुर्गा कहकर पुकारा था। 
इस विचित्र दास्तान का पूरा ब्योरा कूमी कपूर की नई किताब में सिलसिलेवार और विस्तृत ढंग से दर्ज है। यह किताब ऐसे समय में सामने आई है जब संजय गांधी के भतीजे राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार पर यह कहते हुए तीखा हमला बोला है कि यह सूट-बूट की सरकार है। यह किताब हमें एक बार फिर से यह याद दिलाती है कि अतीत में उन समाजवादी दिनों में दरअसल क्या हुआ था। 
संजय गाधी ने ब्रिटेन में रॉल्स रॉयस में प्रशिक्षण हासिल किया था। उनको कारों को लेकर हमेशा से बहुत लगाव था। वह सन 1968 में वापस लौटे और सरकार तथा योजना आयोग दोनों इस नतीजे पर पहुंच गए कि निजी क्षेत्र में छोटी कार का निर्माण एक अच्छा विचार था। संजय ने दिल्ली के ट्रक चालकों के एक पसंदीदा अड्ड गुलाबी बाग में छोटी कार के नमूने के निर्माण की प्रक्रिया शुरू कर दी। 
सरकार ने सितंबर 1970 में आशय पत्र जारी कर दिया। इस पत्र के जरिये संजय गांधी को यह अनुमति दे दी गई कि वह एक वर्ष में 50,000 तक कारें बना सकें। हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री बंसीलाल जो उन दिनों प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के करीबी थे, उन्होंने अपने अधिकारियों को संजय गांधी की मदद के लिए भेज दिया ताकि वे फैक्टरी के लिए समुचित जमीन तलाश कर सकें। उन्होंने संजय गांधी को सोनीपत में जमीन की पेशकश की लेकिन संजय दिल्ली के करीब जमीन चाहते थे। उनकी नजर में गुडग़ांव का एक हिस्सा था लेकिन वह खेती की जमीन थी और उसके करीब ही गोलाबारूद रखने की जगह थी। 
परंतु वह कोई बहुत बड़ी बाधा नहीं थी। हरियाणा सरकार ने बहुत मामूली कीमत पर किसानों से वह जमीन ले ली और उसे मारुति लिमिटेड नामक एक कंपनी के हवाले कर दिया। इस कंपनी की शुरुआत संजय गांधी ने अगस्त 1971 में की थी। नजदीक स्थित गोला-बारूद केंद्र को वहां से हटा दिया गया। बैंकों ने रियायती दर पर ऋण उपलब्ध कराया। जब भाई-भतीजावाद के आरोप तेज होते गए और उनको अनसुना करना संभव नहीं रह गया तब यह तय किया गया कि अहमदनगर स्थित वाहन शोध एवं विकास संस्थान मारुति की व्यवहार्यता का परीक्षण करेगा। 
मारुति द्वारा बनाया गया छोटी कार का नमूना परीक्षण में विफल हो गया। इसका सीधा तात्पर्य था कि यह वाहन सड़क पर उतारे जाने लायक नहीं था। लेकिन इसके बावजूद जुलाई 1974 में मारुति को 50,000 कारें बनाने का औद्योगिक लाइसेंस प्रदान कर दिया गया। कपूर अपनी पुस्तक में लिखती हैं कि मारुति की पूरी कहानी जबरन उगाही, नियम कायदों में छेड़छाड़ और मनमाने बदलाव और ब्लैकमेलिंग के उदाहरणों से भरी हुई है। आपातकाल ने इसे और खराब कर दिया। जनपथ के कारोबारियों को भयभीत किया गया कि अगर वे मारुति के शेयर नहीं खरीदते हैं तो उनकी दुकानें ढहा दी जाएंगी। 
नवंबर 1975 में आंतरिक सुरक्षा अधिनियम (मीसा) के तहत एक ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया गया जो सिंघानिया की एक कंपनी में काम करता था। बाद में उसकी गिरफ्तारी को विदेशी मुद्रा संरक्षण एवं तस्करी निरोधक अधिनियम के तहत बरकरार रखा गया। सिंघानिया परिवार के एक व्यक्ति के खिलाफ भी मीसा के तहत गिरफ्तारी आदेश जारी किया गया। जिस दिन सिंघानिया परिवार से जुड़े धागों के डीलरों और कागज कारोबारियों ने मारुति के शेयर खरीदने शुरू कर दिए उसी दिन न केवल उस अधिकारी को रिहा कर दिया गया बल्कि सिंघानिया परिवार के सदस्य को भी जाने दिया गया। जब डीलरों में से एक ने कार निर्माण के कोई संकेत न देखकर अपना पैसा वापस मांगा तो उसे मीसा के तहत गिरफ्तार कर लिया गया और दो महीने तक सलाखों के पीछे रखा गया। 
एक ओर जहां मारुति घाटे में चल रही थी वहीं संजय गांधी द्वारा शुरू की गई एक अन्य कंपनी मारुति टेक्रिकल सर्विसेज को कार निर्माता कंपनी से अच्छे पैसे मिल रहे थे। इस कंपनी ने एक तीसरी कंपनी की शुरुआत की जिसे मारुति हेवी व्हीकल्स का नाम दिया गया। यह नई कंपनी पुराने कबाड़ हो चुके रोड रोलरों को दोबारा तैयार कर नया बताकर बेचती थी। इनकी खरीद उन्हीं राज्यों में होती थी जहां कांग्रेस का शासन था। अंतत: सन 1977 में मारुति दिवालिया हो गई। न्यायमूर्ति एपी गुप्ता की अध्यक्षता में एक जांच आयोग बिठाया गया जिसने पूरे प्रकरण पर बहुत घातक रिपोर्ट पेश की। संजय गांधी की मौत के एक साल बाद जून सन 1980 में सरकार ने इंदिरा गांधी के आदेश पर मारुति को उबारा और उसके लिए एक विदेशी साझेदार की तलाश शुरू की। अंतत: जापानी कंपनी सुजूकी के रूप में उसे अपना साझेदार मिला।
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