सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा श्रीराम, अध्याय – 14 ( ग ) सिंहावलोकन
सिंहावलोकन
भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की महानता इसी में निहित है कि भारत भूमि को पुण्य भूमि व पितृ भूमि बनाने में श्रीराम का महत्वपूर्ण योगदान है। उस योगदान को भारत का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद अपनी मौलिक चेतना का एक महत्वपूर्ण और अजस्र स्रोत मानता है। श्री रामचंद्र जी के योगदान को भारत की पुण्य भूमि और पितृभूमि बनने के दीर्घकालिक यात्रा पथ से यदि निकाल दिया जाए तो वह निष्प्राण हो जाएगी। वास्तव में वेदों ने जिस राष्ट्र की अवधारणा को हमारे पूर्वजों को सृष्टि प्रारंभ में प्रदान किया था, उस पर भव्य भवन बनाने का काम रामचंद्र जी जैसे महानायकों ने ही किया है।
निर्माता हैं राष्ट्र के नाव के खेवनहार।
राष्ट्रदेव सम पूज्य है नमन है बारंबार।।
जब हम भारत माता कहकर अपनी भारत भूमि का वंदन अभिनंदन करते हैं तो हम किसी मिट्टी के ढेले को भारत माता नहीं कहते हैं ,यदि ऐसा है तो इसे तो निरी अज्ञानता ही कहा जाएगा । इसके विपरीत हम भारत माता उसे कहते हैं जिसके साथ हमारे ऋषि पूर्वजों के अनेकों संस्मरण जुड़े हुए हैं और जिसके साथ हमारे अनेकों राष्ट्रभक्त तपस्वी क्षत्रियों के तेजस्वी राष्ट्रवाद के महान किस्से जुड़े हुए हैं। जिसने ऋषि और कृषि की भारत की पवित्र संस्कृति को अपने अंक में विकसित होने का सौभाग्य प्रदान किया है। जिसके साथ हमारी वेदों की वाणी, उपनिषदों का गहरा आध्यात्मिक ज्ञान , स्मृतियों का महान मार्गदर्शन और ऐसे ही आर्षग्रंथों की महानता एकाकार है।
इन जैसी अनेकों पवित्र भावनाओं ने भारत माता की एक भावनात्मक तस्वीर हमारे अंत:करण में अंकित की है। उसी तस्वीर को हमने राष्ट्र के रूप में पूजा है।
जैसे हमारे अंतःकरण में कोटि-कोटि जन्मों के संस्कार बीज रूप में पड़े रहते हैं वैसे ही हमारे अंतःकरण में बनी इस तस्वीर के साथ कोटि कोटि महापुरुषों के तप, त्याग और बलिदान की गाथाएं जुड़ी हुई हैं, उनका ज्ञान -विज्ञान रचा- बसा है। जैसे अंतःकरण अदृश्य है, वैसे ही यह तस्वीर भी अदृश्य है। पर यह जब अपने बाह्य रूप में प्रकट होती है तो विस्तार पाकर अति विशाल बन जाती है। इसी विस्तृत भारत माता की लोगों ने शेरों पर सवारी करते हुए तस्वीर बना दी है । यह लौकिक तस्वीर है। इसे शेरों के साथ जोड़कर दिखाने का अभिप्राय केवल एक ही है कि भारत माता उन शेरों की माता है जिन्होंने राक्षस संहार को अपने जीवन का व्रत बनाया। यदि भारत माता के शेरों का सरदार श्री राम को मान लिया जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। जैसे शेर का शूरत्व इसी में है कि वह जीवित प्राणी को मार कर ही खाए, मरे हुए का मांस भक्षण ना करे । वैसे ही मां भारती के शेरों की भी यह विशेषता है कि वे भी राक्षसों का संहार करते हैं । मां भारती उस समय चंडी बन जाती है जगह राक्षसों के रक्त से स्नान करती है अर्थात राक्षसों के संहार पर प्रसन्नता प्रकट करती है। लौकिक और भौतिक अर्थ में शेरों पर सवारी करने वाली देवी को चाहे हम कुछ भी मानें, पर इसका आध्यात्मिक और वैज्ञानिक अर्थ केवल यही है कि हमारी भारत माता राक्षसों से मुक्त समाज और राष्ट्र की स्थिति पर ही प्रसन्न होती है। राक्षस और दुष्टों के संहार के लिए वह अपनी संतान को शेरों के रूप में पालती है, जो समय आने पर अपना शौर्य दिखाते हैं और धरती को राक्षसों से मुक्त करते हैं। वास्तव में मां भारती की शेरों पर सवारी का एक रहस्य यह भी है कि यह अपने शक्ति प्रदर्शन को संसार में शांति व्यवस्था कायम करने के लिए प्रकट करती है। किसी से उसका कोई वैरभाव नहीं है।
करे सवारी शेर की और मांगे सबकी खैर।
भारत माता ना रखे किसी से दिल में बैर ।।
रामायण कालीन राजनीतिक अवस्था पर विचार करते हुए लाला लाजपत राय जी अपने ग्रंथ ‘भारतवर्ष का इतिहास’ में लिखते हैं :- “हमारे पास यह कहने के लिए यथेष्ट प्रमाण हैं कि आर्य शासन पद्धति में राजा कभी स्वेच्छाचारी नहीं था। उसका कर्तव्य था कि वह पंचायत के निर्णय और राजनियम के अनुसार कार्य करे। आर्य शासन प्रणाली में कानून बनाने का अधिकार कभी राजा को नहीं दिया गया । कानून सदैव राजा से ऊपर समझा जाता था । वह श्रुतियों और स्मृतियों के आधार पर ब्राह्मणों और आम लोगों के निर्णयों के रूप में जारी होता था।
राजा के कर्तव्य ऐसे कठिन होते थे कि यदि उसके राज्य में कोई मनुष्य युवावस्था में मर जाए या दुर्भिक्ष या महामारी फैल जाए तो उसका उत्तरदाता राज्य को समझा जाता था। वरन यहां तक लिखा है कि प्रजा जो पाप करे उसका भी किसी कदर दायित्व राजा पर है।”
भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की यह भी एक अनोखी परंपरा है कि राजा को प्रजा के पापों के लिए भी जिम्मेदार माना जाता था।
यह बात दिखने में तो अटपटी सी लगती है, परंतु इसका भी वैज्ञानिक आधार है। बड़ी मोटी सी कहावत है कि जहाँ बड़े बुजुर्ग गलत रास्ते पर चलने वाले होते हैं, वहाँ संतान का ऐसा ही हो जाना स्वभाविक है । इसलिए यदि किसी राज्य की प्रजा पापाचरण में संलिप्त है तो माना जाएगा कि वहां का राजा भी ऐसे ही पाप कार्यों में संलिप्त होगा। श्री राम ने भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के इस मौलिक तत्व को समझकर अपने आपको हर जगह पाप के ताप से दूर रखने का सराहनीय प्रयास किया।
पंकज कुमार झा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के संदर्भ में बड़े पते की बात कहते हैं :- “संस्कृति और राष्ट्र के संबंधों को एक सरल प्रश्न के द्वारा समझने की कोशिश। एक राष्ट्र के रूप में भारत आखिर कितना पुराना है? क्या कोई भी व्यक्ति यह कहेगा कि भारत मात्र 66 ( जिस समय श्री झा ने यह लिखा, उस समय देश को आजाद हुए 66 वर्ष हुए थे ) वर्ष पुराना राष्ट्र ही है ? तो आज़ादी से पहले अलग-अलग राज्यों में बंटा ढेर सारे आक्रमणकारियों द्वारा अलग-अलग कब्जाये गए ढेर सारे भू-खंड कैसे भारत के रूप में जाने जाते रहे हैं? मेरे दादा जी जिस भारत में रहते थे वह भारत आखिर क्या था और कैसे वह मद्रास और आसाम के साथ कनेक्ट था? जबाब मिलता है कि ‘संस्कृति’ ही वह आधार था जिस पर केरल के किसी कालडी गाँव का युवक शंकर भी मिथिला तक को अपना ही देश मानते हुए हिंदुत्व का जयघोष करने निकल पड़ता है।
ऐसे ही कोई बंगाली युवक नरेन्द्र जब शिकागो पहुंचता है तो वह किसी बंगाल देश का प्रतिनिधि नहीं बल्कि भारत का सांस्कृतिक दूत ही होता है। किसी खेतरी के राजा का आतिथ्य भी वह ‘भारतीय’ के रूप में ही प्राप्त करता है तो उस समय भी खेतरी को नरेन्द्र से जोड़ने वाला एकमात्र कारक ‘संस्कृति’ ही था न ? यह भारत ही है न जिसकी ‘संस्कृति के चार अध्याय’ दिनकर ने लिखे और नेहरू ने जिसकी प्रस्तावना लिखकर उस पर मुहर लगाई थी। इसके अलावा हुड नेहरू जिस ‘भारत की खोज’ करने निकले थे वह भी उस राज्य की खोज तो बिलकुल नहीं कर रहे थे न जो 1947 में अस्तित्व में आना था…है न? तो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आशय यही है कि राष्ट्र का आधार संस्कृति ही होना चाहिए।”
इस संस्कृति की रक्षा करने में रामचंद्र जी जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम का विशेष योगदान है। अतः यह भी मानना पड़ेगा कि उन्होंने भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के निर्माण में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया।
शीतल – मंद- समीर है , राष्ट्रवाद की बयार ।
जो भी इसे अनुभव करे पाता खुशी अपार।।
‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और समसामयिक वातावरण’ विषय पर बोलते हुए डॉ विवेक कुमार निगम (इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज ) ने कहा : -“भारत में राष्ट्र की संकल्पना यूरोप के राष्ट्र की संकल्पना से व्यापक भी है और भिन्न भी है । इसकी भिन्नता का मूल कारण है- सांस्कृतिक तत्त्व का महत्त्व या सांस्कृतिक तत्त्व की भूमिका । यदि हम संस्कृति के स्वरूप पर विचार करें तो हम देखते हैं कि पश्चिमी देशों में कल्चर और सिविलाइज़ेशन का घालमेल कर दिया गया है, किन्तु संस्कृति इससे कहीं अधिक गहरी और प्रभाव रखने वाली है ।
संस्कृति सृजित नहीं होती अपितु स्वत: विकसित होती है । संस्कृति आत्मा तत्त्व है, जिसके विकास की प्रक्रिया में खान-पान के तरीके, पहनावा, भाषाएँ, सामाजिक –आर्थिक व्यवस्थाएं , राजनीतिक प्रणालियाँ सन्निहित हैं और इस विकास की प्रक्रिया में यह आवश्यक है कि सबके बीच सौहार्द बना रहे, स्नेह का भाव हो , करुणा तत्त्व प्रभावी हो । हम यह कह सकते हैं कि विकास की प्रक्रिया में जो उत्तम नवनीत छन कर आता है वह संस्कृति के रूप में दिखाई देता है । उदाहरण के तौर पर प्राचीन भारत में अनेक राज्य एवं जनपद थे किन्तु इन सभी में एक ही मूल तत्त्व स्वीकार किया जाता था- ‘’सर्वं खल्विदं ब्रह्म ‘’ । सृष्टि के कण कण में ईश्वर को देखने की जो संस्कृति विकसित हुई वह जनपद या राज्य की सीमा से बंधी नहीं थी । लोगों में परस्पर भ्रातृभाव भारत की संस्कृति का मूल चिन्तन रहा है । ”
डॉक्टर निगम के वक्तव्य से भी इसी बात को बल मिलता है कि भारत का सांस्कृतिक तत्व ही भारत की वह मौलिक चेतना है जो हमें प्रत्येक प्रकार के संकट से उबार कर बाहर लाने में सहायक होती है । यही सांस्कृतिक चेतना प्रत्येक विपरीत परिस्थितियों में हमारे भीतर एकता का भाव पैदा करती है। इसी सांस्कृतिक विरासत के कारण हम एक राष्ट्र के रूप में स्थापित रह सके और जब देश अनेकों में बंटा हुआ था तब भी हम एक राष्ट्र के रूप में अप्रत्याशित रूप से जीवित रहने और अपने अस्तित्व को बचाए रखने में सफल रहे। यदि श्रीराम हमें संस्कृति विनाशकों और राष्ट्र के शत्रुओं से लड़ने की प्रेरणा न देते तो हम इतनी देर तक और इतनी दूर तक अपने राष्ट्र की रक्षा करने में सफल ना हुए होते।
अपने व्याख्यान को आगे बढ़ाते हुए डॉ. निगम ने यह भी कहा कि- “राष्ट्रवाद की अवधारणा के सम्बन्ध में एक और बात ध्यान रखने की है कि भारत में ‘वाद’ जैसे तत्त्व का बोध न था, न कराया गया अपितु यह तो पश्चिम से आया है । लेकिन चूँकि राष्ट्रवाद एक लोकप्रिय शब्द बन गया जिसे हम भी गृहीत कर लेते हैं किन्तु भारत में राष्ट्र के सम्बन्ध में जो समझने की बात है वह है- ‘राष्ट्रतत्त्व’ । यह राष्ट्रतत्व सबको साथ लेकर चलने वाला है, यह विश्व मानवता के कल्याण की चिंता करने वाला है । यही कारण है कि भारत में राष्ट्र की जो संकल्पना है उसमें एकत्वदृष्टि है, वह टकराव को कभी जन्म नहीं देती है । भारत का राष्ट्र चिंतन भारत के सांस्कृतिक चिंतन के अनुरूप रहा है । भारत के सांस्कृतिक चिंतन में जो ‘’एकं सद् विप्रा: बहुधा वदन्ति’’ की भावना रही है जिसका यह प्रभाव रहा कि यहाँ आक्रमणप्रधान पाश्चात्य राष्ट्रचिंतन के विपरीत समन्वय एवं सौहार्द का प्रसार किया गया है । भारतीय राष्ट्रतत्त्व के चिंतन में सम्पूर्ण विश्व के विकास की संकल्पना है।
इस समन्वयवादी चिन्तन की कालान्तर में हुई दुर्गति पर चिन्ता जाहिर करते हुए डॉ. निगम ने कहा कि दुर्भाग्य यह रहा है कि लम्बे ब्रिटिश शासन के कारण भारत के राष्ट्र एवं सांस्कृतिक चिंतन तथा शिक्षापद्धति में प्रयासपूर्वक विकृतियां उत्पन्न की गई। जिसका असर यह रहा कि हमारा मूल चिन्तन अगली पीढ़ियों के मन-मष्तिष्क से विलुप्त होता गया या उसका प्रभाव क्षीण होता गया ।”
ऐसी परिस्थितियों में भारत के परंपरागत सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पुनः व्याख्या किए जाने की आवश्यकता है। इसमें आए किसी भी प्रकार के दोगलेपन को समाप्त किया जाना आवश्यक हो गया है। यदि कोई राष्ट्रवाद स्वसंस्कृति, स्वधर्म, स्वराष्ट्र, स्वराज्य की रक्षा नहीं कर सकता तो उसे राष्ट्रवाद नहीं कहा जा सकता। जो लोग भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में किसी भी प्रकार की सांप्रदायिकता देखते हैं केवल उन्हें खुश करने के लिए अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता। धर्मनिरपेक्षता की गलत परिभाषा के चलते हमने अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को खोखला कर दिया है। इससे बड़ी विडंबना और कोई हो नहीं सकती। जितना शोर इस बात को लेकर मचाया जाता है कि हम सबको साथ लेकर चलेंगे, उतना प्रयास यदि इस बात पर किया जाए कि जो लोग सबके साथ चलने के अभ्यासी नहीं हैं और अपना ढाई चावल अलग पकाने के आदी हो चुके हैं, उन्हें साथ चलना पड़ेगा। यदि ऐसा होता है तो भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का रंग अपने पूरे निखार पर होगा।
स्वाधीनता के पश्चात हमने यह बहुत बड़ी गलती की है कि जो लोग अपना ढाई चावल अलग पकाने के आदी हैं हमने अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को उन्हीं के चरणों में ला पटका है। इतना ही नहीं हमने उनसे यह भी कह दिया है कि इसे आप जितना भी दोगला कर सकते हो, कर लो। हमें कोई आपत्ति नहीं है , पर हमारे साथ चलो। हम सोच रहे थे कि इस प्रकार के आत्मसमर्पण के चलते इन लोगों का हृदय परिवर्तन होगा। पर हमारे इस आत्मसमर्पण के भाव ने उल्टे हमको अपने साथ लगाने का काम करना आरंभ कर दिया। जिससे रामचंद्र जी की परंपरा, उनकी मान्यता और उनके द्वारा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के लिए किए गए महान कार्य हमसे दूर होते चले गए। हमने रामचंद्र जी को अपनी पाठ्य पुस्तकों ,साहित्य और राजनीति सहित समाज के प्रत्येक क्षेत्र से दूर कर केवल मंदिरों तक सीमित कर दिया। इसके साथ ही यह मान्यता भी रूढ़ हो गई कि रामचंद्र जी और रामायण सब काल्पनिक हैं। किसी कवि ने कितना सुंदर कहा है :-
“आजादी के संग्राम का अब तांडव मचाने आया हूँ।
खाली हाथ नहीं आया साथ कफन भी लाया हूँ।।
मंद हवा थम चुकी अब तूफान आने को हैं
सब्र का बांध टूट चुका सैलाब आने को हैं
दिल दहला देने वाला मंजर खड़ा कर दूंगा
और इंतजार नहीं अब इंकलाब आने को हैँ।”
सचमुच जिन लोगों ने स्वाधीनता के पश्चात हमारे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को दोगलेपन की चादर ओढाई है वे सभी पाप के भागी हैं ।क्योंकि दोगलेपन की इस चादर ने राष्ट्र का बहुत भारी अहित कर दिया है। दुख इस बात का है कि सब कुछ समझकर भी अनेकों राजनीतिक दल और राजनेता अभी भी सच को समझने के लिए तैयार नहीं हैं। यद्यपि वह सब कुछ जानते हैं कि उन्होंने जिस दिशा में आगे बढ़ना आरंभ किया था, वह दिशा गलत सिद्ध हो चुकी है। इसके उपरांत भी वह गलत दिशा में बढ़ते चले जा रहे हैं।
अब हमें इस दोगलेपन को समझना ही होगा कि गांधीजी जिस गीता को हाथ में लेकर अहिंसा की बात करते थे और जिसके बारे में वह हमें यह समझाते रहे कि गीता अहिंसा का उपदेश देती है उस गीता का वास्तविक उपदेश क्या था ? गीता के वास्तविक उपदेश को समझने के लिए हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि इसे समझ व सुनकर ही शत्रुओं के विनाश के लिए अर्जुन युद्ध के लिए सन्नद्ध हुआ था । गीता शांति ,सद्भाव, प्रगति और उन्नति का संदेश देती है तो उसका यह संदेश तभी सार्थक सिद्ध हो पाता है जब अर्जुन शत्रुओं के शरसंधान के लिए सन्नद्ध हो उठता है और उसमें सफलता भी प्राप्त कर लेता है।
जब तक शत्रुओं के शरसंधान नहीं होते, तब तक शांति, उन्नति और प्रगति का मार्ग प्रशस्त नहीं होता।
हमें श्री महेंद्र प्रताप सिंह उप वन संरक्षक उत्तर प्रदेश के इस कथन पर भी विचार करना चाहिए। उन्होंने अपने एक बहुत ही शानदार और तथ्यात्मक आलेख में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा श्री राम के प्रकृति प्रेमी होने की भावना पर भी प्रकाश डाला है। वह कहते हैं कि : – “उस समय लोग प्रकृति के विभिन्न अवयवों को परिवार की सीमा के अन्तर्गत ही मानते थे। इस सम्बन्ध में एक उदाहरण चित्रकूट में राम भरत मिलन के समय मिलता है। श्री राम अपने दुखी भाई भरत से पूछते हैं कि उनके दु:खी होने का क्या कारण है? क्या उनके राज्य में वन क्षेत्र सुरक्षित हैं? अर्थात वन क्षेत्रों के सुरक्षित न रहने पर पहले लोग दुखी एवं व्याकुल हो जाया करते थे। वाल्मीकि रामायण में वर्णित उदाहरण निम्न प्रकार है-
कच्चिन्नागवनं गुप्तं कच्चित् ते सन्ति धेनुकाः।
कच्चिन्न गणिकाश्वानां कुन्जराणां च तृप्यसि।। (2/100/50)
जहाँ हाथी उत्पन्न होते हैं, वे जंगल तुम्हारे द्वारा सुरक्षित हैं न? तुम्हारे पास दूध देने वाली गाएँ तो अधिक संख्या में हैं न? (अथवा हाथियों को फँसाने वाली हथिनियों की तो तुम्हारे पास कमी नहीं है?) तुम्हें हथिनियों, घोड़ों और हाथियों के संग्रह से कभी तृप्ति तो नहीं होती? अनेक स्थानों पर वाल्मीकि जी ने पर्यावरण संरक्षण के प्रति संवेदनशीलता को रेखांकित किया है। श्री भरत जी अपने सेना एवं आयोध्यावासियों को छोड़कर मुनि के आश्रम में इसलिये अकेले जाते हैं कि आस-पास के पर्यावरण को कोई क्षति न पहुँचे-
ते वृक्षानुदकं भूमिमाश्रमेषूटजांस्तथा। न हिंस्युरिति तेवाहमेक एवागतस्ततः।। (2/91/09)
वे आश्रम के वृक्ष, जल, भूमि और पर्णशालाओं को हानि न पहुँचायें, इसलिये मैं यहाँ अकेला ही आया हूँ। पर्यावरण की संवेदनशीलता का यह एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
रामराज्य पर्यावरण की दृष्टि से अत्यन्त सम्पन्न था। मजबूत जड़ों वाले फल तथा फूलों से लदे वृक्ष पूरे क्षेत्र में फैले हुये थे-
नित्यमूला नित्यफलास्तरवस्तत्र पुष्पिताः। कामवर्षी च पर्जन्यः सुखस्पर्शैं मरुतः।। (6/128/13)
श्री राम के राज्य में वृक्षों की जड़ें सदा मजबूत रहती थीं। वे वृक्ष सदा फूलों और फलों से लदे रहते थे। मेघ प्रजा की इच्छा और आवश्यकता के अनुसार ही वर्षा करते थे। वायु मन्द गति से चलती थी, जिससे उसका स्पर्श सुखद जान पड़ता था।”
उपरोक्त वर्णित तथ्यों से स्पष्ट होता है कि श्रीराम का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद एकांगी ना होकर बहुआयामी है। उन्होंने जीवन और जगत के प्रत्येक क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित किए। इसीलिए वह मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में हमारे लिए समादरणीय बने।
डॉ राकेश कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत