मैं- मेरे पर हो रहा,
इस जग में घमासान।
तू- तेरे के भाव से,
खुश होते भगवान॥1635॥ व्याख्या:- विश्व के परिदृश्य पर एक समग्र दृष्टि डालें तो प्रतीत होता है संसार में लोग सुखी कम है दु:खी ज्यादा है किन्तु फिर भी लोग जीना चाहते हैं ऐसा क्यों ? ऐसा इसलिए है व्यक्ति की मूल प्रवृत्ति है – अहंकार वह दूसरों पर अधिपत्य अथवा वर्चस्व जमाना चाहता है। इसे ही भगवान कृष्ण ने गीता में अंहता अर्थात मेंपन की भावना कहा है। वह प्रत्येक क्रिया में स्वयं को कर्त्ता मानता है जबकि कर्त्ता तो स्वयं परमपिता परमात्मा है, व्यक्ति तो केवल निमित्त है।
इसके अतिरिक्त मनुष्य के मन में मेरेपन का भाव प्रचुरता में है, जिससे मोह उत्पन्न होता है। महाभारत जैसा युद्ध धृतराष्ट्र के पुत्रमोह के कारण ही तो हुआ था। अधिकांशत: निष्कर्ष यही निकलता है कि संसार में विवाद चाहे व्यक्तिगत हो, पारिवारिक हो, जातिगत हो,संप्रदायिक हो दो देश या दो से अधिक देशों में वैश्विक स्तर विवाद हो मूल में वर्चस्व की प्रतिस्पर्धा अथवा सम्मोह बहुत ही होता है।
काश!संसार में ‘मैं’ (अहंता) मेरे (ममता) के संघर्ष के स्थान पर ‘तू’ (भगवान) अर्थात भगवान को कर्त्ता मानना और अहंकार शुन्य होकर स्वयं को निमित्त मानना तथा जीवन में विभिन्न प्रकार की उपलब्धियों अथवा विभूतियो (विलक्षणताओं) को प्रभु-प्रदत्त मानना और ही सरल शब्दों में कहे, तो हृदय में यह भाव रखना – ” मैं प्रभु का हूं और प्रभु मेरे है।” मेरे जीवन की सारी ऊर्जा अर्पण, दर्पण और समर्पण में लगे अर्थात् ऐसे कर्मों में व्यतीत हो जिससे परमपिता परमात्मा प्रसन्न हो जाय। काश ! हम जीवन के मूल- मंत्र को आचरण में लायें और प्रभु के कृपा-पात्र बन जायें।
क्रमशः