25 दिसम्बर/जन्म-दिवस : हिन्दुत्व के आराधक महामना मदनमोहन मालवीय
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का नाम आते ही हिन्दुत्व के आराधक पंडित मदनमोहन मालवीय जी की तेजस्वी मूर्ति आँखों के सम्मुख आ जाती है। 25 दिसम्बर, 1861 को इनका जन्म हुआ था। इनके पिता पंडित ब्रजनाथ कथा, प्रवचन और पूजाकर्म से ही अपने परिवार का पालन करते थे।
प्राथमिक शिक्षा पूर्णकर मालवीय जी ने संस्कृत तथा अंग्रेजी पढ़ी। निर्धनता के कारण इनकी माताजी ने अपने कंगन गिरवी रखकर इन्हें पढ़ाया। इन्हें यह बात बहुत कष्ट देती थी कि मुसलमान और ईसाई विद्यार्थी तो अपने धर्म के बारे में खूब जानते हैं; पर हिन्दू इस दिशा में कोरे रहते हैं।
मालवीय जी संस्कृत में एम.ए. करना चाहते थे; पर आर्थिक विपन्नता के कारण उन्हें अध्यापन करना पड़ा। उ.प्र. में कालाकांकर रियासत के नरेश इनसे बहुत प्रभावित थे। वे ‘हिन्दुस्थान’ नामक समाचार पत्र निकालते थे। उन्होंने मालवीय जी को बुलाकर इसका सम्पादक बना दिया। मालवीय जी इस शर्त पर तैयार हुए कि राजा साहब कभी शराब पीकर उनसे बात नहीं करेंगे। मालवीय जी के सम्पादन में पत्र की सारे भारत में ख्याति हो गयी।
पर एक दिन राजासाहब ने अपनी शर्त तोड़ दी। अतः सिद्धान्तनिष्ठ मालवीय जी ने त्यागपत्र दे दिया। राजासाहब ने उनसे क्षमा माँगी; पर मालवीय जी अडिग रहे। विदा के समय राजासाहब ने यह आग्रह किया कि वे कानून की पढ़ाई करें और इसका खर्च वे उठायेंगे। मालवीय जी ने यह मान लिया।
दैनिक हिन्दुस्थान छोड़ने के बाद भी उनकी पत्रकारिता में रुचि बनी रही। वे स्वतन्त्र रूप से कई पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे। इंडियन यूनियन, भारत, अभ्युदय, सनातन धर्म, लीडर, हिन्दुस्तान टाइम्स….आदि हिन्दी व अंग्रेजी के कई समाचार पत्रों का सम्पादन भी उन्होंने किया।
उन्होंने कई समाचार पत्रों की स्थापना भी की। कानून की पढ़ाई पूरी कर वे वकालत करने लगे। इससे उन्होंने प्रचुर धन अर्जित किया। वे झूठे मुकदमे नहीं लेते थे तथा निर्धनों के मुकदमे निःशुल्क लड़ते थे। इससे थोड़े ही समय में ही उनकी ख्याति सर्वत्र फैल गयी। वे कांग्रेस में भी बहुत सक्रिय थे।
हिन्दू धर्म पर जब भी कोई संकट आता, मालवीय जी तुरन्त वहाँ पहुँचते थे। हरिद्वार में जब अंग्रेजों ने हर की पौड़ी पर मुख्य धारा के बदले बाँध का जल छोड़ने का षड्यन्त्र रचा, तो मालवीय जी ने भारी आन्दोलन कर अंग्रेजों को झुका दिया। हर हिन्दू के प्रति प्रेम होने के कारण उन्होंने हजारों हरिजन बन्धुओं को ॐ नमः शिवाय और गायत्री मन्त्र की दीक्षा दी। हिन्दी की सेवा और गोरक्षा में उनके प्राण बसते थे। उन्होंने लाला लाजपतराय और स्वामी श्रद्धानन्द के साथ मिलकर ‘अखिल भारतीय हिन्दू महासभा’ की स्थापना भी की।
मालवीय जी के मन में लम्बे समय से एक हिन्दू विश्वविद्यालय बनाने की इच्छा थी। काशी नरेश से भूमि मिलते ही वे पूरे देश में घूमकर धन संग्रह करने लगे। उन्होंने हैदराबाद और रामपुर जैसी मुस्लिम रियासतों के नवाबों को भी नहीं छोड़ा। इसी से लोग उन्हें विश्व का अनुपम भिखारी कहते थेे।
अगस्त 1946 में जब मुस्लिम लीग ने सीधी कार्यवाही के नाम पर पूर्वोत्तर भारत में कत्लेआम किया, तो मालवीय जी रोग शय्या पर पड़े थे। वहाँ हिन्दू नारियों पर हुए अत्याचारों की बात सुनकर वे रो उठे। इसी अवस्था में 12 नवम्बर, 1946 को उनका देहान्त हुआ। शरीर छोड़ने से पूर्व उन्होंने अन्तिम संदेश के रूप में हिन्दुओं के नाम बहुत मार्मिक वक्तव्य दिया था।
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25 दिसम्बर/जन्म-दिवस
हिन्दुत्व के प्रचारक महानामव्रत जी
श्री महानामव्रत जी का जन्म ग्राम खालिसकोटा (जिला बारीसाल, वर्तमान बांग्लादेश) में 25 दिसम्बर, 1904 को हुआ था। उनका बचपन का नाम बंकिम था। वे अपने धर्मप्रेमी माता-पिता की तीसरी सन्तान थे। बंकिम को उनसे बाल्यावस्था में ही रामायण, महाभारत और अन्य धर्मग्रन्थों का ज्ञान मिल गया था। लगातार अध्ययन से पिता कालीदास जी की आँखों की ज्योति चली गयी। ऐसे में बंकिम उन्हें धर्मग्रन्थ पढ़कर सुनाने लगेे।
वे एक प्रतिभावान छात्र थे। उन्होंने कक्षा आठ तक पढ़ाई की और फिर गांधी जी की अपील पर असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े। इसके तीन साल बाद वे श्रीजगद्बन्धु प्रभू के अनुयायी बने। श्रीजगद्बन्धु प्रभू एक अंधेरी कोठरी में सात साल एकान्त साधना कर बाहर आये थे। तब हजारों लोग उनकी एक झलक देखने के लिए एकत्र हुए थे। बंकिम पैदल ही घर से 125 कि.मी. दूर वहाँ गये। उनके दर्शन से वे अभिभूत हो उठे।
जगद्बन्धु प्रभू के देहान्त के बाद बंकिम ने संन्यासी बनने का निश्चय किया। उनके बीमार पिता ने यह सुनकर उसी समय देह त्याग दी। इसके बाद वे श्री जगद्बन्धु के अनुयायी और महानाम सम्प्रदाय के संस्थापक अध्यक्ष श्रीपाद महेन्द्र जी के चरणों में गयेे। महेन्द्र जी ने उन्हें घर जाकर हाईस्कूल की परीक्षा देने को कहा।
यद्यपि उन्होंने तीन साल से पढ़ाई छोड़ दी थी। फिर भी कठोर परिश्रम कर उन्होंने परीक्षा दी और छात्रवृत्ति प्राप्त की। वह तब केवल 17 साल के थे। इसके बाद वे विधिवत महानाम सम्प्रदाय के संन्यासी बन गये। उनका संन्यास का नाम श्रीमहानामव्रत ब्रह्मचारी हुआ।
महेन्द्र जी की प्रेरणा से उन्होंने बी.ए. और एम.ए. की परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं। 1932 में उन्होंने दर्शनशास्त्र से विशेष योग्यता लेकर एम.ए. किया। परिणाम आने से पूर्व ही एक सम्मेलन में भाग लेने वे शिकागो चले गये। वहाँ उनके भाषणों से सब बहुत प्रभावित हुए। लोगों ने उन्हें अमरीका में ही रहने का आग्रह किया; पर उनका वीसा केवल तीन मास का ही था। कुछ प्रभावी लोगों ने उनको शिकागो विश्वविद्यालय में पी-एच.डी. हेतु प्रवेश दिलवा दिया। इससे उनका वीसा छात्र-वीसा में बदल गया।
1936 में वे एक वैश्विक सम्मेलन हेतु लन्दन गये। वहाँ भी उनके भाषणों की धूम मच गयी। 1937 मंे उन्हें चैतन्य महाप्रभु के शिष्य श्री जीव गोस्वामी के दर्शन पर शोध के लिए पी-एच.डी दी गयी। इसी वर्ष उन्हें विश्व अनुयायी संघ का सचिव पद दिया गया। इस नाते अमरीका, यूरोप और कनाडा में उन्होंने हिन्दू धर्म का प्रचार किया। उन्होंने अमरीका के 29 विश्वविद्यालयों में अतिथि प्राध्यापक के नाते भाषण दिये। वे निःसंकोच क्लब और चर्च में जाकर भी हिन्दू धर्म के बारे में लोगों को बताते थे।
श्री महानामव्रत जी सदा संन्यासी वेष में रहते थे।1939 में भारत लौटकर उन्होंने अपना जीवन वेद, गीता, श्रीमद्भागवत, श्री जगद्बन्धु प्रभु व श्री चैतन्य देव की शिक्षा के प्रचार में समर्पित कर दिया।
पूर्वी पाकिस्तान बनने पर अधिकांश हिन्दू संस्थाओं ने वह देश छोड़ दिया; पर श्री महानामव्रत जी वहीं रहकर धर्म का प्रचार करते रहे। बांग्लादेश मुक्ति संघर्ष में उनके आठ युवा शिष्य बलिदान हुए। उनकी पुस्तकें गौर कथा, चण्डी चिन्तन, उद्धव सन्देश तथा गीता, उपनिषद और श्रीमद्भागवत की व्याख्याएँ असाधारण हैं।
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25 दिसम्बर/पुण्य-तिथि
वैश्विक स्वयंसेवक जगदीश शास्त्री
वर्ष 1946 के सितम्बर मास में एक यात्री जहाज ‘एस.एस.वसना’ मुंबई से केन्या की ओर चला। इसमें गांव छारिक (मोगा, पंजाब) निवासी स्वयंसेवक 24 वर्षीय जगदीश चंद्र शारदा भी थे। पांचवें दिन डेक पर घूमते हुए उन्होंने संघ की खाकी निक्कर पहने एक युवक को देखा। वे थे गुजरात के 19 वर्षीय माणिक लाल रूघाणी। फिर क्या था; दोनों हर्ष से गले लिपट गये। अस्त हो रहे सूर्य को साक्षी मानकर दोनों ने ‘‘नमस्ते सदा वत्सले’’ प्रार्थना की। इस प्रकार सितम्बर 1946 में समुद्र की लहरों पर पहली सागरपारीय शाखा लगी।
इसके बाद तो फिर रोज शाखा लगने लगी। मोम्बासा पहुंचते तक शाखा की संख्या 17 हो गयी। वहां जाकर उन्होंने अन्य हिन्दुओं से संपर्क किया और मकर संक्रांति 1947 को विधिवत शाखा और ‘भारतीय स्वयंसेवक संघ’ की स्थापना की। इसके मूलाधार जगदीश चन्द्र शारदा ने 1938 में संस्कृत में ‘शास्त्री’ की उपाधि ली थी। वे नैरोबी के सनातन धर्म गर्ल्स स्कूल में हिन्दी तथा संस्कृत पढ़ाने जा रहे थे। कुछ साल बाद उन्हें केन्या के शिक्षा विभाग में पक्की नौकरी मिल गयी। 1977 में उन्होंने वहां से अवकाश लिया।
केन्या में हिन्दू काफी समय से रह रहे थे। भाषा, राज्य, जाति और रोजगार पर आधारित उनकी 147 संस्थाएं वहां थीं; पर कोई उनकी सुनता नहीं था। शास्त्री जी ने सबसे मिलकर ‘हिन्दू काउंसिल ऑफ केन्या’ का गठन किया। कुछ साल में ये हिन्दुओं की प्रमुख संस्था बन गयी और उनकी बात सुनी जाने लगी। संकट में उन्हें इससे सहारा मिलने लगा। आगे चलकर नैरोबी में ‘दीनदयाल भवन’ बना, जो सभी हिन्दू गतिविधियों का केन्द्र बन गया।
धीरे-धीरे केन्या के कई नगरों में शाखा खुल गयीं। उसमें सब तरह के लोग आने लगे। इससे संघ की प्रतिष्ठा और शासन में प्रभाव बढ़ा। दीवाली को राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया गया। ¬ का डाक टिकट जारी हुआ और स्कूलों में हिन्दू धर्म पर एक पाठ पढ़ाया जाने लगा। पहले स्थानीय गुंडों के कारण कई हिन्दू व्यापारी देश छोड़ जाते थे; पर अब ऐसी चर्चा होने पर शासक ही उन्हें रोक लेते थे। इसमें सबसे प्रमुख भूमिका शास्त्री जी की ही थी।
केन्या के बाद मॉरीशस, इंग्लैंड और कनाडा में विभिन्न नामों से संघ का काम शुरू हुआ। अवकाश लेकर शास्त्री जी अपने बेटे के पास कनाडा में रहने लगे। संघ में विश्व विभाग के गठन के बाद उनके संपर्कों का खूब लाभ मिला। वे कनाडा में इसका केन्द्रीय कार्यालय संभालते थे। वे विश्व विभाग के जीवंत कोश थे। 1987 में केन्या में भारतीय स्वयंसेवक संघ की 40 वीं वर्षगांठ पर हुए शिविर में शास्त्री जी और रूघाणी जी, दोनों उपस्थित थे। 1989 में डा. हेडगेवार की जन्मशती पर संघ का काम युवाओं को सौंपकर शास्त्री जी ‘हिन्दू विद्या मंदिर’ (हिन्दू इंस्टीट्यूट ऑफ लर्निंग) के काम में लग गये।
शास्त्री जी विदेशस्थ स्वयंसेवकों एवं भारतीयों को भारत की यात्रा के लिए प्रेरित करते थे, जिससे वे अपने धर्म, संस्कृति और पूर्वजों से जुड़े रहें। विश्व विभाग के हर शिविर में वे आते थे। 2010 के पुणे शिविर में तो वे पहिया कुर्सी पर ही घूमकर सबसे मिले। वहां हर कोई उनके साथ एक फोटो जरूर खिंचवाना चाहता था। उन्होंने भी किसी को मना नहीं किया। कोई उनके गिरते स्वास्थ्य की चिंता करता, तो वे ‘प्रभु इच्छा’ कहकर हंस देते थे।
शास्त्री जी 1940 में अमृतसर में स्वयंसेवक बने और 1942 में संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण प्राप्त किया। वे प्रसिद्धि से दूर रहकर दूसरों को श्रेय देते थे। अतः हर जगह नये और युवा कार्यकर्ताओं की टीम खड़ी हो गयी। 96 वर्ष की भरपूर आयु में 25 दिसम्बर, 2017 को कनाडा में उनका निधन हुआ। संघ के वैश्विक विस्तार में उनका योगदान अविस्मरणीय है।
(आर्गनाइजर 7.1.18, मैमोरीज ऑफ ए ग्लोबल हिन्दू, कृ.रू.सं.द/6)
25 दिसम्बर/जन्म-दिवस
गुनाहों का देवता डा. धर्मवीर भारती
सत्तर और अस्सी के दशक में हिन्दी साहित्याकाश में साप्ताहिक पत्रिका ‘धर्मयुग’ सूर्य की तरह पूरे तेज से प्रकाशित होती थी। उसमें रचना छपते ही लेखक का कद रातोंरात बढ़ जाता था। उस समय के सैकड़ों ऐसे लेखक हैं, जिन्होंने धर्मयुग से पहचान और प्रसिद्धि पाई। छपाई की पुरानी तकनीक के दौर में भी धर्मयुग की प्रसार संख्या पांच लाख के लगभग थी। इसका अधिकांश श्रेय यदि किसी को देना हो, तो वे थे उसके यशस्वी सम्पादक धर्मवीर भारती।
धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसम्बर, 1926 को प्रयाग (उ.प्र.) में हुआ था। भारती को पढ़ने का बहुत शौक था। वे विद्यालय से सीधे पुस्तकालय जाते थे; पर अर्थाभाव के कारण वे किसी पुस्तकालय के सदस्य नहीं बन सके। उनकी यह लगन देखकर एक पुस्तकालय के प्रबन्धक उन्हें पांच दिन के लिए निःशुल्क पुस्तकें देने लगे। इस प्रकार भारती ने हजारों पुस्तकें पढ़ डालीं।
प्रयाग वि.वि. से प्रथम श्रेणी में एम.ए. करने के बाद उन्होंने 1946 में डा. धीरेन्द्र वर्मा के निर्देशन में सिद्ध साहित्य पर शोध प्रबन्ध लिखकर पी-एच.डी. की उपाधि ली तथा पहले हिन्दुस्तानी अकादमी में और फिर वि.वि. में ही प्राध्यापक हो गये। उन दिनों हिन्दी साहित्य की राजधानी प्रयाग ही थी। वहां की साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय रहते हुए वे अभ्युदय, संगम, निकष, आलोचना आदि पत्रिकाओं तथा हिन्दी साहित्य कोश के सम्पादन से सम्बद्ध रहे।
1960 से 1987 तक वे धर्मयुग’ के सम्पादक रहे। ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ समूह की यह पत्रिका उन दिनों मुंबई से प्रकाशित होती थी। प्रबन्धकों ने उनसे आश्वासन चाहा कि सम्पादक रहते हुए वे निजी लेखन नहीं करेंगे; पर धर्मवीर भारती ने इस ठुकरा दिया और अपनी शर्तों पर ही काम किया।
धर्मवीर भारती को सम्पादन में प्रबन्धकों का हस्तक्षेप पसंद नहीं था। उनके सम्पादन में पत्रिका ने नये कीर्तिमान स्थापित किये। उसमें साहित्य और समाचारों का सुंदर समन्वय होता था। बांग्लादेश मुक्ति संग्राम की रिपोर्टिंग के लिए कोलकाता से विष्णुकांत शास्त्री को साथ लेकर वे स्वयं गये थे। 1971 में हुए युद्ध में भी सीमा पर जाकर उन्होंने वहां से जीवंत समाचार भेजे।
धर्मवीर भारती सिद्धांतवादी व्यक्ति थे। 1974-75 में बिहार में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान जब जयप्रकाश नारायण को गिरफ्तार किया गया, तो इसके विरोध में लिखी गयी उनकी कविता ‘मुनादी’ बहुत चर्चित हुई। बिहार आंदोलन को वे भारतीय राजनीति का महत्वपूर्ण मोड़ मानते थे। अतः अपने संस्थान के दबाव के बावजूद उन्होंने इसके बारे में लिखने के लिए एक संवाददाता गणेश मंत्री को बिहार भेजा। बिनोबा द्वारा आपातकाल को ‘अनुशासन पर्व’ कहने पर भी उन्होंने कविता लिखकर विरोध किया।
ऐसा कहते हैं कि भारती की बढ़ती लोकप्रियता से उनके प्रकाशन समूह को असुविधा होने लगी। अतः 1987 में भारती ने यह पदभार छोड़ दिया।
धर्मवीर भारती ने साहित्य की हर विधा में प्रचुर लेखन किया। महाभारत तथा द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका पर आधारित पद्य नाटक ‘अंधा युग’ का मंचन अलग-अलग निर्देशकों द्वारा आज भी किया जाता है। ‘गुनाहों का देवता’ उनका सार्वकालिक उपन्यास है, जिसके नये संस्करण लगातार छप रहे हैं।
इसके अतिरिक्त कनुप्रिया, सूरज का सातवां घोड़ा, मुर्दों का गांव, स्वर्ग और पृथ्वी, चांद और टूटे हुए लोग, बंद गली का आखिरी मकान, ग्यारह सपनों का देश, ठेले पर हिमालय, पश्यंती.. आदि उनकी चर्चित पुस्तकें हैं।
साहित्य और कला जगत के अनेक सम्मानों के साथ ही ‘पद्मश्री’ से विभूषित डा. धर्मवीर भारती का चार सितम्बर, 1997 को देहांत हुआ।
(संदर्भ : प्रभासाक्षी 25.12.2009/दैनिक जागरण 27.12.2007)
25 दिसम्बर/पुण्य-तिथि
भीमसेन राव देशपांडे : पांडन्ना
आंध्र प्रदेश के संघ कार्य में अपना जीवन लगाने वाले श्री भीमसेन राव देशपांडे (पांडन्ना) का जन्म 1951 में ग्राम मोगीली गिद्दा (महबूब नगर) में हुआ था। इनके बड़े भाई स्वयंसेवक थे। अतः उनके साथ ये भी शाखा जाने लगे। महबूब नगर से सिविल अभियन्ता का तीन वर्षीय डिप्लोमा लेकर 1972 में भीमसेन जी व्यावहारिक प्रशिक्षण के लिए विजयवाड़ा आये। यहां संघ से उनकी निकटता बढ़ी और वे प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग में गये। वर्ग के बाद उन्होंने प्रचारक बनकर संघ कार्य करने का निश्चय किया।
प्रारम्भ में इन्हें श्रीकाकुलम जिले में बोब्बीली नगर का कार्य दिया गया। 1973 और 74 में द्वितीय तथा तृतीय वर्ष का संघ प्रशिक्षण करने के बाद इन्हें श्रीकाकुलम जिले का प्रचारक बनाया गया। आपातकाल में ये ‘मीसा’ के अन्तर्गत केन्द्रीय कारागार, हैदराबाद में बंद रहे। पांडन्ना की पढ़ने और लिखने में भरपूर रुचि थी। इसके साथ ही उनका हस्तलेख भी बहुत सुंदर था। जेल की गतिविधियों का एक हस्तलिखित पत्रक बनाकर ये गुप्त रूप से बाहर भेजते थे, जहां साइक्लोस्टाइल यंत्र पर उसकी हजारों प्रतियां बनाकर वितरित की जाती थीं।
प्रतिबंध समाप्ति के बाद वे नेल्लूर और अनंतपुर में जिला प्रचारक रहने के बाद 1981 से 89 तक मुस्लिम बहुल पुराने हैदराबाद में प्रचारक रहे। यहीं इनका नाम पांडन्ना (पांडे + अन्ना) प्रचलित हुआ। तेलुगु में अन्ना का अर्थ बड़ा भाई होता है। गायन और योगासन में इनकी विशेष रुचि थी। 1989 में पांडन्ना राजमुन्द्री विभाग प्रचारक तथा 1997 में पूर्व आंध्र प्रांत के प्रचार प्रमुख बनाये गये। करगिल युद्ध के समय पूर्व आंध्र के जो सैनिक सीमा पर लड़े थे, वे उनके गांवों में गये। उनके परिजनों से वार्ता की, चित्र लिये और विजयवाड़ा से प्रकाशित होने वाले ‘जागृति’ साप्ताहिक में छपवाये।
युद्ध के बाद वहां बलिदान हुए पद्मपणि आचार्य की माता जी का कई स्थानों पर सम्मान करवाया तथा करगिल युद्ध की चित्र प्रदर्शनी लगाई। इस प्रकार उन्होंने सैनिकों और शेष समाज को जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया। उड़ीसा में तूफान आने पर वहां सेवा हेतु आंध्र से गये स्वयंसेवकों के साथ जाकर पांडन्ना ने वहां के चित्र और जानकारी समाचार पत्रों को भेजी।
2000 ई. में जागृति साप्ताहिक का प्रकाशन विजयवाड़ा के बदले हैदराबाद से होने पर उन्हें उसके सम्पादकीय मंडल में शामिल किया गया। पांडन्ना अंग्रेजी व हिन्दी से तेलुगू में बहुत सुंदर अनुवाद करते थे। प्रांत के सभी प्रमुख कार्यक्रमों की जानकारी इनकी कलम से सबको मिलती थी। ये ‘सीता’ उपनाम से लिखते थे, जो इनकी माता जी का नाम था। श्री गुरुजी जन्मशती के समय ‘जन्मशती उत्सव: प्रगति पथ में मील का पत्थर’ शीर्षक से उनके 24 लेख छपे। इसमें उन्होंने डा. हेडगेवार जन्मशती कार्यक्रमों द्वारा संघ कार्य में हुई वृद्धि को दर्शाया था। ‘श्री गुरुजी दर्शनम्’ शीर्षक से भी 11 लेख छपे।
2005 ई. में उन्हें पश्चिम आंध्र में धर्म जागरण का कार्य दिया गया। उन्होंने सन्तों का ग्रामीण क्षेत्र में प्रवास कराया। सैकड़ों हनुमान मंदिर बनवाये तथा बच्चों को हनुमान के लाकेट बंटवाये। इससे धर्मान्तरण पर रोक लगी।
25 दिसम्बर, 2009 को मोटरसाइकिल से जाते हुए अचानक उन्होंने सीने में दर्द तथा ठंड का अनुभव किया। इन्हें तुरंत अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां हुए तेज हृदयाघात से उनके प्राण पखेरू उड़ गये। इस प्रकार हंसमुख, परिश्रमी, मित्र तथा सात्विक स्वभाव के एक प्रचारक का जीवन पूर्ण हुआ।
(संदर्भ : कोटेश्वर जी, विहिप) इस प्रकार के भाव पूण्य संदेश के लेखक एवं भेजने वाले महावीर सिघंल मो 9897230196