तब उद्घव गलती कहां कर रहे थे? यदि इस प्रश्न पर चिंतन किया जाए तो उद्घव की सबसे बड़ी गलती तो ये थी कि वे शिवसेना के पक्ष मेें परिवर्तन का प्रवाह मोडऩे के लिए अलोकतांत्रिक उपायों का अवलंबन ले रहे थे। वह महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनने के लिए मर्यादाहीनता और गठबंधनधर्म के विरूद्घ अनुशासनहीनता की किसी भी सीमा तक जा सकते थे। इसलिए उन्होंने बीजेपी से चला आ रहा अपनी पार्टी का दशकों पुराना संबंध केवल इसलिए तोड़ डाला कि भाजपा को उसके अपने अधिकार के अनुसार वह अधिक सीट देना नही चाहते थे। वह ये सुनिश्चित कर लेना चाहते थे कि येन केन प्रकारेण भाजपा को दूसरे स्थान की पार्टी बनाया जाए और शिवसेना को प्रथम स्थान की। इसलिए वह भाजपा को सत्ता के गलियारों से धकेलकर शिवसेना को आगे लाना चाहते थे। भाजपा भी उनकी शतरंजी चाल को समझ रही थी इसलिए भाजपा ने बड़ी सधी सधायी भूमिका में रहते हुए उनके सामने पहले तो अपने लिए सीटें अधिक मांगी,फिर यह स्पष्ट कर दिया कि मुख्यमंत्री उस पार्टी का होगा जिसकी सीटें अधिक होंगी। उद्घव ऊधम पर उतर आये और अपनी महत्वाकांक्षा को ही पंख लगाते चले गये। फलस्वरूप गठबंधन तो टूटा ही,उनका भ्रम भी टूट गया।
चुनाव परिणाम आते ही एक उद्घव की ऊधम मचाती शिवसेना खिसियायी बिल्ली बन गयी। किये पर शर्म तो आयी पर झूठा गर्व दिखाती रही। सत्ता में अपना हिस्सा मांगने लगी। भाजपा को शरद पवार और उनकी पार्टी ने अपनी बैशाखियों का भरोसा देकर कह दिया कि ये आपकी ही हैं, जैसे चाहो प्रयोग करो। भाजपा को फिर भी शर्म आयी कि जिस आदमी से सैद्घांतिक मतभेद रहे उसे साथ लेकर चलना ठीक नही होगा। इसलिए भाजपा ने शरद ‘सर्दकाल’ के लिए सुरक्षित तो रख लिया पर वह शिवसेना से ही अपनी बिगड़ी सुलझाने में जुट गयी। शिवसेना भी भाजपा के साथ रही है। इसलिए उसे फिर ‘फीलगुड’ व ‘शिवसेना शाइनिंग’ के महारोग ने आ घेरा, इसलिए तुनकमिजाज उद्घव फिर अपनी कीमत वसूलने पर लग गये।
‘‘बुलंदियों को न गलत जाबियों से देखो,
तुम्हारे सिर पर भी दस्तार रहे ख्याल रहे।’’
पर अब शिवसेना की दस्तार (पगड़ी) कहां है, ये किसी से छिपा नही है। जिद की जद में हदेेंं टूट ही जाया करती हैं और हदें टूटीं तो महाराष्ट्र के राज्यपाल के साथ धक्का-मुक्की में राज्यपाल को चोटिल कर लोकतंत्र की धज्जियां भी उड़ गयीं। खिसियायी बिल्ली को नेता प्रतिपक्ष का पद मिल गया है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडऩवीस ने ठीक ही कहा है कि शिन्देजी के नाम के साथ विपक्ष के नेता का पद जुड़ गया है, वे हर मुद्दे का विरोध न करें, और जनता के हित के फैसलों के लिए सरकार का समर्थन करें। पर लगता नही कि शिंदे और उनकी पार्टी के अध्यक्ष अपनी कार्यशैली में परिवर्तन करेंगे। क्योंकि जहां विरोध और क्रोध का पहरा होता है, वहां विवेक और धैर्य कभी देखे ही नही जा सकते। विवेक और धैर्य के लिए साधना की आवश्यकता होती है, और उस साधना से अभी उद्घव बहुत पीछे खड़े हैं। उद्घव भूल गये कि राज्यपाल किसी पार्टी का नुमाइंदा या मुखिया नही होता है। वह राज्य का संवैधानिक प्रमुख है,उसकी सरकार से आपके मतभेद हो सकते हैं, पर लोकतंत्र की बड़ी प्यारी परंपरा है कि जिस व्यक्ति की सरकार से आपके मतभेद हैं उससे स्वयं से आप मतभेद नही बनाएंगे और ना ही वह स्वयं तुमसे अपने मतभेद बनाएगा। इस परंपरा का पालन होना चाहिए था। इसलिए राज्यपाल के साथ अभद्रता दिखाकर शिवसेना और कांग्रेस ने अच्छा आचरण नही किया है। इस कार्य में चाहे कांग्रेस के 5 विधायकों को ही निलंबित किया गया है, पर शिवसेना की भूमिका ही प्रमुख रही है, क्योंकि सारी समस्या की सूत्रधार वही थी।