मनुष्य का आदिम ज्ञान और भाषा-36
हमको, आपको, तिलक महाराज को और अन्य किसी को भी क्या अधिकार है किवह इन समयों को पहिली ही आवृत्ति का समझे? अर्थात वह यह क्यों समझ ले कि यह अवस्था केवल अभी हाल ही की आवृत्ति की है? हम ऊपर लिख चुके हैं, कि किसी जमाने में वसंतसंपात फाल्गुनी पूर्णिमा के दिन होता था। उसको बीते हुए पूरा एक चक्कर हो गया, और दूसरे चक्कर में भी सैकड़ों वर्ष बीत चुके हैं। किंतु प्रश्न तो यहीं पर होता है कि यह पहिला ही चक्कर पूरा हुआ है या ऐसे कई एक चक्कर हो चुके हैं? किसी को कुछ भी अधिकार नही है, कि वह इसमें बिना किसी प्रमाण के कुछ भी कह सके। यही हाल और भी वचनों का है, जो इसके पूर्व तैत्तिरीय और शतपथ केे नाम से लिखे जा चुके हैं। प्रमाण चाहे पहिले के हों या दूसरे के, बात तो असल यह है कि तिलक महाराज ने वेदों का जो समय निश्चित किया है, उससे हजारों वर्ष पूर्व तक तो ब्राह्मणों का ही समय जाता है, जो वेदों के बहुत काल बाद बने हैं। ऐसी दशा में ओरायन प्रतिपादित वेदों का काल जो ज्योतिष द्वारा निकाला गया है, सर्वथा त्याज्य है।
हमने ज्योतिष के आधार पर ब्राह्मण ग्रंथों से तीन प्रमाण दिये हैं, परंतु तीनों का समय भिन्न-भिन्न है। इससे यह शंका हो सकती है कि एक ही प्रकार के ग्रंथों से भिन्न -भिन्न समय कैसे निकलते हैं? इस आपत्ति का सरल उत्तर यही है कि ब्राह्मण ग्रंथ समय-समय पर वैवस्वत मनु से लेकर कलि के आरंभ तक बनते रहे हैं। जिस प्रकार 17 पुराणों में भूत इतिहास लिखकर अंतिम भविष्य पुराण को भविष्य की घटनाओं के लिए रखा गया है, उसी तरह ब्राह्मण में तीनों कालों की घटनाएं ब्राह्मणों में ही लिखी जाती थीं।
तिलक महोदय ने वसंतसंपात के बदलने का क्रम लेकर, तीन काल कायम किये हैं। उनमें कृत्तिकाल तो यों ही गया, क्योंकि वह वैदिक काल के बाद का है। ऊपर विवेचन किया हुआ मृगशीर्षकाल ही प्रधान समय है। इसी पर लोकमान्य ने जोर भी दिया है। इसी के लिए प्रमाण भी दिये हैं और इसी के नाम से पुस्तक का नाम भी ‘ओरायन’ रखा है, पर हमने उनके दिए हुए समस्त प्रमाणों को देख डाला, उनमें एक भी ऐसा प्रमाण न मिला, जो मृगशीर्ष में वसंतसंपात सिद्घ करे। इससे आगे मृगपूर्वकाल है। जिसके लिए आप लिखते हैं कि इस काल तक वैदिक ऋचाओं की उत्पत्ति नही हुई थी। मृगशीर्ष से यह काल दो हजार वर्ष और पहले जाता है। उस समय वसंत संपात पुनर्वसु में था, इसके लिए आपने जो वेदों से प्रमाण उद्धृत किये हैं, उनकी भी आलोचना कर लेनी चाहिए। आप कहते हैं कि यजु. 4, 19 में अदिति को उभयत: शीष्र्णी कहा है, और ऋ. 10/72/5 में अदिति को देवों की माता कहा है। तथा ऋ. 10/72/8 में उससे आदित्यों की उत्पत्ति कही है। इधर एतरेय ब्राह्मण 1/7 में लिखा है कि यज्ञ अदिति से शुरू हों और समाप्ति पर समाप्त हो जाएं। इसके अतिरिक्त यज्ञ वाले ग्रंथों में लिखा है कि अदिति पुनर्वसु की अधिष्ठात्री है।
पुनर्वसु में वसंतसंपात कभी था, इस पर ध्यान देने के लिए इतने ही प्रमाण आप बताते हैं और अदिति तथा पुनर्वसु दो ही शब्दों पर सारी इमारत खड़ी करते हैं, परंतु वेदों में पुनर्वसु का जिक्र ही नही है, जिसे आप भी स्वीकार करते हैं। अत: हमें भी बाकी प्रमाणों से सरोकार नही है। क्योंकिवेद को तो केवल संहिताओं और आदित्यों की जननी कही गयी हैं। इससे खुल गया कि वह प्रकृति है। दो शीष्र्णी का भी मतलब यही है कि वह मारने और पैदा करने वाली है। उस अदिति अर्थात मूल प्रकृति से और इस पुनर्वसु वाली अदिति से कोई संबंध नही है। यह ज्योतिष का कोई पारिभाषिक शब्द होगा, अत: हमारे प्रकरण से भी इसका कोई संबंध नही है।
यहां तक हमने तिलक महाराज केे समस्त प्रमाणों की पड़ताल की, और देखा कि उनमें वेद का कोई ऐसा प्रमाण नही है, जो वसंतसंपात का दर्शाने वाला हो। प्रत्युत देखा गया है कि वे प्रमाण कुछ दूसरे ही अर्थ के सूचक हैं। जो लोग लोकमान्य तिलक की उक्त पुस्तक केे कोटिक्रम को निभ्र्रान्त समझते हों, वे ध्यानपूर्वक लोकमान्य की भूमिका पढ़ें। उसमें उन्होंने स्पष्टतया कह दिया है कि यद्यपि मैंने इस विषय का वर्णन किया है, परंतु मैं नही कह सकता कि मैंने उक्त विषय को हर प्रकार से जैसा होना चाहिए, वैसा प्रतिपादित किया है। इतना ही नही, प्रत्युत उक्त विषय का खंडन करने वाला एक दूसरा ग्रंथ आपने लिखा है। जिसका नाम आर्यों का ‘उत्तरधु्रव निवास’ है। इस गंं्रथ के मृगशीर्ष लिखने के लिए लोकमान्य तिलक को ऐसी अड़चन उपस्थिति हुई, कि जिसका कोई ठिकाना नही।
क्रमश: