हम दिन चार रहें या न रहें, तेरा वैभव अमर रहे मां- और रानी पद्मिनी ने कर लिया जौहर
भारत के वैभव और गौरव से प्रभावित होकर फे्रंच तत्वज्ञ विक्टर कजिन ने कहा है-”इसमें संदेह नही कि प्राचीन हिंदुओं को वास्तविक ईश्वर का पूर्ण ज्ञान था। उनके विचार,उनका तत्व ज्ञान इतना श्रेष्ठ उदात्त तथा सत्य है कि उनके मुकाबले में यूरोपीय तत्व ज्ञान दोपहर के सूर्य के सामने चमकने वाले जुगनू की भांति फीका है।”
जो जातियां अपने अतीत को संवारकर रखने के अपने महान दायित्व का निर्वाह नही कर पाती हैं, वे मिट जाया करती हैं। इसलिए प्रत्येक भारतीय का (और जिनमें मुस्लिम भी सम्मिलित हैं, क्योंकि अधिकांश भारतीय मुसलमानों के पूर्वज वही हैं जो शेष हिंदू समाज के हैं) पुनीत कत्र्तव्य है कि वह अपने इस महान दायित्व के निर्वाह के प्रति गंभीर हो।
भारतवर्ष वह देश है जिसके विषय में मार्क ट्वेन ने बड़ा सुंदर लिखा है:-यह भारतवर्ष मानव जाति का उद्गम स्थल है, हमारी अभिव्यक्ति का जन्म स्थान, इतिहास की मां तथा युग पुरूषों पितामह है।”
यहां प्रकरण इतिहास की इस पूज्यनीय, वंदनीया और प्रातस्मरणीय माता के एक युग पुरूष राणा भीमसिंह का चल रहा है, जो आज सारी संवेदनाओं और संवेगों को राष्ट्रभक्ति के उदात्त भाव के साथ समेकित कर युद्घभूमि के लिए प्रस्थान कर चुका है। उसके लिए अब अपना कोई नही है, जो कुछ भी है वह मातृभूमि है, राष्ट्र है,अपना धर्म है, और अपनी स्वतंत्रता के लिए बलिदान हो जाने की उदात्त और अनुकरणीय भावना है। आज वह उस भारत, भारतीयता और भारतीयों के लिए अपना सर्वस्व होम करने के लिए निकल पड़ा है, जिनके विषय में उक्त विदेशी विद्वानों ने उपरोक्त विचार प्रस्तुत किये हैं।
अलाउद्दीन राणा भीमसिंह की प्रतीक्षा ही कर रहा था। राणा जैसे ही युद्घभूमि में पहुंचा अलाउद्दीन और उसकी सेना राणा पर टूट पड़ी। चित्तौड़ के हिंदू वीरों ने पा्रण पण से युद्घ करना आरंभ कर दिया। कर्नल टॉड लिखते हैं:-भयानक रूप से दोनों सेनाओं में मारकाट हुई। राजपूत सेना की अपेक्षा बादशाह की सेना बहुत बड़ी थी। इसलिए भीषण युद्घ के पश्चात चित्तौड़ की सेना की पराजय हुई अगणित संख्या में उसके सैनिक और सरदार मारे गये और चित्तौड़ की शक्ति का पूर्ण रूप से क्षय हुआ। युद्घ के कारण युद्घ का स्थल शमशान बन गया। चारों ओर दूर-दूर तक मारे गये सैनिकों के शरीरों से जमीन अटी पड़ी थी और रक्त बह रहा था।”
सचमुच स्वतंत्रता को रक्त से ही सींचना पड़ता है। जब वह जाती है तो उस समय भी ये रक्त पीती है और जब ये आती है तो भी रक्त मांगती है। इसकी इस शाश्वत मांग को समझ कर ही नेताजी सुभाषचंद बोस ने भारतीयों का आह्वान किया था-”तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा।”
आज (29-8-1303) इस स्वतंत्रता के लिए राणा भीमसिंह और उनकी वीर सेना अपना रक्त अर्पित कर रही थी, अगणित शीश चढ़ा रही थी, केवल इसलिए कि भविष्य में जब इसे लेने का अवसर आये तो हमारे नींव के बलिदानों का स्मरण हो सके, और हम उन क्षणों में स्वयं को धन्य समझ सकें। आज के बलिदान का परिणाम तो सबको ज्ञात था कि क्या होने वाला है? परंतु आज के बलिदानों को भविष्य की ‘सुप्रभात’ के लिए दिया जा रहा था, जिसे किसी ने नही देखा था। वीरता का सर्वोत्कृष्ट भाव था ये।
अलाउद्दीन की निर्णायक जीत हो गयी
इसके पश्चात अलाउद्दीन अपनी शेष सेना के साथ चित्तौड़ में प्रवेश करता है। उसे अब प्रसन्नता हो रही थी कि जिस रानी ने उस समय तेरे साथ छल करके अपने पति राणा भीमसिंह को तेरी जेल से मुक्त कराने का दुस्साहसपूर्ण प्रयास किया था,अब वह तेरी मलिका बनेगी। अपने सपनों में खोया अलाउद्दीन बड़ी तेजी से किले में प्रवेश करता है पर किले के भीतर पसरे सन्नाटे को देखकर वह स्वयं सन्न रह गया। पूछने पर उसे ज्ञात हुआ कि रानी ने अपनी हजारों सहेलियों के साथ जौहर कर लिया है, और अब यहां उनकी वीरता की एक अमिट कहानी की अमिट स्मृतियों के अतिरिक्त कुछ नही है। भारतीय वीरांगना ने एक फिरंगी को फिर धोखा दे दिया। अलाउद्दीन को रानी ने ठग लिया वह जीतकर भी हार गया था, क्योंकि चित्तौड़ पाकर वह इतना प्रसन्न नही होता जितना रानी पदमिनी को पाकर होता। रानी ने बलिदान तो दिया पर शत्रु की जय को पराजय में भी परिवर्तित कर गयीं। सचमुच वह विजय विजय नही होती, जिसे पाकर भी विजेता शोक और पीड़ा से कराहकर हाथ मसलता रह जाए। विजय के अनेक आयाम होते हैं, वह प्रसन्नता दायिनी भी होती है, विजित क्षेत्र की जनता विजेता को अपना राजा स्वेच्छा से माने इस अपेक्षा पर भी खरी उतरने वाली होती है और उसकी विजय के साथ-साथ उसकी सारी अपेक्षाएं अभिलााषाएं भी तृप्त हो गयीं हों।
राणा भीमसिंह ने अपने पुत्र अजय सिंह को जीवित और सुरक्षित बचाकर किले से निकाल दिया था जो चित्तौड़ पतन के पश्चात कैलवाड़ा नामक स्थान की ओर चला गया था, दूसरे रानी ने अलाउद्दीन की अपेक्षाओं और अभिलााषाओं पर पानी फेर दिया था, तीसरे चित्तौड़ की राणा भक्त प्रजा अपने राणा और रानी के बलिदान का मूल्य समझती थी, इसलिए वह अलाउद्दीन की जीत को केवल किले पर किया गया आधिपत्य ही मान रही थी, वह तो आज भी राणा परिवार के साथ थी।
अत: अलाउद्दीन खिलजी जीतकर भी हारे हुए सैनिक की भांति निराशा के साथ दिल्ली के लिए प्रस्थान करने लगा। उसने चित्तौड़ का शासन जालौर के सोनेगरे वंश के मालदेव नामक सरदार को सौंप दिया और स्वयं मन मारकर दिल्ली की ओर चल दिया। भारतीयों की पराजय में भी जीत के रहस्य को उसका निराश मन जितना ही समझने का प्रयास करता था, वह रहस्य उसके लिए उतना ही गहराता जाता था-तब वह कह उठता था-इन भारतीयों को समझना भी बड़ा कठिन है।
कितने इतिहासकारों ने अलाउद्दीन की इस मानसिकता को उकेरने का प्रयास किया है? और कितनों ने राणा और रानी के उस साहसिक प्रयास पर ‘लेखनी धर्म’ का निर्वाह किया है, जिसके कारण अलाउद्दीन को जीत में भी हार का अनुभव हुआ और उसे अपनी सेना के बलिदान तथा अपने सारे परिश्रम पर भी अफसोस हुआ। हमने जौहर को केवल आत्महत्या का एक उपाय समझा है। हम यह भूल गये कि जौहर किसी विजेता को पराजित करने का सशक्त माध्यम भी है और एक कारगर हथियार भी है।
कुछ लेखकों ने रानी पद्मिनी की कहानी को असत्य ठहराने के अतार्किक प्रयास किये हैं। परंतु मुहम्मद हबीब, आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव, एस.सी. दत्त, एस. राय, दशरथ शर्मा आदि इतिहासकारों ने पद्मिनी की सत्यता पर विश्वास प्रकट किया है।
चित्तौड़ अभियान पर इतिहासकारों के मत
अलाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ अभियान पर मुहम्मद हबीब का कहना है कि अलाउद्दीन खिलजी के नेतृत्व में शाही सेनाएं राजस्थान में प्रवेश कर गंभीरी और वेहद नदियों के बीच पहुंचकर शिविर लगाकर और चित्तौड़ दुर्ग का घेरा डालकर युद्घ के लिए सन्नद्घ हो गयीं। सुल्तान ने अपनी सेना को दो भागों में विभक्त कर किले पर दोनों ओर से आक्रमण का आदेश दिया। इन सेनाओं द्वारा दो माह तक अनवरत आक्रमण के पश्चात भी मुसलमानों को विजय प्राप्त करने में कोई सफलता प्राप्त न हो सकी।
अमीर खुसरो के वर्णन को देखते हुए कुछ इतिहासकारों ने यह अनुमान भी लगाया है कि या तो दुर्ग के कुछ लोगों ने दुर्ग का द्वार खोल दिया अथवा उसमें उपस्थित समस्त सैनिकों ने वहां की तत्कालीन स्थिति पर विचार करते हुए एक साथ दुर्ग से निकल पड़े और वे मुसलमानों से संघर्ष करते हुए मारे गये। अमीर खुसरो ने इस युद्घ में हुई जनहानि का वर्णन करते हुए लिखा है कि सुल्तान के क्रोध के कारण तीस हजार हिंदुओं की हत्या कर दी गयी। इस स्थिति में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि पूरा चित्तौड़ वीरों से खाली कर दिया गया होगा। हमें अपने इन बलिदानियों के बलिदान पर विचार करते हुए यह भी सोचना होगा कि इन तीस हजार (जिनके लिए खुसरो का कथन है कि उनमें अधिकांश सैनिक थे) ने तातार सेना का भी बड़ी संख्या में संहार किया होगा। वे सरलता से बलि का बकरा नही बने होंगे।
मुहम्मद हबीब का कथन है कि अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ विजय के उपरांत उसका नाम अपने पुत्र खित्र खां के नाम खिज्राबाद कर दिया था और उसे अपने पुत्र खिज्रखां को सौंपकर ही दिल्ली लौटा था। अलाउद्दीन खिलजी ने अपने पुत्र को लालदत्त काली व हरी पताका भी प्रदान की थी। इस सारी प्रक्रिया को पूर्ण करके सुल्तान 4 सितंबर को दिल्ली लौट गया।
आगे के संघर्ष की नींव
राणा भीमसिंह (रतन सिंह) की चित्तौड़ के पतन के पश्चात प्रचलित इतिहास हमें कुछ ऐसा आभास दिलाता है कि जैसे सब कुछ शांत हो गया था, और अलाउद्दीन खिलजी निष्कंटक होकर शासन करने लगा था। परंतु जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेख किया है कि अलाउद्दीन खिलजी के शासन पर चित्तौड़ की जनता ने अपनी सहमति या स्वीकृति नही दी थी, तो हमारी इस बात की पुष्टि फरिश्ता के कथन से भी होती है। उसने कहा है कि आसपास के हिंदुओं ने चित्तौड़ पर कई बार अधिकार करने का प्रयास किया था।
जनता अपने शासक के साथ थी, अर्थात राणा भीमसिंह के साथ। इसलिए वह बलात थोपे गये किसी भी शासक को अपना शासक मानने को तत्पर नही थी। इसी संघर्ष की गाथा ने देशभक्त जनता को गरम किये रखा और उसकी गरमी ने स्वतंत्रता की अलख जलाये रखी। स्वतंत्रता का यह संघर्ष आगे चलकर शीघ्र ही फलीभूत हुआ, जब चित्तौड़ को राणा भीमसिंह के पौत्र हमीर ने दिल्ली की सल्तनत से छीन लिया था। इसका वर्णन हम आगे करेंगे कि ये हमीर कौन था और इसके निर्माण में कौन सी परिस्थितियों का योगदान रहा था?
राणा लक्ष्मण सिंह का वीरतापूर्ण सहयोग
यह मानना पड़ेगा कि अलाउद्दीन खिलजी के समय तक हिंदू शक्तियां एक दूसरे का सहयोग करके विदेशी शक्तियों को देश की सीमाओं से बाहर खदेड़ देने की अपनी परंपरागत शैली से विमुख हो गयी थीं, परंतु कुछ लोग हर स्थिति परिस्थिति के अपवाद हुआ करते हैं। अलाउद्दीन खिलजी भारतवर्ष में अपना राज्य विस्तार करता जा रहा था। कोई भी शक्ति उससे लोहा लेने से पूर्ण दस बार सोचती थी। ऐसे समय में अलाउद्दीन खिलजी की क्रूरता का सामना करना हर किसी के वश की बात नही थी।
चित्तौड़ के राणा भीमसिंह जिस समय अलाउद्दीन खिलजी से युद्घ रत थे और खिलजी के चित्तौड़ दुर्ग का डेरा डाले हुए कई माह व्यतीत हो गये थे, तब राणा की सहायता करने कोई भी हिंदू नरेश नही आया था। किंतु कुंभलगढ़ शिलालेख से हमें ज्ञात होता है कि चित्तौड़ के गुहिल राजवंश (राणा परिवार) की छोटी शाखा से संबंधित सीसोदा गांव (इसी से शिशौदिया गोत्र प्रचलित हुआ है) का स्वामी राणा लक्ष्मण सिंह अपने परिवार वालों के साथ मातृभूमि की रक्षार्थ आ पहुंचा था। राणा लक्ष्मण सिंह ने चित्तौड़ को ऐसे समय में सहयोग किया जब उसके सहयोग की चित्तौड़ को अत्यंत आवश्यकता थी। राणा लक्ष्मण सिंह ने युद्घ में पर्याप्त शौर्य एवं साहस का परिचय दिया था, और स्वतंत्रता के अपहर्ताओं को बड़ी संख्या में परलोक पहुंचा दिया था।
जालौर का शक्तिशाली शासक कान्हड़देव
राजस्थान की वीरभूमि ने जिन बलिदानी वीर रत्नों को जन्म देकर मां भारती का गौरव बढ़ाया है उनमें जालौर के चौहान वंशी शासक को अपने समकालीन हिंदू शासकों का सक्रिय सहयोग नही मिला, अन्यथा वह इतिहास की दिशा को परिवर्तित करने की क्षमता और सामथ्र्य से संपन्न था। इस परिस्थिति पर विचार करते हुए डा. के.एस. लाल ने अपनी पुस्तक च्च्खलजी वंश का इतिहास च्च्में लिखा है:-”पराधीनता से घृणा करने वाले राजपूतों के पास शौर्य था, किंतु एकता की भावना नही थी। कुछेक ने प्रबल प्रतिरोध किया, किंतु उनमें से कोई भी अकेला दिल्ली के सुल्तान के सम्मुख नगण्य था। यदि दो या तीन राजपूत राजा भी सुल्तान के विरूद्घ एक हो जाते तो वे उसे पराजित करने में सफल हो जाते।”
भारतवर्ष के इतिहास के ऐसे अनेकों नररत्न हैं, जो उपेक्षा के पात्र बने पड़े हैं, और हम आज तक उन्हें उनका अपेक्षित स्थान इतिहास में दे नही पाये हैं, कान्हड़देव भी उन्हीं उपेक्षित नररत्नों में से एक है। इतिहास के मर्मज्ञ विद्वान डा. शक्ति कुमार शर्मा ‘शकुन्त’ ने इस नररत्न के विषय में लिखा है-”चाहमान (चौहान) के वंशजों ने यायव्य कोण से आने वाले विदेशियों के आक्रमणों का न केवल तीव्र प्रतिरोध किया अपितु 300 वर्षों तक उनको (अपने देश में) जमने नही दिया। फिर चाहे वह मुहम्मद गजनवी हो गौरी हो, अलाउद्दीन खिलजी हो, चौहानों के प्रधान पुरूषों ने उन्हें चुनौती दी उनके अत्याचारों के रथ को रोके रखा, तथा अंत में आत्म बलिदान देकर भी देश और धर्म की रक्षा अंतिम क्षण तक करते रहे।”
ऐसा था चौहान शासक कान्हड़ देव, जिसकी प्रशंसा में जितना लिखा जाए उतना अल्प ही कहा जाएगा। हमने पूर्व में उल्लेख किया है कि पृथ्वी राज चौहान की मृत्यु के पश्चात उसकी एक शाखा ने रणथम्भौर में जाकर शासन स्थापित किया तो उसी की एक शाखा पहले नाडौल गयी और फिर नाडौल से भी एक शाखा जालौर चली गयी। कीर्तिपाल नामक (पृथ्वीराज चौहान का वंशज) व्यक्ति ने वहां जाकर नये राजवंश की स्थापना की। जिसमें कई शासकों के होने के उपरांत कान्हड़देव वहां का शासक बना। कान्हड़देव में प्रारंभ से ही अपने पूर्वजों का स्वातंत्रय प्रेम स्पष्ट झलकता था। वह स्वाभिमानी था और किसी भी स्थिति परिस्थिति में अपने स्वाभिमान को क्षतिग्रस्त होते देखना नही चाहता था। इसके पिता राजा समंत सिंह थे।
जिस समय दिल्ली का सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी भारत में अपने अभिमान पूर्ण विजय अभियान को चला रहा था और उसका राज्य निरंतर विस्तार पाता जा रहा था, उस समय उसका सामना करना हर किसी के वश की बात नही थी। खिलजी ने गुजरात के अपने विजय अभियान के समय सोमनाथ के मंदिर में जीर्णोद्घार होने के उपरांत लौटी भव्यता को पुन: विनष्ट करने का मन बनाया। सोमनाथ सदियों से हमारी धार्मिक आस्था का प्रतीक रहा था, उसके विनाश की बात कोई भी स्वाभिमानी हिन्दू वीर सोच भी नही सकता था। उसकी प्रतिष्ठा के लिए हजारों लाखों हिन्दुओं ने अपने बलिदान दिये थे, इसलिए उन बलिदानों को व्यर्थ करना लोग अपने लिए कृतघ्नता का कारण मानते थे।
अलाउद्दीन खिलजी के ‘गुजरात अभियान’ के वास्तविक लक्ष्य (अर्थात सोमनाथ का पुन: विध्वंस) की जब सही सूचना कान्हड़देव को मिली तो कान्हड़देव की भुजाएं फडक़ने लगीं। अलाउद्दीन खिलजी ने कान्हड़देव से अपने राज्य से निकलने का रास्ता देने का अनुरोध किया और इस उपकार के बदले उसे खिलअत से सुशोभित करने का वचन भी दिया। परंतु कान्हड़देव ने अलाउद्दीन खिलजी को उसके पत्र का उत्तर इस प्रकार दिया-
”तुम्हारी सेना अपने प्रयाण मार्ग में आग लगा देती है, उसके साथ विष देने वाले व्यक्ति होते हैं, वह महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार करती है, ब्राह्मणों का दमन करती है, और गायों का वध करती है यह सब कुछ हमारे धर्म के अनुकूल नही है, अत: हम तुम्हें रास्ता नही दे सकते।”
अलाउद्दीन खिलजी को कान्हड़देव से ऐसे उत्तर की अपेक्षा नही थी, इसलिए उसने क्रोधित होकर अपने सेनापति उलुग खां को आज्ञा दी कि गुजरात से लौटते समय कान्हड़देव की ‘देशभक्ति का उपचार’ किया जाए। जब उलुगखां गुजरात से लौट रहा था तो उसने कान्हड़देव के राज्य के सकराणा नामक दुर्ग पर हमला बोल दिया। हमारे वीरों ने अपने नायक जैता के नेतृत्व में उलुग खां के आक्रमण का सफलता पूर्वक प्रतिराध किया और उन्होंने एक ही हमले में उलुग खां की सेना को भागने के लिए विवश कर दिया। उलुग खां हाथ मलता रह गया। उसने जैता वीर से ऐसे प्रतिरोध की अपेक्षा नही की थी। जैता ने उलुग खां से सोमनाथ मंदिर से लायी गयी पांच मूत्र्तियों को भी छीन लिया। इतना ही नही इस युद्घ में जैता वीर ने सुल्तान के एक भतीजे मलिक एजुद्दीन तथा नुसरत खां के एक भाई को भी जहन्नुम की आग में फेंक दिया।
अलाउद्दीन ने शेर को छल से जाल में फंसा लिया
भारत के इस शेर कान्हड़देव को 1308 ई. में सुल्तान अलाउद्दीन ने अपने एक विश्वसनीय व्यक्ति के माध्यम से अपने दरबार में बुलावा भेजा। दुर्भाग्यवश कान्हड़देव जाल में फंस गया और सुल्तान के दरबार में पहुंच गया। वहां अलाउद्दीन ने हिंदू समाज के पौरूष और वीरता पर प्रश्न चिन्ह लगाते हुए कह दिया कि मेरे सामने कोई भी हिंदू युद्घ क्षेत्र में रूक नही पाता।
स्वाभिमानी कान्हड़देव का च्च्हिंदूज्ज् जाग गया और वह तुरंत सिंह गर्जना कर उठा कि आपकी चुनौती मुझे स्वीकार है। अलाउद्दीन यही चाहता था। कान्हड़देव ये भूल गया था कि वह किसी षडयंत्र का शिकार हो चुका है, और वर्तमान क्षणों में वह कहां बैठा हुआ है? हिंदुओं के लिए अपमानजनक शब्दों पर तीखे बाण छोडक़र और सुल्तान को बुरा भला कहकर कान्हड़देव सुल्तान के दरबार से निकल गया और जालौर पहुंच गया।
१311 ई. में अलाउद्दीन ने कान्हड़देव को दण्डित करने के लिए सेना भेजी। कान्हड़देव जानता था कि दिल्ली दरबार में हुई घटना की प्रतिक्रिया क्या होगी? इसलिए वह भी अपनी तैयारी से था। इस हिंदू वीर ने सुल्तान की सेना को कई स्थानों पर पराजित किया। गुजराती महाकाव्य ‘कान्हड़ दे प्रबंध’ के अनुसार संघर्ष कुछ वर्षों तक चला और शाही सेनाओं को अनेक बार मुंह की खानी पड़ी। तब सुल्तान ने कमालुद्दीन गुर्ग के नेतृत्व में शक्तिशाली तुर्क सेना भेजी। इस सेना का सामना सिवाणा के सामंत शीतल देव ने किया। दोनों के मध्य जैसा संघर्ष हुआ वैसे युद्घ की कल्पना भी तुर्कों ने नही की होगी। फलस्वरूप हिंदू वीर योद्घा सीतलदेव ने शक्तिशाली तुर्क सेना को भागने के लिए विवश कर दिया। एक सामंत होकर सुल्तान की शक्तिशाली सेना को भगाने का काम एक हिंदू वीर ही कर सकता था जो उसने कर दिखाया। तब सुल्तान अलाउद्दीन स्वयं सेना लेकर जालौर गया। सुल्तान ने जालौर जाकर छल का सहारा लिया और एक भापला नामक ‘जयचंद’ को भारी धनराशि देकर अपनी ओर मिला लिया। जिसने अपने स्वामी के साथ छल करते हुए किले का द्वार खोल दिया। सुल्तानी सेना दुर्ग में प्रवेश कर गयी। हमारी महिलाएं जौहर करने की तैयारी करने लगीं, राजपूत ‘शेरों’ ने जमकर संघर्ष करना आरंभ कर दिया। उन्होंने जीते जी ‘समर्पण’ करना अपमान समझा, इसलिए बड़ा भयंकर संघर्ष हुआ। मुट्ठी भर हिंदू सैनिक युद्घ करते हुए कुछ ही समय में समाप्त हो गये। कान्हड़देव ने 18 वर्ष तक अलाउद्दीन को नाकों चने चबाए थे, उसे बता दिया था कि हिंदू कैसे सामना करते हैं, और यदि दुष्ट भापला बीच में न आता तो परिणाम कुछ और ही होता। इसके पश्चात कान्हड़देव कहां गया, या उसके साथ क्या किया गया, इस पर तो कोई प्रामणिक जानकारी नही है, परंतु कान्हड़देव हमारे स्वतंत्रता संघर्ष का एक अमर पात्र अवश्य है। पराजित हो जाने से वह आभाहीन नही हो जाता है अपितु उसका गौरव इसमें है कि उसने हिन्दू स्वाभिमान के लिए 18 वर्ष तक संघर्ष किया, उसी के लिए जिया और मरा। निश्चित ही वह एक वंदनीय पात्र है।
(संदर्भ: राजस्थान के सूरमा)