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इतिहास के पन्नों से हमारे क्रांतिकारी / महापुरुष

स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज : डेढ़ अरब के मुकाबले पर इकला ही शेर दहाड़ा था

राष्ट्र आराधक
स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज {बलिदान दिवस}
स्वामी जी का हरयाणा में प्रभाव

 डेढ़ अरब के मुकाबले पर इकला ही शेर दहाड़ा था।
जो कोई आया मुकाबले पर उस को ही मार पछाडा़ था।

ऋषिवर देव दयानंद के जितने गुण गायें उतने ही थोडे़ हैं। महाभारत के पश्चात अनेक प्रकार की परम्परा भारतवर्ष की टूट गई थी। इन टूटी हुई ऋषियों की परम्परा को, प्राचीन गुरुवों की परम्परा को महर्षि दयानंद जी महाराज ने पुनः जोड़ दिया अथवा इस परम्परा का पुनरुद्धार करने वाले स्वामी दयानंद जी ही थे। स्वामी जी द्वारा प्रतिपादित गुरुकुलिय शिक्षा को पुनरुद्धार करने वाले तेजस्वी सन्यासी महात्मा स्वामी श्रद्धानन्द जी ही थे। स्वामी जी के ओज से भारत भर में गुरुकुलों की बाढ़ सी आ गई। हरयाणा प्रदेश में स्वामी जी विशेष प्रभाव रहा। उनके बलिदान दिवस पर उनके महान कार्यों एवं दिशानिर्देश पर प्रकाश डाल रहा हूँ।

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जन्म
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    महात्मा जी का जन्म जालन्धर जिले के तलवन ग्राम में सन् 1856 ई० में हुआ था। इनके पिता नानकचन्द जी उत्तरप्रदेश में पुलिस के बडे़ अफसर थे। वे बनारस, बरेली आदि कई बडे़ शहरों में पुलिस कोतवाल के पद पर रह चुके थे।

   महात्मा जी का गृहस्थाश्रम में यह स्वभाव था कि हरेक चीज को बड़ी मात्रा में रखा करते थे। उस समय कौलर, नकटाई आदि सब कुछ पहनते थे। परंतु सिर के उपर साफा या फैल्ट कैप होती थी। अंग्रेजी टोप उन्होंने कभी नहीं पहना। जल्दी सोना जल्दी उठना सर्वदा उनके जीवन का अंग रहा उनका सर्वदा यही विचार रहा कि यथासंभव पुरानी रस्मों को तोडा जाये।

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गुरुकुलों की स्थापना
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  इसी के कारण वह ऐसी शिक्षा प्रणाली चाहते थे जिस शिक्षा से शिक्षित हुए भारत के नव युवक पुराने रुढि रिवाजों से अलग होकर वैदिक शिक्षा प्रणाली के अनुसार शिक्षित हों। इन विचारों की और अधिक पुष्टि हो गई जब उन्होंने बरेली में महर्षि दयानंद के व्याख्यान सुने और उनसे ईश्वर धर्म आदि के सम्बन्ध में अनेक विचार परिवर्तन किये। इससे उनके जीवन में महान क्रांति हुई। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश पढा और उसमें बताई हुई गुरुकुल शिक्षा प्रणाली का निर्देश और आवश्यकता प्राप्त की। इसी उद्देश्य से इन्होंने कांगडी ग्राम में निर्जन वन, गंगा के तट पर 1902 में गुरुकुल स्थापना की। स्वामी जी का मनोबल गिराने के लिए अंग्रेजी शिक्षालयों में पढे हुए लोग तंज दे रहे थे कि कौन निर्जन वन में अपने बच्चों को भेजेगा। परंतु स्वामी श्रद्धानन्द जी की ईश्वर पर अटूट श्रद्धा थी और स्वामी दयानंद जी के सत्यार्थप्रकाश से उनको अटल प्रेरणा मिल चुकी थी। जिससे उन्होंने निर्जन वन में बैठकर गुरुकुल जैसी महान् शिक्षण संस्था का आदर्श देश - देशांतर में फैलाया। उनको सहायक भी मिल गये और भारत के सभी प्रांतों के बच्चे भी इकट्ठे हो गये। इसी शिक्षा क्रम को आगे बढाते हुए स्वामी जी ने देश भर में प्रचार भी किया। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने वर्ष 1908-09 में पंडित ब्रह्मानन्द जी को हरयाणा में आर्यसमाज के प्रचार का प्रभारी बनाकर भेजा। पंडित ब्रह्मानन्द जी को हरयाणा वासियों ने गले से लगाया, स्मरण रहे आर्यसमाज समाज के प्रचार हेतु बंजर भूमी को जोतकर तैयार करने वालों में चौधरी भीम सिंह रईस कादीपुर, चौधरी टेकचन्द जी, चौधरी पीरुसिंह मटिंडू, चौधरी रामनारायण भगाण, चौधरी गंगाराम गढी कुण्डल, चौधरी मातूराम सांघी वालो़ के नाम उल्लेखनीय है। चौधरी टेकचन्द जी एवं चौधरी भीम सिंह जी तो आर्यसमाज से इतने प्रभावित थे उन्होंने 5000 रुपये गुरुकुल काँगड़ी को दान इस प्रयोजन से दिये की इस धनराशि से हरयाणे के बालको को छात्रवृत्ति दी जा सके। इस छात्रवृत्ति से जो ब्रह्मचारी गुरुकुल से शिक्षा प्राप्त कर स्नातक हुये उनमें श्री प्रियव्रत, श्री समर सिंह, श्री भीमसेन जी के नाम उल्लेखनीय है। ठीक ऐसे ही नरवाना के रईस लाला पतराम जी थे।  गुरुकुल कांगड़ी में स्वामी श्रद्धानन्द जी की समाचार पत्रों में प्रकाशित अपिल पढ़कर गुरुकुल के लिए 5000 रुपये स्थिर निधि के लिए उक्त राशि दान दी जिससे नरवाना के पं. रामेश्वरदास वैदिक वेदालंकार स्नातक बने। 

     स्वामी श्रद्धानन्द जी भी हरयाणा में बतौर प्राचार्थ आये। स्वामी जी शिक्षा, स्वदेशी, स्वतंत्रता पर विशेष बल देते थे। इनके प्रभाव से हरयाणा प्रदेश में गुरुकुलो की बाढ सी आ गई। जो निम्न प्रकार से हैं :-

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गुरुकुल कुरुक्षेत्र
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     गुरुकुल कांगड़ी की शिक्षा प्रणाली और वहाँ के धार्मिक व सदाचारमय जीवन से आकृष्ट होकर थानेसर ( हरयाणा ) के सुप्रसिद्ध रईस लाला ज्योति प्रसाद के मन में यह शुभ संकल्प उत्पन्न हुआ , कि वह भी गुरुकुल काँगड़ी की एक शाखा अपने प्रदेश में स्थापित कराएँ । उन्होंने अपना विचार महात्मा मुंशीराम ( स्वामी श्रद्धानन्द ) के सम्मुख रखा , जो उस समय गुरुकुल काँगड़ी के मुख्याधिष्ठाता थे । महात्माजी ने लाला ज्योति प्रसाद के संकल्प का हृदय से स्वागत किया , जिसके परिणामस्वरूप 13 अप्रैल , सन् 1912 के दिन गुरुकुल कुरुक्षेत्र की स्थापना हुई । गुरुकुल के लिए लाला ज्योति प्रसाद ने न केवल कन्धला कलाँ गाँव की 2048 बीघा जमीन ही दान रूप में प्रदान कर दी , अपितु कार्य प्रारम्भ करने के लिए दस हजार रुपये भी दिये । गुरुकुल कांगड़ी के इतिहास में जो स्थान मुंशी अमनसिंह का है , गुरुकुल कुरुक्षेत्र में वही लाला ज्योति प्रसाद का है । उनके सात्विक दान के कारण ही कुरुक्षेत्र गुरुकुल की स्थापना सम्भव हुई । 

   संवत् 1966 की वैशाखी के पुण्य पर्व ( 13अप्रैल , सन् 1912 ) के दिन गुरुकुल कुरुक्षेत्र की आधारशिला रखते हुए महात्मा मुंशीराम ने ये शब्द कहे थे – “ जिस धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र की पवित्र भूमि में आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व भारत के विनाश का बीज बोया गया था , उसी भूमि में आज यह भारत की उन्नति का बीज बोया जा रहा है । मंगलमय भगवान् करे कि इस ज्ञानतरु से ऐसे सुगन्धित फूल उत्पन्न हों जो भारत भूमि को फिर से अपनी पुरानी उन्नतावस्था में लाने में सहायक हों । " 

   लाला ज्योति प्रसाद गुरुकुल कुरुक्षेत्र को उन्नति के पथ पर अग्रसर करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहे । इस कार्य में लाला भागीरथमल उनके परम सहायक थे । इन आर्य सज्जनों के प्रयत्न से कुरुक्षेत्र में स्थापित गुरुकुल रूपी पौधे की जड़ें भली - भाँति जम गई । 

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गुरुकुल मटिंडू
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         जाटों में शिक्षा का अभाव होने के कारण 1913 में जाट स्कूल बनाने का फैसला हुआ । चौधरी मातूराम, चौधरी देवीसिंह, चौधरी बलदेव सिंह आदि नेताओं ने दयानंद एंग्लो वैदिक हाई स्कूल की तर्ज पर जाट एंग्लों संस्कृत हाई स्कूल खोल दिया। चौधरी पीरुसिंह ने, जो कि स्वामी श्रद्धानन्द जी के विचारों से अत्यधिक प्रभावित थे, अपने साथी चौधरी जुगलाल, चौधरी भीम सिंह कादीपुर, चौधरी श्योचन्द, चौधरी निहाल सिंह, चौधरी गंगाराम गढी कुण्डल (चौधरी चरण सिंह के ससुर) आदि को लेकर गुरुकुल कांगड़ी की तर्ज पर गुरुकुल खोलने का निश्चय किया। काफी सोच विचार के बाद चौधरी पीरुसिंह ने गुरुकुल का ब्ल्यू प्रींट बनाना शुरु कर दिया। चौधरी पीरुसिंह जी के संग अन्यों ने भी अपनी साथ लगती हुई भूमी दान कर दी। जनवरी 1915 की रजिस्ट्री के अनुसार गुरुकुल के पास 19 बीघे पुख्ता और 3 बिस्वे जमीन हो गई।

   यह सब होने पर चौधरी साहब ने स्वामी श्रद्धानन्द जी से सम्पर्क किया। वे उन दिनों समचाना गांव में आर्यसमाज के उत्सव में आए हुये थे। चौधरी साहब अपने साथियों सहित उनसे मिले ओर गुरुकुल की नींव रखने का प्रस्ताव उनके समक्ष रखा। स्वामी जी की प्रसन्नता का कोई ठिकाना नहीं रहा। उन्होंने उन कर्मवीरों की हिम्मत की दाद दी और उत्सव समाप्ति, अर्थात माघ शुक्ला पंचमी सम्वत् 1971 के दिन, मटिंडू पहुंचकर यह पवित्र कार्य करने की हां कर दी।

   वसंत पंचमी के दिन स्वामी जी सैंकड़ो लोगों के साथ समचाना से पैदल चलकर गुरुकुल भूमी पर आये। चारों तरफ खुशी का वातावरण था। वहाँ यज्ञ किया और गुरुकुल की नींव रखी। इसके बाद स्वामी जी ने एक घंटे के भाषण पर गुरुकुल शिक्षा के महत्व, उपयोगिता और आवश्यकताओं पर प्रकाश डाला। चौधरी पीरुसिंह ओर उनके साथियों की प्रशंसा की, ओर उन्हें आशीर्वाद दिया। इसके बाद स्वामी जी सिसाना गांव के उत्सव में शामिल हुए। रात्री को वहीं विश्राम किया और अगले दिन कांगड़ी के लिए रवाना हो गए।

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गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ
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       महात्मा जी का दृढ़ संकल्प था वो चाहते थे की गुरुकुलिय शिक्षा से भारत भर के अधिक से अधिक विद्यार्थी लाभान्वित होवें, इसी उद्देश्य से उन्होंने मनन किया की देहली के नजदीक एक गुरुकुल खोला जाए 

     उनके इस विचार को क्रियान्वित होने में कोई कठिनाई नहीं हुई , क्योंकि अनेक दानवीर आर्य सज्जन इस कार्य में उनकी सहायता करने के लिए उद्यत थे । दिल्ली निवासी सेठ रग्घूमल ने दिल्ली के समीप गुरुकुल खोलने के लिए एक लाख रुपये महात्माजी को अर्पित कर दिये । इसके अतिरिक्त डिप्टी निहालचन्द्र ने पच्चीस हजार रुपये गुरुकुल के लिए नकद प्रदान किये और बारह हजार रुपयों की लागत से तुगलकाबाद स्टेशन के समीप एक धर्मशाला भी गुरुकुल के लिए बनवा दी । दिल्ली के क्षेत्र में जो स्थान गुरुकुल के लिए चुना गया था , वह दिल्ली शहर के दक्षिण में अरावली पर्वत पर है । यहाँ ग्राम सराय ख्वाजा की 1075 बीघे जमीन गुरुकुल के लिए खरीद ली गई । इसका अधिकांश भाग अरावली पहाड़ी पर था , पर 300 बीचे भूमि ऐसी भी थी जो समतल होने के कारण खेती के योग्य थी । 1075 बीघे की यह भूमि दिल्ली - मथुरा लाइन पर तुगलकाबाद स्टेशन से दो मील की दूरी पर है । वहाँ जाने वाले लोगों की सुविधा को दृष्टि में रखकर ही डिप्टी निहालचन्द ने तुगलकाबाद स्टेशन के समीप एक धर्मशाला का निर्माण कराया था । 

        गुरुकुल के भवनों के निर्माण के लिए अरावली पर्वत के एक ऐसे ऊँचे - नीचे भूमिभाग को चुना गया , जो पर्याप्त ऊँचाई पर है । इसकी ऊँची - नीची शिलाओं को काट काटकर एक समतल मैदान तैयार कर लिया गया , और उसपर गुरुकुल के भवनों का निर्माण किया गया । भवनों के लिए लाला श्रीराम , लाला झम्मन लाल तथा सेठ जुगल किशोर बिड़ला आदि ने भी उदारतापूर्वक दान दिया , और कुछ ही समय में गुरुकुल के लिए उपयुक्त इमारतें बन कर तैयार हो गई । 24 दिसम्बर 1914  के दिन गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ की स्थापना हुई , और वहाँ शिक्षा प्राप्त करने के लिए गुरुकुल काँगड़ी विद्यालय की पहली चार श्रेणियों के विद्यार्थियों को भेज दिया गया । इन श्रेणियों में विद्यार्थियों की संख्या 110 थी , और इन्हीं से गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ का प्रारम्भ हुआ था। आगे चलकर गुरुकुल क्रांतिकारियों की शरणस्थली बना ओर स्वतंत्रता आंदोलन बडी भारी भूमिका गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ की रही।

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गुरुकुल झज्जर
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     गुरुकुल झज्जर के संस्थापक पंडित विश्वम्भरदास जी थे। कहा जाता है कि सत्यार्थप्रकाश के श्रद्धापूर्वक स्वाध्याय के पश्चात से उनकी काया ही पलट गई। सत्यार्थप्रकाश में प्रतिपादित गुरुकुल शिक्षा प्रणाली से दत्तचित्त होकर आपने झज्जर की भूमि पर आर्षपाठविधि के केन्द्र महाविद्यालय की स्थापना की जावे। सर्विस से त्यागपत्र देकर आप महात्मा श्रद्धानन्द जी महाराज से मिले। झज्जर के महाविद्यालय का अहर्निश प्रयत्न करने लगे। उनके सतत प्रयत्न से महाविद्यालय के लिए 138 बीघे भूमी प्राप्त हो गई। आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब की अंतरंग सभा 3 ज्येष्ठ 1972वि० तदनुसार 16मई 1915 के प्रस्ताव संख्या 16 के अनुसार पूज्य स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज के करकमलों द्वारा गुरुकुल महाविद्यालय की आधारशिला रखवाई।

   समय व्यतीत होता रहा गुरुकुल में उतार चढ़ाव आते रहे गुरुकुल स्वामी ओमानंद जी महाराज के आने के पश्चात निरंतर तरक्की करता चला गया। आज गुरुकुल झज्जर को हरयाणा प्रदेश की काशी कहे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। हिन्दी सत्याग्रह में गुरुकुल झज्जर सत्याग्रह का केन्द्र था। इस पर अन्यत्र प्रकाश डाला जा चुका है। 

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गुरुकुल भैंसवाल
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     पंडित ब्रह्मानंद जी से यज्ञोपवित लेने के उपरांत भक्त फूलसिंह जी स्वामी श्रद्धानन्द जी एवं आर्यसमाज के दीवाने हो गए थे। भक्त जी की इच्छा एक वेद पाठशाला खोलने की थी परंतु पंडित ब्रह्मानंद जी के परामर्श से आप गुरुकुल खोलने के लिए प्रयत्न करने लगे।

    श्री भक्त जी गुरुकुल खोलने के कार्यक्रम को पूर्ण करने के लिए स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज के पास देहली में आये । उनके सामने अपनी गुरुकुल खोलने की इच्छा प्रकट की । स्वामी जी ने आपसे सारी बातें पूछी । आपने स्वामी जी को बतलाया कि गुरुकुल खोलने के लिए वहां भूमि भी मिल गई है तथा वहाँ की जनता गुरुकुल खोलने के लिए बहुत उत्साहित है ।

    स्वामी जी आपकी बातों को सुनकर बड़े प्रसन्न हुए । स्वामी जी ने आने की तिथि बतला दी । निश्चित तिथि पर आप स्वामी जी को लेने जन - समूह के साथ सोनीपत पहुँचे । स्वामी जी को गुरुकुल में ले जाने के लिए सोनीपत एक रथ लाया गया । स्वामी जी ने जब देखा कि जनसमूह उनको लेने आया हुआ है तब वे बड़े प्रसन्न हुए । वे उस रथ पर न बैठे । उन्होंने कहा कि मैं भी आप लोगों के साथ पैदल ही भैंसवाल तक चलूंगा । उन दिनों बारह - बारह कोस तक गुरुकुल में जाने के लिए न रेल गाड़ी थी तथा न कोई मोटर की पक्की सड़क थी । इस लिए स्वामी जी के साथ यह जनसमूह 12 कोस तक भैंसवाल पहुँचने के लिए स्वामी जी के पीछे - पीछे पैदल चला । जो भी सुनता वह ही स्वामी जी के साथ हो लेता । इस प्रकार प्रातः चलकर स्वामी जी उस जनसमूह के साथ दोपहर गुरुकुल भूमि में पधारे ।

    वहां आगे और भी बड़ा भारी जनसमूह उपस्थित था । उसने स्वामी जी को देख कर " स्वामी श्रद्धानन्द जी की जय हो , स्वामी दयानन्द जी की जय हो , वैदिक धर्म की जय हो " के नारे लगाये । उस अभूतपूर्व जनता के उत्साह को देख कर स्वामी जी अत्यन्त प्रभावित हुए । वहां का प्राकृतिक दृश्य भी आपको बड़ा पसन्द आया । तब स्वामी जी महाराज ने इस मन्त्र से उपस्थित जनता के सामने अपने विचार रखे :

उपह्नरे गिरिरणां संगमे च नदीनाम् धिया विप्रो अजायत।
॥ यजुर्वेद |

मेरे प्रिय बन्धुओं ! मैं आज इस स्थान को तथा आपके प्रेम को देख कर आनन्द विभोर हो गया हूँ । वेद में लिखा है कि जंगल की गिरि कन्दराओं में तथा नदियों के संगम में विद्वान् , धर्मात्मा , तपस्वी विद्वान् पैदा होते हैं । यद्यपि यहां पहाड़ नहीं हैं , नदियाँ भी नहीं हैं तो भी जो एकान्तता तथा पवित्रता ऐसे स्थलों पर होती है उसको मैं यहाँ देख रहा हूँ । हरियाणे के विशेषतया जाट जन्म से ही आर्य होते हैं । वस्तुतः हरियाणे की भूमि आर्य भूमि कहलाने की अधिकारी है । यहां के मनुष्य मांस मदिरा आदि से सर्वथा दूर हैं यहां का भोजन दूध , दही तथा शुद्ध सतोगुणी होता है । मैंने जो उत्साह आप में देखा है वैसा उत्साह दूसरे स्थानों पर मिलना कठिन है । मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि यह भूमि हरियाणे के आर्यों के नेतृत्व का स्थल होगा । धैर्य , उत्साह , विश्वास से कार्य करते रहें , भगवान् आपके इस महान उद्देश्य को अवश्य पूरा करेंगे ।

   इसके अनन्तर पूज्य स्वामी जी के हाथों गुरुकुल की आधार शिला गुरुकुल भूमि में रखवाई गई । आधारशिला जब रखी जा रही थी तब जय - जयकारों की ध्वनि चारों ओर सुनाई दे रही थी । गांवों के लोग सैकड़ों मन दूध उस अवसर पर अपने घरों से लेकर उपस्थित जनता को पिलाने के लिए लाये थे । सब लोगों को खूब दूध पिलाया गया फिर भी बहुत सा दूध बच गया । इसपर ग्राम वालों ने यह कह कर ' इस भूमि मैं सदैव दूध की नदी बहती रहे जिस तरह से अब बह रही है ' वह दूध वहीं पर बहा दिया । यह सब प्रताप या प्रभाव हमारे चरित्रनायक महात्मा फूलसिंह का था । गुरुकुल की आधारशिला 1919 में रखी गई थी । वह दिन हरियाणा प्रान्त के लिए विशेष तथा भैंसवाल गांव के लिए सौभाग्य का दिन था जिस दिन उस जंगल में मंगल हुआ । जब तक यह गुरुकुल रहेगा तब तक भैंसवाल गांव का नाम भी अमर रहेगा ।

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शुद्धि आंदोलन
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      भारतवर्ष में शुद्धि आंदोलन को स्वामी श्रद्धानन्द जी ने ही आरम्भ किया। इसका प्रभाव हरयाणा प्रदेश काफी हुआ। अनेक भटके हुये लोगों की घरवापसी करवाई गई। सन् 1922 में रेवाड़ी आर्य समाज के उत्सव पर स्वामी श्रद्धानंद जी पधारे और अन्य धर्मावलम्बियों को शुद्ध करने पर जोर दिया। इसका परिणाम यह हूआ की भगवानदास तथा परमार्थी जी ने कुंडल ग्राम के मुसलमानों जोगियो को शुद्ध करके हिंदू धर्म में दीक्षित किया। इसके अतिरिक्त रेवाड़ी नगर के पं० प्यारेलाल के परिवार को जो मुसलमान हो गया था पुन: वैदिक धर्मी बनाया। रेवाड़ी शहर के प्रसिद्ध न्यायमूर्ति सर शादीलाल के चचेरे भाई ला० देवीसहाय को मुसलमान बना लिया गया और इनका नाम अब्दुल्ला रख दिया गया। इस घटना से सारे हरियाणा, दिल्ली पंजाब में सनसनी फैल गई। आर्य समाज के कार्यकर्ता वेश बदलकर दिल्ली गए और अब्दुल्ला (देवी सहाय)से सम्पर्क किया। उसे रेवाड़ी लाए और पुन: हिन्दू बनाया। 

   शुद्धि कार्य मात्र रेवाड़ी में नही हो रहा हो, यह बात नही। आर्य समाज जगाधरी के लाला बसंतलाल और लाला रुलियाराम जी अपने इलाके में कार्य कर रहे थे। इन्होने नाहरपुर एवं बुढ़ियां के आसपास अनेक शुद्धियां की। आर्य समाज सिरसा का शुद्धि के क्षेत्र में महान योगदान रहा है। :-

   एक काले खां मुसलमान थे वह स्वामी श्रद्धानंद जी द्वारा शुद्ध होकर यहां आए थे। उनका नाम स्वामी जी ने कृष्णचन्द्र रखा। कृष्णचन्द्र जी उर्दू के व अरबी, फारसी जानने वाले थे। उन्होने यहां आकर हिंदी पढ़ी और संध्या हवनादि कंठस्थ किए। बड़ी लग्न से स्वाध्याय किया। वह अपने भाई को सपरिवार यहां लाये। यहां के समाज में उसके भाई के परिवार को शुद्ध किया। वह शुद्धि कार्य पं० नानकचंद के कर कमलों द्वारा सम्पन्न हुआ । भक्त फूलसिंह महाराज ने प्रदेश भर में घुम घुम कर घर वापसी करवाई । चौधरी पीरुसिंह जी ने की नवयुवकों की घरवापसी करवाकर विवाह के करार भी किये।

     11 मार्च सन् 1928 ई० को स्थान गुरुकुल मटिण्डू ( सोनीपत ) में शुद्धि साफल्य के लिये एक पंचायत की गई। पंचायत में राय बहादुर चौ० लालचन्द जी , भक्त फूलसिंह जी और चौ० घासीराम जी , तथा अन्यन्य कई हज़ार मनुष्य शामिल थे। जिनमें राय बहादुर चौधरी लालचन्द जी , भक्त फूलसिंह जी , तथा चौ० घासीराम जी तथा चौ० तेजसिंह जी के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।

     पंचायत ने शुद्धि विषय को स्वीकृत करते हुये शुद्ध शुदा भाईयों के साथ रोटी बेटी का क्रियात्मक परिचय बड़े उदार भाव से दिया। और उसी दिन श्री , चौ० हरिद्वारी सिंह स्थान मटिण्डू जिला सोनीपत निवासी ने अपनी पुत्री का विवाह सम्बन्ध करने के लिये म० केहरीसिंह जिनकी शुद्धि अक्टूबर मास सन् 1927 ई० में हुई थी ) स्थान रायपुर का रुपया दिया और सगाई कर दी।

     आर्य समाज जींद शहर ने मुस्लिम मतावलम्बी डॉ सुलेमान अख्तर को गायत्री मंत्र के उपदेशक द्वारा शुद्ध करके उसका नाम सुरेन्द्र शर्मा रखकर वैदिकधर्मी बनाया। सन् 1923 में सोहना के भरतसिंह ने स्वामी श्रद्धानंद के साथ मिलकर मथुरा एवं आगरा के मलकानों की शुद्धि की। सोहना आर्य समाज ने एक नव मुस्लिम तेली को शुद्ध करके आर्य बनाया। और एक हिंदू महिला कौशल्या को मुसलमान के पंजे से छुड़ाकर देहली वनिता आश्रम में प्रविष्ट कराया। आर्य समाज ठोल ने सन् 1924 सितम्बर मास में रहतवान सिखों की शुद्धि कराई और यह शुद्धसंस्कार पं० विश्वामित्र तथा मुखाराम ब्रह्मचारी द्वारा कराया। 

     कोसली आर्य समाज ने एक मिरासी की लड़की को शुद्ध करके उसका नाम जानकी रखा,, श्योदान मास्टर के साथ उसका विवाह हूआ। इसी प्रकार इसी आर्यसमाज ने गुड़ियानी के भोला बनिये को जो मुसलमान बन गया था पुन: हिन्दू बनाया।  आर्य समाज बालंद रोहतक ने 4 नीलगर परिवारों को शुद्ध करके वैदिक धर्मी बनाया।

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स्वतंत्रता आंदोलन
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     स्वराज, स्वदेशी, स्वधर्म के महात्मा जी प्रबल पोशक थे। विश्व युद्ध 1914 - 1918 की समाप्ति पर जब अंग्रेज स्वराज की बात करने के बजाये रोलेट एक्ट नामी गुलामी का फन्दा भारतीयों के गले में डाल दिया तो स्वामी श्रद्धानन्द जी ने उसका प्रबल विरोध किया। इस कार्य में हरयाणा से चौधरी पीरुसिंह सिंह जी स्वामी जी के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़े हो गए। उनके ही उपर सरकार की वक्रदृष्टि नहीं रही अपितु गुरुकुल मटिंडू पर भी पड़ी। लेकिन चौधरी साहब ने इसकी परवाह नहीं कि, जब स्वामी श्रद्धानन्द जी ने कांग्रेस से त्यागपत्र दिया तो संग में चौधरी पीरुसिंह जी ने भी दे दिया। उन्होंने केवल गुरुकुलीय शिक्षा का प्रचार, प्रसार करना उचित समझा। हरयाणा के अनेक आर्य वीरों ने देश में बने कपडे पहनने आरम्भ कर दिये। सरकार उन पर अभियोग भी चलाती रही।

     सन् 1909 में महाराजा पटियाला के प्रशासनिक 70 वर्षिय अधिकारी बारबर्टन अंग्रेज ने आर्यसमाजियों पर राजद्रोह का महा अभियोग चलाया, उसमें नरवाना के भी लगभग 20 व्यक्तियों को भी अभियोग में फंसाया गया। इस घटना को पाठक "नरवाना पटियाला राजद्रोह" इतिहास में विस्तार पूर्वक पढ़े। लाला पतराम जी व इनके पुत्र दलीपचंद जी पर अभियोग चला। लाला पतराम जी की गिरफ्तारी नहीं हुई क्योकिं वो गुरुकुल कांगड़ी में थे। लेकिन इनके सुपुत्र दलीपचंद जी को गिरफ्तार किया गया। 6 महिने तक जेल में रहे। स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज ने मुकदमा लड़कर सभी को बरी करवाया। इससे प्रसन्न होकर नरवाना वासियों ने वर्ष 1914 में स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज का सार्वजनिक अभिनन्दन किया। इस पुनित कार्य के लिए उनके मंगल गीत गाए।

   उपर्युक्त इतिहास को पढकर पाठकगण अवश्य अन्वेषण करेगें की स्वामी श्रद्धानन्द जी का हरयाणा प्रदेश कितना प्रभाव था। आज महात्मा जी के बलिदान दिवस पर हम उनको ओर उनके द्वारा किये महान परोपकारी कार्यों को नमन करते हैं।

अमित सिवाहा

संदर्भ ग्रंथ :-
1. आर्यसमाज के बलिदान – स्वामी ओमानंद जी
2. आर्यसमाज का इतिहास – 2. – डॉ सत्यकेतु विद्यालंकार
3. हरयाणा आर्यसमाज का इतिहास – डॉ रणजीत सिंह जी
4. गुरुकुल मटिंडू शताब्दी स्मारिका – प्रो. केसी यादव
5. भक्त फूलसिंह जीवन चरित – पं. विष्णुमित्र जी
6. सुधारक गुरुकुल झज्जर मासिक पत्र – सम्पादक स्वामी ओमानंद जी

इतिहास संबंधित अन्य जानकारी श्री वीरेंद्र सिंह राणा जी कादीपुर (प्रपौत्र चौधरी भीम सिंह रईस कादीपुर) ने मुझे बताई। उनका बहुत बहुत धन्यवाद।

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