अखंड ज्योति
यज्ञ का सूक्ष्म विज्ञान किसी भी अणु, परमाणु और विराट के रहस्यों से कम आश्चर्यजनक नहीं है। आधुनिक चिकित्सा पद्धति में यद्यपि दवा की टिकिया देकर रोग निदान का प्रतिशत सर्वाधिक है, तथापि रक्त में सीधी औषधि पहुँचाने की इंजेक्शन प्रणाली को ज्यादा प्रभावशाली माना जाता है। यह एक विलक्षण सत्य है कि शरीर के क्रिया व्यापार को चलाने वाली वह रस-रक्त स्राव विहीन नाड़ियाँ होती हैं जिनमें इनसे भी सूक्ष्मतर प्राण चेतना प्रवाहित होती हैं जिनमें इनसे भी सूक्ष्मतर प्राण चेतना प्रवाहित होती है।
स्पष्ट है यदि कोई ऐसी पद्धति हो जो स्नायु संस्थान को प्रभावित कर सकती हो तो उसे इंजेक्शन चिकित्सा से भी अधिक कारगर होना चाहिए। भारतीय आयुर्वेदाचार्यों, जैसे धन्वन्तरि, चरक, सुश्रुत, वाग्भट्ट आदि सभी ने यज्ञ चिकित्सा को इसी कोटि का माना है। ऋषियों ने तो उसे आत्मोत्कर्ष का अमोघ साधन ही माना है, पद यदि उतनी गहराई में न जाएँ, मात्र भौतिक स्तर तक ही कल्पना करें तो यज्ञ की गरिमा अपार है। यज्ञ आरोग्य की दृष्टि से सर्वोपरि सफल चिकित्सा प्रणाली कही जा सकती है। यज्ञ “आप्त काल” कहे गये हैं। बंध्ययात्व के निवारण से लेकर राजयक्ष्मा जैसे कठिन रोगों के निवारण में यज्ञ का असाधारण और समस्या रहित उपचार होता रहा है।
यज्ञ के माध्यम से औषधि के गुणों को अत्यधिक सूक्ष्म बना दिया जाता है। इस सूक्ष्मता की शक्ति का कुछ आभास प्राप्त करने के लिये होम्योपैथी के औषधि विज्ञान प्रक्रिया को देखा जा सकता है। उसका आविष्कार ही इस आधार पर हुआ है कि अधिक सूक्ष्म होने पर औषधि की शक्ति अनेक गुना अधिक बढ़ जाती है।
हवन में स्वास्थ संवर्धन और रोग निवारण की जो अद्भुत शक्ति है उसका कारण पदार्थों को वायु भूत बना कर उसका लाभ लेना ही है। वायुभूत बनी हुई औषधियाँ जितना काम करती हैं उतना वे खाने-पीने से नहीं कर सकती। तपेदिक आदि रोगों के रोगियों को डॉक्टर लोग भुवाली, शिमला, मंसूरी जैसे अच्छी वायु के स्थानों में जाकर रहने की सलाह देने हैं। कई अच्छे अस्पताल भी वहाँ बने हैं। डॉक्टरों का कहना यह है कि औषधि सेवन के साथ-साथ यदि उत्तम आक्सीजन मिली वायु सेवन की सुविधा हो तो रोग अच्छा होने में बहुत सहायता मिलेगी। निसंदेह प्राण वायु-आक्सीजन भी एक दवा ही है।
प्रातःकाल जब वायु में आक्सीजन की मात्रा अधिक होती है, टहलने जाना आरोग्यवर्धक माना जाता है। वायु में लाभदायक तत्व मिले हो तो उसकी उपयोगिता का लाभ स्वतः ही मिलेगा। हवन द्वारा यही प्रयोजन पूरा किया जाता है। उपयोग औषधियों को वायुभूत बनाया जाय और उसका लाभ उस वातावरण के संपर्क में आने वालों को मिलें, आरोग्य की दृष्टि से हवन का यह लाभ बहुत ही महत्वपूर्ण है।
पौष्टिक पदार्थों के बारे में भी यही बात है। दुर्बल शरीर को बलवान बनाने के लिये पौष्टिक आहार की आवश्यकता अनुभव की जाती है, पर पौष्टिक पदार्थों को कमजोर देह और कमजोर पेट वाला व्यक्ति हजम कैसे करें यह समस्या सामने आती है। दुर्बल या रोगी व्यक्ति की पाचन क्रिया मंद हो जाती है। साधारण हलका भोजन थोड़ी मात्रा में लेने पर भी जब अपच, दस्त, उल्टी आदि की शिकायत शुरू हो जाती है तो अभीष्ट मात्रा में पौष्टिक भोजन कैसे हजम हो? इसका सरल साधन हवन है। अग्निहोत्र में मेवा पदार्थ हवन किये जायें और उन्हें नाक, मुख या रोम कूपों द्वारा ग्रहण किया जाय तो वे शरीर में आसानी से प्रवेश कर सकते हैं और वायुभूत होने के कारण अपनी सुगमता के आधार पर लाभदायक भी अधिक हो सकती हैं।
यज्ञ का वैज्ञानिक आधार भी यही है कि अग्नि अपने में जलाई गई वस्तुओं को करोड़ों गुना अधिक सूक्ष्म बनाकर वायु में फैला देती है। एक छोटे से प्रयोग द्वारा स्वयं ही इस तथ्य को जाना और अनुभव किया जा सकता है। एक मिर्च उतनी तीखी नहीं होती, जितनी कि बँटने पीसने पर हो जाती है। पीसी हुई मिर्च का स्वाद या प्रभाव भी थोड़े ही लोगों पर होता है किन्तु उसे जला दिया जाय तो आसपास के दसियों फुट की परिधि में उसका असर फैल जाता है। वैज्ञानिक स्तर पर अग्नि की सूक्ष्मीकरण सामर्थ्य फ्राँस के डॉक्टर हाँफकिन तथा मद्रास के डॉ. कर्नल सिंग ने प्रयोगों द्वारा प्रमाणित की है। उनका कहना है कि आग में घी जलाने केसर आदि के धुएं से विष का नाश हो जाता है और वायु में घुले जहर वर्षा के साथ जमीन में चले जाते हैं तथा खाद बनकर पृथ्वी की उर्वरा शक्ति बढ़ाते हैं।
हवन की गैस सड़न को रोकती है। शरीर के भीतर या बाहर जिन छोटे बड़े जख्मों के कारण पायेरिया, कोलाइटिस, तपेदिक, दमा, नासूर, कैंसर, संग्रहणी जुकाम आदि रोग होते है, उन्हें सुखाने के लिए हवन की गैस कितनी अधिक उपयोगी सिद्ध होती है, इसका प्रयोग कोई भी करके देख सकता है।
हवन वायु जहाँ रोग निवारक है वहाँ रोग निरोधक भी है। बीमारियों से बचने के लिए हैजा, चेचक, टी.बी. आदि के टीके लिये जाते हैं। इन टीकों से हलके रूप में वही रोग पैदा किया जाता है जिसके प्रतिरोध में टीका बना था। इस प्रकार पहले हलका रोग उत्पन्न करेंगे ताकि भविष्य में बड़े रोगों की चढ़ाई न हो या बुद्धिमानी की बात नहीं है। डाकू से लड़ने के चोर को घर में बसा लेना यह तात्कालिक लाभ की दृष्टि से भले ही उपयोगी हो, पर दूरदर्शिता नहीं है, क्योंकि डाकू न आवे तो भी चोर तो अवसर मिलने पर नुकसान कर ही सकता है। ऐलोपैथिक रोग निवारक टीकों की अपेक्षा हवन की वायु अधिक विश्वसनीय और हानि रहित है। यज्ञ की ऊष्मा शरीर में प्रवेश कर केवल रोग बीजाणुओं को ही मारती है, स्वस्थ कोषों पर उनका तनिक भी बुरा प्रभाव नहीं पड़ता वरन् पुष्टि ही होती है। यह एक विज्ञान सम्मत प्रक्रिया है।
शारीरिक रोगों के निवारण करने के अतिरिक्त हवन की वायु में मानसिक रोगों के निवारण की अपूर्व क्षमता है। अभी तक केवल पागलपन और विक्षिप्तता के ही इलाज ऐलोपैथी में निकले हैं। पूर्ण पागलों की अपेक्षा वर्तमान पागलों, अर्धविक्षिप्तों की संख्या शारीरिक रोगियों से भी अधिक है। मनोविकारों से ग्रसित लोग अपने लिये तथा दूसरों के लिए अनेक समस्यायें पैदा करते हैं। शारीरिक रोगों की तो दवा-दारु भी है, पर मनोविकारों की कोई चिकित्सा अभी तक नहीं निकल सकी है। फलस्वरूप सनक, उद्वेग आवेश, संदेह कामुकता, अहंकार, अविश्वास, निराशा, आलस्य, विस्मृति आदि अनेक मनोविकारों से ग्रसित लोग स्वयं उद्विग्न रहते हैं, कलह करते हैं और संबंधित सभी लोगों को खिन्न बनाये रहते हैं। इतना ही नहीं ऐसे व्यक्ति दूसरों की नजरों में गिर जाते हैं और सहयोग सद्भाव खो बैठते हैं।
फलस्वरूप उनकी प्रगति ही नहीं रुक जाती बदनामी और हानि भी उठानी पड़ती है। इन सभी मनोविकारों की एक मात्र चिकित्सा हवन है। हवन सामग्री की सुगन्ध के साथ-साथ दिव्य वेद मंत्रों के प्रभावशाली कम्पन मस्तिष्क के मर्म स्थलों को छूते और प्रभावित करते हैं। फलतः मनोविकारों के निवारण में उनका बहुत प्रभाव पड़ता है। भारतीय संस्कृति में जन्म से लेकर मरण तक के षोडश संस्कारों में हवन को अनिवार्य रूप से जोड़ा गया है ताकि उसके प्रभाव से मनोविकारों की जड़ ही कटती रहे। मनुस्मृति में यज्ञ के संपर्क से ब्राह्मणत्व के उदय की बात इसीलिए कही गई है कि हवन की ऊष्मा से संपर्क स्थापित करने वाला व्यक्ति विचारवान और चरित्रवान दोनों ही विशेषताओं से युक्त बनता है। ऐसे ही लोगों को ब्राह्मण कहते हैं।
रोग निरोधक और निवारक गुणों के अतिरिक्त यज्ञ वायु में स्वास्थ संवर्धन का भी गुण है। जो पौष्टिक पदार्थ एवं औषधि तत्व शरीर में प्रवेश करके रक्त में मिलते हैं वे जीवनी शक्ति बढ़ाने में सहायता करते हैं और जो कमी किसी विशेष अंग की शक्ति में आ गई थी उसे पूरा करते है। नपुँसकता, मधु मेह, रक्तचाप, अनिद्रा, नाड़ी संस्थान की दुर्बलता आदि रोगों में हवन की निकटता का आश्चर्यजनक लाभ होता है। संतान उत्पन्न करने की क्षमता बढ़ती है। प्राचीन काल में पुत्रेष्टि यज्ञ इसी प्रयोजन के लिए होते थे। गर्भवती स्त्रियाँ हवन की समीपता का लाभ उत्तम संतान के रूप में देख सकती हैं और वन्ध्यात्वदोष दूर हो सकता है।
यज्ञ किसान इन दिनों तो ऐसे ही धार्मिक कर्मकाण्ड प्रक्रिया तक सीमित रह गया है, पर उसमें उपयोगी पदार्थों को अग्नि के माध्यम से सूक्ष्मीकरण का रहस्यमय विज्ञान भी जुड़ा हुआ है, इसे बहुत कम लोग जानते हैं। थोड़ी-सी हवन-सामग्री यों अपने स्थूल रूप में जरासी जगह घेरती और तनिक-सा प्रभाव उत्पन्न करती है, पर जब वह वायु भूत होकर सुदूर क्षेत्र में विस्तृत होती है तो उस परिधि में आने वाले सभी प्राणी और पदार्थ प्रभावित होते हैं। स्वल्प साधनों को अधिक शक्तिशाली और अधिक विस्तृत बना देने का प्रयोग यज्ञ प्रक्रिया में किया जाता है। फलतः उसके प्रभाव क्षेत्र में आने वालों को शारीरिक व्याधियों से ही नहीं मानसिक “आधियों” से भी छुटकारा पाने का अवसर मिलता है।
शरीर के अवयवों को प्रभावित करने के लिये औषधियों का लेप, खाना पीना या सुई लेने से उपचार हो सकता है। किन्तु मानसिक रोगों एवं मनोविकारों की निवृत्ति के लिये उपचार सामग्री ऐसी होनी चाहिए जो मस्तिष्कीय कोषों तक पहुँचने और अपना प्रभाव उत्पन्न करने में समर्थ हो सके। यह कार्य यज्ञ से उत्पन्न हुई शक्तिशाली ऊर्जा से सम्पन्न हो सकता है। वह नासिका द्वारा, रोमकूपों एवं अन्यान्य छिद्रों द्वारा शरीर में प्रवेश करती है। विशेषतया मस्तिष्क के भीतरी कोषाणुओं तक प्रभाव पहुँचाने के लिए नासिका द्वारा खींची हुई वायु ही काम कर सकती है। यदि उसमें यज्ञ-प्रक्रिया द्वारा प्रभावशाली औषधियों और मंत्र ध्वनियों का समावेश किया गया है तो उनका समन्वय विशेष शक्तिशाली बनेगा और मानसिक विकृतियों के निराकरण में अति महत्वपूर्ण उपचार की भूमिका सम्पन्न करेगा। यही शोध अनुसंधान ब्रह्मवर्चस की यज्ञोपैथी की विद्या का एक अति महत्वपूर्ण पक्ष है।
श्री रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि “गायत्री संध्यावंदन की आत्मा है, और उसके जप से ही संध्या का फल मिलता है। ब्राह्मणों के संध्यावन्दन की परिणति गायत्री में होती है और गायत्री की ॐ में होती है।”