◼️प्रार्थना◼️
🔥 ओ३म् अग्निना रयिमश्नवत्पोषमेव दिवे दिवे।
यशसं वीरवत्तमम्॥ (ऋग्वेद)
🌺 परमात्मा की प्रार्थना से हम [रयि] धन, शक्ति प्राप्त करें, जो पोषक हो, यश कारक हो, वीरता प्रापक हो।
मनुष्य अनेक वस्तुएँ चाहता है, उनके सब का मूल धन तथा शक्ति में है। यदि मनुष्य बुद्धिबल, मनोबल तथा शारीरिक शक्ति सम्पन्न है तब वह धन प्राप्त कर लेगा यदि किसी में शरीर का बल है और उत्तम कार्य करने के विचार नहीं हैं तो उसका बल साधारण कार्यों को तो कर लेगा, कोई विशेष कार्य न कर सकेगा, यदि विचार भी उत्तम हों, किन्तु बुद्धिबल न हो तो वह अपने विचार कार्यान्वित न कर सकेगा। इस भाँति मनुष्य के शरीर में बल होना चाहिए, मन में उत्तम विचार होने आवश्यक हैं, इनको व्यवस्था में रखने के लिए बुद्धि की अत्यन्त आवश्यकता है। ये तीनों भी उसी समय ठीक समझे जायेंगे, जब ये पोषक कार्य करनेवाले हों नाशक नहीं। मनुष्य स्वार्थी हो कर अन्यों का पोषक न होकर घातक बन जाता है, तब उस घातकरूप कार्य के लिए भी बुद्धि चाहिए और शक्ति भी हो तब ही कार्य होगा और मन की शक्ति के बिना भी कार्य नहीं होता, ये तीन शक्तियाँ पालक भी हैं और घातक भी हैं। इस मन्त्र में प्रार्थना है कि हम पोषक हों नाशक न हों।
जब मनुष्य पोषक होगा, तब ही उसका यश होगा, अन्यों को पीड़ा देने, हानि पहुँचाने में भी शक्ति की आवश्यकता है। जब शक्ति से सारा कार्य किया जाएगा, उस समय उससे यश न होकर निन्दा होगी। इसलिए मनुष्य की शक्ति ऐसे काम में लगनी चाहिए, जिससे उसका यश हो और वह निन्दा का भागी न हो, अर्थात् वह उत्तम धर्मयुक्त कार्य करता हो, अधर्म और अधर्मपूर्वक काम करनेवाला न हो।
मनुष्य की प्रार्थना से प्राप्त शक्ति उसमें वीरता उत्पादक और वीरों की संगृहीता हो। यदि उसकी शक्तियाँ उसमें भीरुता उत्पन्न करती हैं और उसके आस पास भीरुता स्वभाव युक्त व्यक्ति जमा होते हैं तो उसकी शक्तियाँ ठीक नहीं हैं। उसका धन अच्छा नहीं है।
वीरता मनुष्य को कर्तव्यारूढ़ करती है और भीरुता कर्तव्य से विमुख करने का साधन है। वीर व्यक्ति विघ्न-बाधाओं को हटा कर सफलता के दर्शन करता है, भीरु मनुष्य विघ्न-बाधाओं के सम्मुख आने पर घबरा कर धर्मपथ छोड़ कर अधर्म-पथगामी हो जाता है।
उदाहरणार्थ ऋषि दयानन्द जी को लें । उनमें विद्याबल था, बुद्धि थी, उत्तम विचार थे। शरीर बलिष्ठ था। उन्होंने संसार को कुरीतियों से निकाल कर सुनीति के पथगामी बनाने का प्रयत्न किया, वे संसार के पालक बने। इससे उनका यश हुआ, जो उनके बताए धर्म मार्ग पर चले, वे संसार में तपस्वी हुए उन्होंने वीरता पूर्वक विधर्मियों से लोहा लिया, उनके अनुयायियों ने बिरादरी त्यक्त हो कर भी अपने कार्य को किया। अनेकों ने वीरता पूर्वक अपने प्राणों की आहुति दी।
इसलिए मनुष्यों को अग्निरूप ईश्वर से प्रार्थना द्वारा ऐसी शक्तियाँ प्राप्त करनी चाहिएँ, जो पालक, यशोवर्धक, वीरता उत्पादक हों।(‘प्रार्थना’ के सौजन्य से)
✍🏻 लेखक – स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी
साभार – राजेंद्र जिज्ञासु जी (पुस्तक – वैदिक विचारधारा)
प्रस्तुति – 📚 अवत्सार
संकलन,आर्य चंद्र शेखर सोलंकी,आर्य समाज खुर्जा।।
॥ ओ३म् ॥