मारिया वर्थ
स्वामी विवेकानंद ने कहा था, कि हिंदू धर्म छोडने वाला हर व्यक्ति ना सिर्फ हिंदू की संख्या एक से कम करता है, बल्कि दुश्मनों की संख्या एक से बढ़ाता है।
हठधर्मी क्रिश्चियनिटी के दम घुटनेवाले माहौल में पली हुई एक महिला के विचार, जो हिंदू धर्म की लचीली स्वतंत्रता और ताजापन को सहारती हैं- और हिंदू समाज के एक घटक की अपने निजी धर्म के प्रति अपराध की भावना को देख कर अचम्भित महसूस करती है- हालांकि जीवन में पूर्णत्व पाने के लिये हिंदू धर्म सब से बढ़िया रास्ता है।
हिंदू कहा करते थे, “सभी धर्म समान हैं।” वास्तव में, दो सबसे बड़े धर्म, क्रिश्चियनिटी औऱ इस्लाम इस बात से सहमत नहीं हैं, इस सच का सामना वह नहीं करना चाहते थे। यह दोनो धर्म यही दावा करते थे कि, “केवल हमारा धर्म ही सच्चा धर्म है। केवल हमारा भगवान ही सच्चा भगवान है।” सभी धर्मों को समान कहने से, हिंदू धर्म ऊँचा हो कर उन की बराबरी में आयेगा, ऐसी हिंदूओं की भोली सोच या श्रद्धा के उपर उन को दया आती थी। वास्तव में, “सच्चा धर्म” कतई इस बात को स्वीकार करनेवाला नहीं था।
अब हिंदू कहते हैं कि, “हम सभी धर्मों का आदर करते हैं। हम हमारे बच्चों को यही सिखाते हैं। हमारे बच्चे क्रिश्चियनिटी और इस्लाम के बारे में और वह धर्म कितने अच्छे हैं इस के बारे में सुनते हैं। हम किसी की भावनाओं का अनादर नहीं करना चाहते, इसलिये हम हिंदू धर्म के बारे में उन को बहुत कम ज्ञान देते हैं, और जो भी बताते हैं वह त्योहारो और रिवाजो के बारे में थोडीबहुत जानकारी होती है। हम हिंदूओं के गहरे तत्त्वज्ञान और वैज्ञानिक सूक्ष्म दृष्टि के बारे में कुछ नहीं बताते, क्यों कि इस से हिंदू धर्म की महानता चित्रित होगी और उस से अन्य धर्मियों को नाराज़गी होगी।”
और एक बात यह भी है, कि क्रिश्चियनिटी और इस्लाम हिंदू धर्म का आदर नहीं करते, इस सच का सामना हिंदू करना नहीं चाहते। इन धर्मों के उपदेशक हिंदूओं के मुँह पर तो नहीं कहते, लेकिन उन के समुदाय में जरूर कहते हैं कि, “यदि हिंदू सच्चे धर्म में परिवर्तन नहीं करेंगे, तो वह नरक में जायेंगे। भूल तो उन्ही की है। हम ने उन को जीसस और उसके पिता या पैगंबर और अल्लाह के बारे में बताया है फिर भी वह इतने मगरूर और मूरख हैं, कि अभी भी उन के झूटे भगवानों को छोडते नहीं हैं। मगर गॉड/अल्लाह महान है। वह ज़रूर उन्हें नरक की ज्वालाओं में तडपने की सज़ा देगा।”
“हम सभी धर्मों का आदर करते हैं” वाली मानसिकता के एक और भिन्न रूप में हिंदू ऐसा भी कहते हैं कि, “सभी धर्मों में मानव को अच्छे विचार, वाणी और बरताव ही सिखाया जाता है और वही उसे सृष्टी का निर्माण करनेवाले भगवान की तरफ ले जाता है। हिंदू अंतर्धर्मीय संवादों में भाग लेते हैं और सभी धर्मों में क्या समानता है, इसी की खोज में रहते हैं। समानताएँ तो हैं ही। हिंदू उसी के उपर आगे बढ़ते हैं। “हाँ, सभी धर्मों में अच्छी बाते होती हैं। हाँ, सभी धर्मों में अच्छे लोग होते हैँ।” शायद अपने आप को यकीन दिलाने के लिये, सभी धर्मों में अच्छाई सिखायी जाती है, इस बात को वह बार बार दोहराते रहते हैं। किंतु, अंदर ही अंदर हिंदू जानते हैं कि, यह सच नहीं है और इस में तात्विक सत्यनिष्ठा भी नहीं है। वह जानते हैं कि, क्रिश्चियनिटी और इस्लाम अपना रास्ता भूल कर अपने अनुयायीओं को अपवर्जन और नफ़रत सिखा रहें हैं।
इन धर्मों ने अन्यधर्मीयों के ऊपर अत्याचार किये जाने का समर्थन किया है औऱ सामान्य रूप से दयालु स्वभाव के इन्सानों का मनोमार्जन कर के उन्हे किसी काल्पनिक भगवान के लिये लड़ने पर आमादा किया है। उन के धर्म में जो बताया गया है उस में श्रद्धा न रखनेवालें ‘अन्यों’ का यह भगवान तिरस्कार करता है, ऐसा उनके दिमाग में घुसाया गया है। उन्हों ने इतिहास में खून की नदियाँ बहायी है। लेकिन हिंदू इस बात की अनदेखी करते हैं। वह शायद ऐसा मानते होंगे कि, ‘बिना वजह क्यों उकसाना?’ जिस से हजारो सालों के जुल्म और उत्पीडन के घाव सहकर बनी हुई मानसिकता का परिचय होता है।
क्या अब समय नहीं आया है, कि हिंदू इस बात की सच्चाई समझ लें? स्वामी विवेकानंद ने कहा था, कि हिंदू धर्म छोडने वाला हर व्यक्ति ना सिर्फ हिंदू की संख्या एक से कम करता है, बल्कि दुश्मनों की संख्या एक से बढ़ाता है। जब उन्हों ने यह कहा था, तब भारत ब्रिटिशों के राज का एक हिस्सा था और क्रिश्चियन्स और मुस्लिमों को “मूर्तिपूजक हिंदुओं” से खुद को उच्च स्तर का मानने के लिये प्रोत्साहित किया जाता था।
हिंदू समाज के अभिजात वर्ग ने ब्रिटिशों की विद्वेषपूर्ण शिक्षा पद्धति के कारण अपने ही धर्म को नीचा देखा और दिखाया, इसलिये हिंदू इस सत्य को सब के सामने नहीं ला पाये। फिर भी, आज, आज़ादी पाने के 69 साल बाद, पूरी दुनिया को ऊँची आवाज में और निर्भयता के साथ हिंदुत्व के बारे में बताने का समय आ गया है।
यह कोई दुनियापर राज करने की बात नहीं है। यह कोई असत्यापित सिद्धांतों में विश्वास रखने की भी बात नहीं है। अपने धर्म का पालन करनेवालों के प्रति अच्छा व्यवहार और अन्य धर्मीयों के प्रति बुरा व्यवहार करने की भी बात नहीं है। इस नित्य परिवर्तनशील शरीर और मन से अलग, हमारी सच्चाई क्या है उसे खोजने की यह बात है। पश्चिमी वैज्ञानिकों से बहुत पहले हमारे ऋषिओं ने इस आभासी बहुलता में छिपी एकता को जाना और समझा था।
यह सचेत, प्रसन्न एकता कहीं बाहर से नहीं आयी है। वह सब (व्यक्ति और वस्तु) के अंदर बसी हुई है और इसे आप अपने मूलतत्व के रूप में महसूस कर सकते हैं। इस मूलतत्व को अलग अलग नामों से जाना जाता होगा, किन्तु वह सब के अंदर है और सब उसे पा सकते हैं, यह बात अहम् है। हम सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं। हम सभी एक ही परिवार के सदस्य हैं। वसुधैवकुटुम्बकम्। ऐक्यपूर्ण मधुर विश्व का आधार इसी से मिलता है और यह बात उचित और तर्कसंगत भी है, है ना?