*संस्कार और धर्म पालन*
तमिल कवि वल्लुवर की स्त्री का नाम वासुकी था। वह बड़ी ही पतिव्रता थी। विवाह के दिन वल्लुवर ने खाना परोसते समय उससे कहा-“मेरे खाते समय नित्य एक कटोरे में पानी तथा एक सुई रख दिया करो।” वासुकी ने जीवन पर्यन्त पति की इस आज्ञा का पालन किया।
जीवन के अंतिम क्षणों में जब वल्लुवर ने उससे पूछा-“तुम्हें कुछ चाहिए? क्या कोई इच्छा है तुम्हारी?”
“हाँ! एक बात पूछनी है। विवाह के दिन आपने भोजन करते समय नित्य एक कटोरा पानी और एक सुई रखने को कहा था। मैंने आपसे उसका प्रयोजन पूछे बिना ही यह कार्य प्रतिदिन किया। तथापि आज यह जानने की मेरी इच्छा हो रही है कि आप ये दोनों चीजें क्यों मांगा करते थे? यदि बता दें तो मैं शांति से मर सकूं।”
वल्लुवर ने स्नेहपूर्वक उत्तर दिया-“मैंने इसलिए पानी और सूई रखने के लिए कहा था कि यदि चावल के दाने गिर पड़ें, तो उन्हें सूई से उठाकर पानी से धोकर खा सकू, किंतु तुम इतनी दक्ष थीं कि तुमने एक दिन भी सूई और पानी का उपयोग करने का मुझे अवसर ही नहीं दिया।”
वासुकी का यह उद्धरण काल्पनिक नहीं, बल्कि वास्तविक हैं, जिन्होंने सुहागिन होते हुए भी अपने यौवन का त्याग कर दिया, लेकिन जन-कल्याण में लगे हुए अपने माथे के सिंदूर की लाली फीकी न पड़ने दी।
ऊपर पौराणिक उदाहरण दिये गये हैं, लेकिन यदि आप कहेंगे कि हमें संत या कवि नहीं बनना, हम तो कुछ नया करना चाहते हैं. तो भाई हम कहां कहते हैं कि आप कुछ नया न करो! लेकिन इस दुनिया में कुछ नया तो है नहीं। जितने तत्व धरती के निर्माण के समय थे, उतने ही आज हैं। कोई तत्व न तो घटा है और न ही बढ़ा है।
ऊंचाई को छूने की ललक में अपनी मान-मर्यादा, संस्कार और दीन-धर्म को नहीं त्यागा जा सकता है। यदि सफलता के लिए यह सब छोड़ना पड़े तो धिक्कार है ऐसी उन्नति को। इसलिए अपने इतिहास से हमें शिक्षा तो लेनी ही चाहिए।