प्रवीण गुगनानी
उत्तम खेती मध्यम बान, निकृष्ट चाकरी, भीख निदान, वाली कहावत वाले हमारे देश में कृषि और कृषक दोनों ही पिछले ७ दशकों से अपनाई जा रही गलत नीतियों का शिकार हो चुकें हैं। ऋषि पराशर व अन्य कई प्राचीन कृषि वैज्ञानिकों वाले हमारे देश में, घाघ व भड्डरी की विज्ञानसम्मत कृषि कहावतों व काव्य वाले हमारे देश में कृषि ही हमारा प्रमुख जीवन आधार रही है। प्राचीनकाल की इस प्राकृतिक कृषि पर निर्भर होकर ही हम विश्व की सर्वाधिक विशाल अर्थव्यवस्था व सोने की चिड़िया बने। इसी प्राकृतिक कृषि के आधार पर ही हम समूचे विश्व हेतु निर्यातक व आपूर्तिकर्ता बने थे। इस प्राकृतिक कृषि से उत्पादित रेशम, मसाले, मेवे, खाद्यान्न आदि निर्यात करके ही हम इतने समृद्ध बने कि विदेशी हमसे व्यवसाय करने हेतु व हमारी संपत्ति की लूट हेतु भारत की ओर खिंचे चले आते थे। हमारी कृषि प्रदत्त संपन्नता देखकर ही मुस्लिम आक्रमणकारी शाहजहाँ ने भारतवर्ष के संदर्भ में इर्ष्यापूर्वक कहा था –
गर फिरदौस बर रूये जमीं अस्त।
हमीं अस्तों हमीं अस्तों, हमीं अस्त॥
यानी, यदि पृथ्वी पर कहीं स्वर्ग है तो वह यही है, यही है और यही है। विश्वप्रसिद्ध आर्थिक इतिहास लेखक एंगस मेडिसन ने अपनी पुस्तक ‘विश्व का आर्थिक इतिहास : एक सहस्राब्दीगत दृष्टिपात’ में भारत को ईस्वी वर्ष १ से सन १५०० तक विश्व का सबसे धनी देश सिद्ध किया है। एडिसन ने विश्व अर्थव्यवस्था में प्राचीन भारत का हिस्सा ३५ से ४० प्रतिशत तक का बताया है। कालांतर में भारत पर आक्रमणकारियों का ऐसा दुष्प्रभाव रहा कि हम हमारी प्राकृतिक कृषि से विमुख हो गए, फलस्वरूप हमारी कृषि आय, पशुपालन, कृषि उत्पाद की गुणवत्ता व हमारा स्वास्थ्य सभी कुछ कुप्रभावित व नष्ट भ्रष्ट हो गया।
पिछले दिनों गांधीनगर गुजरात में कृषि की दृष्टि से अतिमहत्वपूर्ण व महत्वाकांक्षी कृषि शिखर सम्मलेन आयोजित किया गया जिसे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र जी मोदी ने प्रमुखतः संबोधित किया। प्रधानमंत्री जी ने जो बाते कहीं वह हमारे देश की कृषि का अति संभावनाशील ब्लूप्रिंट है। यह आयोजन २०२२ से पूर्व देश के कृषकों की आय को दोगुना करने का एक प्रमुख कारक भी बनेगा। प्रधानमंत्री जी ने पंचायतों का आह्वान किया कि वे कम से कम एक गांव को प्राकृतिक खेती के लिए तैयार अवश्य करें। खेती को रसायन की प्रयोगशाला से निकालकर प्रकृति की प्रयोगशाला से जोडऩे का समय आ गया है।उन्होंने कहा कि निवेशकों को भी प्राकृतिक कृषि के जरिये पैदा किए गए उत्पादों को प्रसंस्कृत करने पर विचार करना चाहिए क्योंकि यह भी इस दिशा में बढ़ाने का एक तरीका होगा और अब समय है कि उन गलतियों को सुधारा जाए जो कृषि का हिस्सा बन चुकी हैं। यह सही है कि रसायन और उर्वरक ने हरित क्रांति में अहम भूमिका निभाई है, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि हमें इसके विकल्पों पर भी साथ ही साथ काम करना होगा। इससे पहले खेती से जुड़ी समस्याएं भी विकराल हो जाएं, बड़े कदम उठाने का यह सही समय है। इसी क्रम में देश के गृह व सहकारिता मंत्री अमित जी शाह ने कहा कि सरकार अगले दो वर्ष में जैविक और प्राकृतिक उत्पाद के लिए सहकारिता मंत्रालय के तहत एक मजबूत विपणन बुनियादी ढांचा तैयार करने की योजना बना रही है। इस प्रकार देश के प्रधानमंत्री कार्यालय, कृषि मंत्रालय, सहकारिता मंत्रालय व गुजरात सरकार ने भारत में प्राकृतिक कृषि के भविष्य की एक रूपरेखा इस कृषि शिखर सम्मलेन के माध्यम से इस सम्मलेन को सुन रहे आठ करोड़ कृषकों के समक्ष प्रस्तुत की है।
आज जब हम प्राकृतिक कृषि से मूंह मोड़ चुके हैं तब हमें यह जान लेना चाहिए कि हम इस पृथ्वी पर सर्वप्रथम अन्न उपजाने वाले मनुष्य हैं, हम ही वह मनुष्य हैं जिसने अपने प्राकृतिक कृषि उत्पादों को समूचे विश्व में विक्रय करके विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का संचालन किया था। गौरवपूर्वक स्मरण रखना चाहिए कि हम भारतीय नौ हजार ईसापूर्व से पशुपालन व कृषिकार्य कर रहे हैं।
मोहनजोदाड़ो के पुरावशेषों के उत्खनन के इस बात के प्रचुर प्रमाण मिले है कि आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व कृषि अत्युन्नत अवस्था में थी और लोग राजस्व अनाज के रूप में चुकाते थे। पुरातत्वविद् मोहनजोदड़ो में मिले बड़े बडे कोठरों के आधार पर प्राचीनकाल में भारतकी प्राकृतिक कृषि का बड़ा विस्तृत व संपन्न आकलन करते हैं। सिंधु उत्खनन में मिले गेंहू, व जौ के नमूनों से उस कालखंड में इसकी कृषि का प्रमाण मिलता है। मोहनजोदाड़ो से मिले गेंहू के दाने ट्रिटिकम कंपैक्टम (Triticum Compactum) अथवा ट्रिटिकम स्फीरौकोकम (Triticum sphaerococcum) जाति के हैं। इन दोनो ही जाति के गेहूँ की खेती आज भी हमारे देश में होती है। यहाँ से मिला जौ हाडियम बलगेयर (Hordeum Vulgare) जाति का है, यही जौ मिश्र के पिरामिडो में मिला है। सिंध में आज जो कपास उत्पादित की जा रही उसके बीज भी सिन्धु उत्खनन से मिले थे। इससे भी हजारो वर्ष पूर्व रचित हमारें ऋग्वेद व अथर्ववेद में कृषि सम्बंधित अनेकों ऋचाएं हैं जिनमे कृषि उपकरण, बीजोपचार, कृषि विधाओं आदि का बड़ा व्यापक विवरण है। उदाहरण स्वरुप ऋग्वेद की ऋचा ४.५७-८ को पढ़िए जिससे वैदिक आर्यों के व्यापक कृषि ज्ञान का बोध होता है-
शुनं वाहा: शुनं नर: शुनं कृषतु लांगलम्।
शनुं वरत्रा बध्यंतां शुनमष्ट्रामुदिंगय।।
शुनासीराविमां वाचं जुषेथां यद् दिवि चक्रयु: पय:।
हमारे प्राचीन ग्रंथ कृषि पाराशर, पराशर तंत्र, वृक्षार्युवेद, कृषिगीता, कश्यपीयकृषिसुक्त, विश्ववल्लभ, लोकोपकार, उपवनविनो आदि से भी हमारे विश्व के प्राचीनतम कृषि ज्ञान का परिचय मिलता है। आज जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र जी मोदी द्वारा देश के कृषकों से प्राकृतिक कृषि का आग्रह रखा जा रहा है तब हमें हमारी अतिसंपन्न, वैज्ञानिक व तर्कसंगत परंपरागत कृषि का यह इतिहास हममें आत्मविश्वास का जागरण करता है।
गांधीजी ने कहा था कि धरती में इतनी क्षमता है कि वह सभी की आवशयकताओं को पूर्ण कर सकती है किंतु उसमे इतनी क्षमता नहीं है कि वह किसी के लालच को पूर्ण कर सके। हम लालच के वशीभूत होकर रासायनिक कृषि के कुचक्र में फंस तो गए है किंतु इन घातक रसायनों के कारण से हमारी भूमि की घटती उर्वरा क्षमता ने व विषैले अनाज ने हमें अत्यधिक चिंता में दाल दिया है। यही कारण है कि आज बड़ी संख्या में कृषक रासायांनिक कृषि को त्यागकर इकोलाजिकल कृषि, बायोडायनामिक कृषि, वैकल्पिक कृषि, शाश्वत कृषि, सान्द्रिय कृषि, पंचगव्य कृषि, दशगव्य कृषि, नाडेप कृषि जैसी सुरक्षित कृषि पद्धतियों को अपना रहे हैं। आज जैविक कृषि और प्राकृतिक कृषि ही हमारी आने वाली पीढ़ियों की आवश्यकताओं का निदान है इस बात को जितनी शीघ्रता से समझा व क्रियान्वित किया जाए उतना ही श्रेयस्कर होगा। प्राकृतिक कृषि या जीरो बजट कृषि देशी गाय के गोबर व गौमूत्र पर आधारित होती है। मात्र एक ही गाय के गोबर व गौमूत्र से तीस एकड़ भूमि पर प्राकृतिक कृषि की जा सकती है। एक सप्ताह के गौमूत्र से बनने वाले जीवामृत व बीजामृत कई एकड़ भूमि हेतु प्राणशक्ति का कार्य करते हैं।
प्राकृतिक कृषि के कई ऐसे आयाम हैं जिनका संक्षेप में भी उल्लेख यहाँ संभव नहीं है, किंतु जिस प्रकार से हमारी मोदी सरकार ने गुजरात से प्राकृतिक कृषि हेतु देश भर के किसानों को आवाज लगाई है उससे एक नई आशा का संचार होता है।