इस्लामाबाद में मुस्लिम नेताओं का सम्मेलन और भारत
हमारी आरंभ से ही यह मान्यता रही है कि अफगानिस्तान में तालिबान का लौटना संसार के लिए शुभ संकेत नहीं है। सारे विश्व के देश और नेता भी इस बात को जानते हैं। इसके उपरांत भी बड़ी सहजता से और अप्रत्याशित ढंग से तालिबान को सत्ता में लौट जाने दिया गया है। ईसाई देशों ने इस्लामिक देशों की बुराई नहीं लेनी चाही, इसलिए वह इस घटना के प्रति मौन रहे। जबकि भारत जैसे अन्य धर्मावलंबी देशों की संख्या बहुत कम है और उनका कोई संगठन भी विश्व स्तर पर नहीं है, उन्हें इस्लामिक या ईसाई देशों की भांति अपने आपको किसी धर्म विशेष से जोड़ने में भी शर्म आती है। जबकि इस्लामिक या ईसाई देश अपने आपको इस्लामिक या ईसाई देश कहने में गर्व अनुभव करते हैं।
इस घटना के भविष्य में क्या परिणाम होंगे, यह तो अभी नहीं कहा जा सकता परंतु इतना अवश्य है कि अफगानिस्तान में तालिबान के लौटने के पश्चात विश्व राजनीति में तेजी से कई परिवर्तन आते देखे जा रहे हैं। अभी हाल ही में पाकिस्तान में विगत 19 दिसंबर को इस्लामिक देशों का सम्मेलन हुआ है । जिसके लिए कहा गया है कि अफगानिस्तान में गहराते मानवीय संकट और ढहती अर्थव्यवस्था को लेकर यह सम्मेलन आहूत किया गया है ।
ऐसे में प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में ही इस्लामिक देश इस बात को लेकर चिंतित हैं कि अफगानिस्तान में गहराते मानवीय संकट और उसकी ढहती अर्थव्यवस्था को ठीक किया जाए ? या इस सम्मेलन का उद्देश्य ‘कुछ और’ रहा है ?
अफ़ग़ानिस्तान के हालात को लेकर हुई इस्लामिक देशों की इस बैठक को अब तक की सबसे बड़ी बैठक बताया जा रहा है। इस्लामिक देशों का भारत के सिरहाने आकर बैठना और वहां से कश्मीर के मुद्दे पर चर्चा करना भारत के लिए कोई शुभ संकेत नहीं है । इस बैठक के संदर्भ में भारत को सावधान रहने की आवश्यकता है। क्योंकि यदि वास्तव में इस्लामिक देशों को अफगानिस्तान के विषय में चिंता होती और वे यह समझते कि यहां पर मानवीय संकट है तो वह जिस समय तालिबान वहां सत्ता पर कब्जा करने का प्रयास कर रहा था उस समय एकजुट होकर मानव अधिकारों के लिए एक साथ सामने आते । उस समय तो वह मौन रहे और अब जब सब कुछ हो गया है, तब मानवाधिकारों को लेकर वे चिंता कर रहे हैं । क्या वे यह बता सकते हैं कि इस चिंता के निराकरण के लिए उनके पास क्या उपाय हैं? घटना होने के पश्चात उनका इस प्रकार बैठना तो कुछ वैसी ही बात हुई कि पहले डकैती पड़ने दी जाए और फिर डकैती से होने वाले नुकसान पर चिंता की जाए ।अच्छी बात होती की डकैती पड़ने ही ना दी जाती।
ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ इस्लामिक कोऑपरेशन (OIC) के विदेश मंत्रियों की परिषद के इस ‘असाधारण सत्र’ में मुस्लिम देश
पाकिस्तान की संसद में एकत्र हुए।सऊदी अरब के प्रस्ताव के बाद पाकिस्तान ने इस सम्मेलन की मेज़बानी का प्रस्ताव दिया था। पाकिस्तान ने इस सम्मेलन की मेजबानी का संकेत भारत को कोई संदेश देने के लिए किया था। जिसे संकेतों में ही सभी मुस्लिम देशों ने स्वीकार किया और वह सब भारत के पड़ोस में आकर एकत्र होकर भारत को बहुत कुछ बता गए हैं। अफगानिस्तान तो एक बहाना था। वास्तव में भारत को ही अपनी इस्लामिक एकता का परिचय देने के लिए इमरान खान ने इस सम्मेलन को अपने देश की संसद में आहूत किया। सारी विश्व बिरादरी को इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि अपने आप को धर्मनिरपेक्षता का अलंबरदार घोषित करने वाला पाकिस्तान जब अपनी संसद को ही इस्लामिक देशों को दे देता हो तो उसकी संसद से बनने वाले कानून अल्पसंख्यकों के लिए कितने हितकारी हो सकते हैं ? यदि ऐसा ही कोई वेद सम्मेलन या वैदिक संस्कृति से संबंधित कोई भी विश्व सम्मेलन भारत की संसद में हो गया होता तो सारे संसार में कोहराम मच गया होता।
क्या संयुक्त राष्ट्र पाकिस्तान के द्वारा अपनी संसद को इस्लामिक देशों को सौंपने के इस निर्णय पर कोई कार्यवाही करेगा?
इस सम्मेलन से पहले पाकिस्तान के विदेशमंत्री शाह महमूद कुरैशी ने ओआईसी के विदेश मंत्रियों के सम्मेलन के संदर्भ में अफगानिस्तान के कार्यवाहक विदेश मंत्री आमिर खान मुक्तकी से कहा कि इमरान खान की सरकार अफगानिस्तान में आए मानवीय संकट पर अंतरराष्ट्रीय ध्यान आकर्षित करने के लिए इस सम्मेलन को बुला रही है। अफगानिस्तान के विदेश मंत्री मुक्तकी भी इस सम्मेलन में उपस्थित रहे।
पाकिस्तान के विदेश कार्यालय के एक बयान में कहा गया है, ‘‘पाकिस्तान लगातार अफगानिस्तान की आर्थिक चुनौतियों की ओर अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास कर रहा है और मानवीय सहायता के तत्काल प्रावधान का अनुरोध किया है।’’
वास्तव में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान अपनी फजीहत से बचने के लिए और सेना की नजरों में ठीक बने रहने के लिए कोई ना कोई नाटक करते रहते हैं। अब उन्होंने जब इस्लामिक देशों का यह सम्मेलन आहूत किया है तो इसमें भी उन्होंने सेना को खुश करने के लिए कहा है कि कश्मीर के लोग हमारी ओर देख रहे हैं। इसका अभिप्राय है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने मुस्लिम देशों के इस सम्मेलन को कश्मीर के साथ जोड़ने का प्रयास किया है। वास्तव में उनका उद्देश्य भी यही था कि किसी न किसी प्रकार भारत पर दबाव बनाया जाए । इमरान खान यह भली प्रकार जानते हैं कि भारत इस समय किसी भी तूफान के सामने झुकने को तैयार नहीं है। धारा 370 के हटने के पश्चात कश्मीर में जिस प्रकार तेजी से हालात सामान्य हुए हैं वह भी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को अच्छा नहीं लगा है। यही कारण है कि वह अपने यहां मुस्लिम देशों को इकट्ठा करके भारत को धमकाने की कोशिश कर रहे हैं।
इसे मुस्लिम देशों के इस सम्मेलन से भारत के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेताओं को बहुत कुछ सीखने समझने की आवश्यकता है। उन्हें यह सीखना चाहिए कि सारे विश्व के मुस्लिम देश भारत के विरुद्ध किस प्रकार एकत्र हो सकते हैं? उनका उद्देश्य भारत को दारुल हरब से दारुल इस्लाम में परिवर्तित करना है। इसके लिए वह सब एक ही सांझा एजेंडा पर काम करते हैं । धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत भारत के लिए बहुत ही भ्रामक और घातक है। इससे जितनी शीघ्रता से भारत मुक्त हो जाएगा, उतना ही अच्छा रहेगा। यह बात भी विचारणीय है कि आज जब ग्लोबल विलेज की बातें की जाती हैं तब एक मुस्लिम देश के लिए केवल मुस्लिम देशों कोई सम्मेलन करने की आवश्यकता क्यों पड़ी? इसके लिए तो वैश्विक सम्मेलन होना चाहिए था। क्या इस्लामिक देशों के नेता यह बताना चाहते हैं कि अधिकार केवल इस्लाम को मानने वाले लोगों के ही होते हैं या फिर वह यह बताना चाहते हैं कि इस्लामिक देशों में किसी अन्य मजहब के व्यक्ति को रहने की इजाजत नहीं है?
वर्तमान परिस्थितियों में भारत को सचेत रहने की आवश्यकता है। इस बात को भारत के विदेश नीति निर्धारकों को कभी भी विस्मृत नहीं करना चाहिए कि विश्व स्तर पर आज भी देशों की विदेश नीतियां मजहब के आधार पर तय होती हैं। अपने मजहबी भाई के लिए देशों की नीति दूसरी होती है और काफिरों के लिए दूसरी होती है। जब बात काफिर की आती है तो भारत हमेशा घाटे में रहता है। इसलिए ‘काफिर’ और ‘घाटा’ दोनों शब्दों को भारत की विदेश नीति निर्धारकों को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। आज की तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीति में भी जब ये शब्द मजबूती के साथ अपनी भूमिका अदा कर रहे हों तब भारत को किसी भी प्रकार की भ्रांति में नहीं रहना चाहिए। भारत के पड़ोस में मुस्लिम देशों ने इकट्ठा होकर भारत को बता दिया है कि धारा 370 के हटाने का दर्द कितना गहरा है और उसके बारे में वे सब चिंतित हैं, इसलिए भविष्य में इसकी क्या प्रतिक्रिया हो सकती है?- उस पर हमें समय रहते चिंतन करना चाहिए। प्रधानमंत्री श्री मोदी और भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर को इस ओर अवश्य ही ध्यान देना चाहिए।
डॉ राकेश कुमार आर्य